पीर मीरान शाह के ‘जिकिर’ को बचाने के लिए समर्पित हैं बाबुल अली

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] • 2 Years ago
बाबुल अली बच्चों को सिखा रहे हैं जिकिर
बाबुल अली बच्चों को सिखा रहे हैं जिकिर

 

अरिफुल इस्लाम / गुवाहाटी

सूफी संत अजान पीर 1634 में असम आए और राज्य के लोगों को ‘जिकिर’ नामक एक बेशकीमती सांस्कृतिक उपदेश दिया. जिकिर मुसलमानों और हिंदुओं के बीच शांति और भाईचारे का जश्न मनाने वाले इस्लामी भक्ति गीत है. इस पीर का मूल नाम सैयद मोइनुद्दीन बगदादी बताया गया है और इन्हें शाह मिलन या शाह मीरान के नाम से भी जाना जाता है. अजान देव साहब के नाम से मशहूर इस पीर ने असम के सबसे महान संत-सुधारक श्रीमंत शंकरदेव द्वारा प्रचारित नव-वैष्णव संस्कृति के बारे में जाना और देश के इस हिस्से में इस्लाम के अनुयायियों को सुधारने के लिए खुद को उसके साथ आत्मसात किया. जैसे-जैसे जिकिर का समय बीतता गया, उसके संरक्षण और उचित देखभाल की कमी के कारण वह अपनी चमक खोता गया.

जिकिर और जरी (संत की एक और रचना) को पुनः प्राप्त करने और संरक्षित करने के लिए कई युगों से पहल की गई है. ऐसे ही एक व्यक्ति हैं पूर्वी असम के शिवसागर के बाबुल अली, जो जिकिर प्रतिपादक और अजान पीर दरगाह प्रबंधन समिति के संयुक्त सचिव हैं.

वह न केवल सूफी संत के बेशकीमती कार्यों को पुनः प्राप्त करने और संरक्षित करने की, बल्कि उन्हें पूरे भारत और विदेशों में बढ़ावा देने के लिए भी पहल कर रहे हैं. वह इसे लोकप्रिय बनाने के लिए न केवल देश के विभिन्न हिस्सों में जिकिर का प्रदर्शन कर रहे हैं, बल्कि युवा पीढ़ी को पंथ से परिचित कराने के लिए कार्यशालाओं का आयोजन भी कर रहे हैं.

अली ने ‘मुर मनत भेद भाब नै ओ अल्लाह...’ के गीतों को हिंदी में लाने के लिए पूर्वी असम के दरगांव के वाजिदुर रहमान की मदद ली है. वे चार और जिकिरों का अनुवाद करने पर काम कर रहे हैं, ताकि कला का विशेष रूप देश भर में प्रचार हो सके.

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बाबुल अली

अली भारत के विभिन्न हिस्सों में कार्यशालाओं के माध्यम से जिकिर का प्रचार भी करते रहे हैं. दिसंबर 2016में, ‘स्पिकमैके’ नामक एक स्वैच्छिक संगठन के तत्वावधान में राष्ट्रीय स्तर पर बैंगलोर में विभिन्न भारतीय लोक गीतों पर एक कार्यशाला आयोजित की गई थी.

अली को असम से जिकिर कार्यशाला आयोजित करने के लिए आमंत्रित किया गया था. कार्यशाला में कुल 55प्रशिक्षुओं ने भाग लिया. यद्यपि केवल एक मुस्लिम प्रशिक्षु था, सभी प्रतिभागी बहुत ही कम समय में इस शैली को चुन सकते थे.

अली ने एक विशेष साक्षात्कार के दौरान आवाज-द वॉयस को बताया, “जिकिर के वाद्ययंत्र, संगीत और धुन ने प्रतिभागियों को बहुत आकर्षित किया. चूंकि असमिया बोलने वाला कोई प्रतिभागी नहीं था, इसलिए मैंने बोर्ड पर अंग्रेजी पाठ में शब्दांश लिखे और ‘मुर मनत भेद भाब नै ओ अल्लाह ...’ का हिंदी में अनुवाद किया. प्रतिभागी इस रूप में जिकिरों को बहुत तेजी से समझ सकते हैं.’

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बाबुल अली के प्रयासों को मिल रही सराहना 


बाबुल अली की बचपन से ही जिकिर में रुचि रही है. वह इसके सबसे बड़े प्रतिपादकों में से एक स्वर्गीय रेकिबुद्दीन अहमद द्वारा जिकिर गायन से बहुत प्रेरित थे.

अली ने कहा, ‘जब बचपन में जिकिर रेडियो पर प्रसारित होता था, तो हमारे घर में रेडियो नहीं था. मैं जिकिर सुनने के लिए अपने पड़ोसी चाचा के घर जाता था. मैं रेकिबुद्दीन अहमद के जिकिर का प्रशंसक हूं. मेरा पिता ने बाद में मेरे लिए एक रेडियो खरीदा, ताकि मैं घर पर जिकिर सुन सकूं. जब मैं चौथी कक्षा में था, मैंने अपने गांव में एक जिकिर प्रतियोगिता में भाग लिया और मुझे हमारे ग्रामीणों से बहुत सराहना मिली. मैं रेकीबुद्दीन अहमद के संपर्क में 1986में आया और बाद में मुझे 1990में प्रसारण कलाकार के रूप में पहचान मिली.’

अली ने विस्तार से बताया, ‘रेकिबुद्दीन अहमद जिकिर को अधिक हद तक बढ़ावा देने वाले पहले व्यक्ति थे. उससे पहले, जिकिरों को शायद आध्यात्मिक गीत के रूप में गलत समझा जाता था और कुछ लोगों द्वारा छिपाए जाते थे.

चूँकि उस उम्र के लोग ज्यादातर निरक्षर थे, जिकिर शायद अलिखित रह गए थे, जिससे समय के साथ उन्हें जानने वालों से कई लोगों की मृत्यु हो गई. गाने रिकॉर्ड करने के लिए भी कोई उपकरण नहीं था. जिकिर केवल मौखिक रूप से मौजूद थे, जब तक कि रेकिबुद्दीन अहमद ने उन्हें रेडियो पर गाना और मंच पर प्रदर्शन करना शुरू नहीं किया.’

जिकिर के संरक्षण के बारे में उन्होंने कहा, ‘165 जिकिरों को अजान पीर ने गाया था, अब केवल 80लिखित रूप में हैं. शेष मौखिक रूप में हैं और केवल लखीमपुर और नगांव जिलों में प्रचलित हैं. अजान पीर दरगाह समिति ने गीत लिखने की पहल की है, लेकिन कुछ बाधाओं के कारण इसे बीच में ही रोक दिया गया है. इसे जल्द ही फिर से शुरू किया जाएगा.’

अली ने आगे कहा, ‘एक और पहलू जिसके बारे में हाल ही में बात की गई है, वह यह है कि आजकल कुछ गायक अलग-अलग चरणों में अपनी धुन और संगीत में जिकिर करते हैं. लेकिन, जिकिर की धुन, बोल या वाद्ययंत्र बदलने का अधिकार किसी को नहीं है. दुर्भाग्य से, यह हो रहा है और यह प्रवृत्ति मूल जिकिर को विलुप्त होने के कगार पर धकेल रही है.’

अली को लगता है कि असम में अभी भी कई जगह जिकिर के बारे में नहीं जानते हैं और जिकिर में केवल महिलाओं की दिलचस्पी है. अली का मानना है कि जिकिर को जिंदा रखने के लिए पूरे राज्य में वर्कशॉप होनी चाहिए.