पसमांदा से आगे जाने की जरूरत

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 24-12-2023
need to go beyond pasmanda
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harjinderहरजिंदर

मुस्लिम समाज के भीतर सामाजिक स्तर और उसे लेकर होने वाले भेदभाव के लिए इस्तेमाल होने वाला ‘पसमांदा‘ अपेक्षाकृत एक नया शब्द है. इस समय इस शब्द के आस-पास बहुत सी राजनीति हो रही है, इसलिए यह चर्चा में है. लेकिन भारत के मुसलमानों में जातियां हैं इस बात को बहुत पहले से ही स्वीकार किया जाने लगा था.

यहां तक कि इसका जिक्र ब्रिटिश सरकार के पुराने दस्तावेजों में भी मिल जाएगा.जब देश में 1901 की जनगणना हो रही थी तो बंगाल प्रांत के जनगणना सुपरीटेंडेंट थे एडवर्ड अल्बर्ट गेट. गेट काफी वरिष्ठ आईसीएस अधिकारी थे. जमीनी स्तर पर जाकर हालात को पूरी गहराई से जानने समझने की कोशिश करते थे.
 
उनकी गंभीरता का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि जब वे असम में तैनात थे तो उन्होंने इस प्रांत का काफी गहराई से अध्यन किया .बाद में असम का इतिहास ही लिख डाला. 1901 की जनगणना की उनकी रिपोर्ट इतनी व्यापक थी कि इसके तुरंत बाद उन्हें देश का जनगणना कमिश्नर बना दिया गया. 
 
बाद में वे बिहार और उड़ीसा के लेफ्टिनेंट गवर्नर भी रहे.गेट ने बंगाल की जनगणना की अपनी जो रिपोर्ट दी उसमें उन्होंने मुस्लिम समाज की जातियों का काफी विस्तार से जिक्र किया था. उन्होंने जातियों के आधार पर मुसलमानों को तीन वर्गों में बांटा था.
 
पहला वर्ग उच्च वर्गीय या कुलीन मुसलमानों का. जिन्हें अशराफ कहा जाता है. दूसरा वर्ग अजलाफ है. तीसरा व सबसे निम्न वर्ग है अरज़ाल. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा था कि अरज़ाल ऐसा वर्ग है जिससे अन्य वर्गों के मुसलमान कोई संबंध नहीं रखते.
 
अक्सर उन्हें मस्जिदों और कब्रिस्तानों में प्रवेश नहीं करने दिया जाता. गेट ने इन तीनों ही वर्गों में आने वाली जातियों और उनके पेशों का भी विस्तार से जिक्र किया था.बाद में भीमराव अंबेडकर ने कईं बार इस रिपोर्ट का जिक्र किया.
 
अंबेडकर ने यह भी लिखा कि मुसलमानों में इस बुराइयों को होना दुखद है. लेकिन उससे भी ज्यादा दुखद यह है कि इन बुराइयों को खत्म करने के लिए भारतीय मुसलमानों में कोई संगठित आंदोलन नहीं उभर सका. अंबेडकर यह भी कहते हैं कि भारतीय मुसलमान यह महसूस ही नहीं करते कि ये सब बुराइयां हैं.
 
अंबेडकर ने जब यह बात लिखी तब से अब तक एक फर्क यह जरूर आया है कि अब बहुत से लोग इन बुराइयों की मौजूदगी को स्वीकार करने लगे हैं. इस बढ़ते अहसास की वजह से ही वोट की राजनीति भी शुरू हुई है और आजकल तकरीबन सभी पार्टियां पसमांदा की बात करने लगी हैं.
 
जबकि जरूरत पसमांदा के भीतर उस वर्गीकरण की ओर बढ़ने की है जिसका जिक्र गेट ने अपनी रिपोर्ट में किया था.ठीक उसी तरह जैसे कई राज्यों में अति दलित और अति पिछड़ों को वर्ग के रूप में मान्यता दी गई है.
 
इसकी वजह से सबसे ज्यादा भेदभाव की शिकार वे जातियां पीछे रह जाती हैं जिन्हें बहुत से लोग मुस्लिम दलित भी कहते हैं. ब्रिटिश सरकार ने शेड्यूल कास्ट का जो वर्गीकरण किया था उसे जेंडर न्यूट्रल रखा गया था.
 
बाद में इसे पहले हिंदू धर्म तक सीमित कर दिया गया फिर इसमें सिख और नवबौद्ध समुदाय को भी जोड़ा गया. लेकिन मुस्लिम और ईसाई समाज के अछूत समझे जाने वाले लोग अभी भी इसमें शामिल नहीं किए गए हैं.
 
नरसिंह राव की सरकार के समय सरकार ने इस पर एक विधेयक तैयार किया था, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ी. सच्चर कमीशन ने भी इसकी सिफारिश की थी, लेकिन कुछ नहीं हुआ. राजनीतिक दलों ने पसमांदा की बात तो शरू कर दी है, लेकिन यह मसला अभी किसी की प्राथमिकता सूची में नहीं है.
 
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )