हम आरएसएस और दक्षिणपंथी समूहों से संवाद के लिए तैयार हैः जमात-ए-इस्लामी प्रमुख

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 22-01-2022
जमात-ए-इस्लामी हिंद के अमीर सैयद सदातुल्ला हुसैनी
जमात-ए-इस्लामी हिंद के अमीर सैयद सदातुल्ला हुसैनी

 

जमात-ए-इस्लामी हिंद के अमीर सैयद सदातुल्ला हुसैनी ने भारत में मुस्लिमों की स्थिति पर आवाज-द वॉयस के प्रधान संपादक आतिर खान से बात की. एक सीधी बातचीत में, उन्होंने विभिन्न विवादास्पद मुद्दों पर बात की और इनसे आगे का रास्ता सुझाया है. बातचीत के मुख्य अंशः

सवालः हाल ही में कोलकाता में एक भाषण में आपने मुसलमानों से रोज़मर्रा की ज़िंदगी में पारदर्शिता और ईमानदारी लाने की अपील की. ऐसा कहने का आपका क्या मतलब था?

सैयद सदातुल्ला हुसैनी: मैं इस विषय पर बोल रहा था कि वर्तमान परिस्थितियों में मुसलमानों को क्या करना चाहिए और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंध कैसे सुधारे जा सकते हैं. मेरा मतलब यह था कि मुसलमानों को रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इस्लाम के मूल मूल्यों को आत्मसात करना चाहिए. उन्हें इस्लाम के मूल्यों को अपनाना चाहिए, जो अपने साथी देशवासियों, पड़ोसियों के साथ अच्छे संबंध रखने का उपदेश देते हैं, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो. उनके अधिकारों के प्रति सचेत रहें और अपने व्यवसाय में ईमानदार रहें. इस्लाम के ये बुनियादी मूल्य मुसलमानों की पहचान बनाते हैं. यदि वे इन अच्छे मूल्यों को अपनाते हैं तो उनकी एक अच्छी छवि होगी और इससे मुसलमानों के प्रति नफरत की भावना को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी.

सवालः आज की ध्रुवीकृत दुनिया में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच मतभेद बढ़ रहे हैं. इसका क्या समाधान है?

हुसैनी: ऐसे कई पहलू हैं जिन पर मुसलमानों को काम करना चाहिए. सबसे महत्वपूर्ण है कि उन्हें हिंदुओं, सिखों, ईसाइयों और अन्य लोगों के साथ संवाद करना चाहिए. उन्हें उन तक पहुंचना चाहिए और इस्लाम के वास्तविक उपदेश का संचार करना चाहिए. लोगों को मीडिया के माध्यम से मुसलमानों और इस्लाम के बारे में धारणा नहीं बनानी चाहिए बल्कि खुद मुसलमानों को देखकर कुछ विचार कायम करना चाहिए.

आवाज- द वॉयस के प्रधान संपादक आतिर खान और जमाते-इस्लामी हिंद के अमीर सैयद सदातुल्ला हुसैनी


अक्सर महत्वपूर्ण मुद्दों पर मुसलमानों के दृष्टिकोण को मीडिया में गलत समझा जाता है. लेकिन मैं पूरे मीडिया को दोष नहीं देता. मीडिया में अच्छी आवाजें आती हैं लेकिन मीडिया का एक बड़ा वर्ग राजनीतिक प्रभाव के कारण मुसलमानों की सही तस्वीर नहीं देता है. ये काफी खतरनाक है.

यह गलतफहमी और अविश्वास का सबसे बड़ा कारण है. समुदायों के बीच बातचीत को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. संचार के औपचारिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए लेकिन मुसलमानों का चरित्र भी संचार का एक तरीका है. इसलिए, मुसलमानों को विभिन्न मुद्दों पर सही स्थिति में संवाद करना चाहिए.

सवालः आपातकाल के दौरान जमाते इस्लामी और आरएसएस एक ही नाव में सवार थे. लेकिन आखिरकार दोनों के बीच संपर्क और बातचीत बंद हो गई. देश के दो बड़े संगठनों के बीच सार्थक संवाद को प्रोत्साहित करने के लिए क्या किया जा सकता है?

हुसैनीः जमाते इस्लामी हमेशा बातचीत और चर्चा के लिए तैयार रहा है. हमें लगता है कि संवाद करना हमारी जिम्मेदारी है. अतीत में चर्चा और बहस आयोजित करने का प्रयास किया गया है. और आज भी हम सोचते हैं कि आरएसएस और दक्षिणपंथी समूहों के बुद्धिजीवियों को संवाद के महत्व को समझना चाहिए और इस दिशा में पहल करनी चाहिए.

दुर्भाग्य से, लोगों के एक छोटे समूह का मानना है कि इस देश में राजनीतिक अस्तित्व केवल ध्रुवीकरण और लोगों के अलगाव के माध्यम से ही मुमकिन है. हमें इस छोटे समूह को समझाने और यह बताने की आवश्यकता है कि पूरा बहुसंख्यक आपके विचारों का बंधक नही है. हमें उम्मीद है कि शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए सही सोच वाले लोग बातचीत और चर्चा के लिए एक साथ आएंगे.

सवालः पिछले कुछ वर्षों के दौरान जमाते इस्लामी ने कम्युनिस्टों के साथ अपनी बातचीत बढ़ा दी है?

हुसैनी: हम सभी समूहों के साथ अपनी बातचीत बढ़ाना चाहते हैं और सभी के साथ आम मुद्दों पर काम करना चाहते हैं. मतभेद जरूर होंगे, कम्युनिस्टों से भी हमारे मतभेद हैं. हम उनकी विश्व-दृष्टि, आर्थिक नीतियों और समाज पर उनके विचारों से सहमत नहीं हैं. हमारे विचार अलग हैं. बेशक, विचार अलग हो सकते हैं. लेकिन कुछ सामान्य हित सार्वभौमिक हैं जैसे शांति, समानता, न्याय, देश का आर्थिक विकास. हम साझा हितों पर सबके साथ काम करने के लिए तैयार हैं. हम धार्मिक समूहों के साथ भी बातचीत करते हैं. जमाते इस्लामी की एक इकाई है जिसे ‘धार्मिक जनमोर्चा’कहा जाता है, जिसमें प्रमुख धार्मिक नेता नियमित रूप से भाग लेते हैं.

सवालः जमाते इस्लामी हमेशा लोगों से चुनावों में जीतनेवाले मुस्लिम उम्मीदवारों का समर्थन करने के लिए क्यों कहता है? यह एक अच्छे नेता का समर्थन करने पर जोर क्यों नहीं देता?

हुसैनी: हमारी प्राथमिकताएं हैं. राजनीति प्राथमिकताओं को चुनने की कला है. चुनाव में हमें उस स्थिति में चुनना होता है कि हमारा सबसे अच्छा विकल्प क्या है. हमारे पास प्राथमिकताओं का क्रम है. मुख्य रूप से हम कोशिश करते हैं कि लोग एक अच्छे उम्मीदवार को वोट दें. चरित्र और मूल्य चुनाव का आधार होना चाहिए. हमारी राजनीति मूल्योन्मुखी होनी चाहिए. और यह तभी होगा जब लोगों में जागरूकता आएगी कि वे अपराधी जैसे उम्मीदवार को वोट नहीं देंगे.

दूसरी प्राथमिकता यह है कि हमने एक घोषणापत्र प्रकाशित किया है जो हमारे देश के सामने आने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रकाश डालता है. हर उम्मीदवार जो इसे स्वीकार करता है, हम लोगों को उसे वोट देने के लिए प्रोत्साहित करेंगे. मौजूदा हालात में हमारी तीसरी प्राथमिकता यह है कि समाज में नफरत फैलाने वाली सांप्रदायिक ताकतों की जीत न हो. हम चाहते हैं कि वे उम्मीदवार जीतें जो सभी लोगों को अपने साथ ले जा सकें और संवैधानिक मूल्यों में विश्वास कर सकें. लेकिन प्राथमिकता का यह क्रम स्थायी नहीं है. बदलती परिस्थितियों के साथ हमारी प्राथमिकताएं बदल जाएंगी.

सवालः क्या आपको लगता है कि सोशल मीडिया पर हिंदू-मुस्लिम मतभेद अधिक गहरे हैं और जमीनी स्थिति वैसी नहीं है?

हुसैनी: मैं मानता हूं कि सोशल मीडिया पर जो अनुमान लगाया जा रहा है, जमीनी स्थिति उससे बहुत अलग है. कुछ शहरी क्षेत्र हो सकते हैं जहां आप सांप्रदायिक तनाव दिखता होगा. लेकिन कुल मिलाकर इस देश में हम सांप्रदायिक सौहार्द के साथ रहे हैं. आज भी आपको ऐसे लोग मिलते हैं जो सहिष्णु होते हैं और सच सुनना पसंद करते हैं. भारत में अधिकांश लोग शांतिप्रिय हैं और न्याय को महत्व देते हैं. लेकिन सोशल मीडिया एक खराब छवि पेश कर रहा है और यह नफरत फैलाने का जरिया बन गया है. यह नफरत फैलाने का एक जन माध्यम बन गया है.

सवालः सोशल मीडिया का उपयोग करने के लिए मुसलमानों को आपकी क्या सलाह होगी?

हुसैनी: सिर्फ मुसलमानों को नहीं बल्कि सभी को सलाह देना चाहता हूं. लोगों को इस मीडिया का जिम्मेदारी से उपयोग करना चाहिए क्योंकि यह बहुत धारणा को आकार देता है. इन दिनों युवा सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं इसलिए यदि इन प्लेटफार्मों का उपयोग नफरत और अविश्वास फैलाने के लिए किया जाता है तो हमारे पास एक ऐसी पीढ़ी होगी, जो अत्यधिक गैर-जिम्मेदार होगी.

यह देश को विनाशकारी परिणामों की ओर ले जाएगा और हमारे देश की बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक आबादी दोनों को नुकसान होगा. मैं जमाते इस्लामी कैडरों से भी अपील करता हूं कि बुजुर्ग लोग सोशल मीडिया में सक्रिय भूमिका निभाएं और युवाओं का मार्गदर्शन करें. यह हमारी परंपरा रही है कि शिष्टाचार और शिष्टाचार हमारे बड़ों द्वारा सिखाया जाता है. लेकिन सोशल मीडिया की दुनिया में बड़ों की भूमिका सबसे कम होती है. युवा सक्रिय भूमिका निभाते हैं और कुछ संगठन उन्हें गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं.

सवालः बदलते समय में पूरी दुनिया में विभिन्न विवादास्पद मुद्दों पर इज्तिहाद (समस्याओं की धार्मिक व्याख्या) बड़े पैमाने पर हो रहा है. भारत में ऐसा क्यों है कि मुस्लिम समुदाय सार्थक इज्तिहाद करने और भारत में मुसलमानों के लिए आगे का रास्ता दिखाने में असमर्थ है?

हुसैनी: मुझे लगता है कि समय-समय पर बहस और चर्चा हो रही है. हमारे उलेमा समस्याओं के समाधान के नए तरीके खोजने की कोशिश कर रहे हैं. इस्लाम में कुछ चीजें अपरिवर्तनीय हैं और फिर कुछ चीजें गतिशील भी हैं, ऐसी चीजें जिन्हें बदलती परिस्थितियों के अनुसार बदला जा सकता है.

यह हमारे जीवन की प्रकृति की तरह है, जिसमें दो तत्व स्थायी और परिवर्तनशील हैं. हम इज्तिहाद के जरिए कुरान में निर्धारित स्थायी तत्वों को नहीं बदल सकते. इसका कारण यह है कि ये शिक्षाएं समय के साथ नहीं बदलती हैं. लेकिन जिन चीजों को बदला जा सकता है, उनके लिए इज्तिहाद का प्रावधान है. भारत में इज्तिहाद में हमारी अच्छी परंपराएं हैं, जैसे इस्लामिक फ़िक़्ह अकादमी इंडिया, जो विभिन्न महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करती है. लेकिन ये संगठन हमारे लोकतंत्र में अपने फैसलों को लागू नहीं कर सकते. वे केवल अपने निष्कर्षों को प्रकाशित करते हैं और समय-समय पर उन्हें मुसलमानों तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं.

सवालः स्वतंत्रता के बाद तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने मुसलमानों के विकास में क्या भूमिका निभाई है? क्या उन्होंने समुदाय के लिए कुछ अच्छा किया भी है?

हुसैनी: इस सवाल का कोई आसान जवाब नहीं है. उल्लेखनीय रूप से, इतने सारे समुदायों को सह-अस्तित्व की अनुमति दी गई और संविधान ने हम सभी को फलने-फूलने दिया. ये हमारे इतिहास के सकारात्मक बिंदु हैं और इसका श्रेय हमारे धर्मनिरपेक्ष नेताओं को जाएगा. हमें इसे स्वीकार करना चाहिए और इसकी सराहना करनी चाहिए. लेकिन दूसरी तरफ, हम देखते हैं कि मुसलमान शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति में पिछड़ रहे हैं. आज वे सबसे पिछड़े समुदायों में से एक हैं. इसके लिए वही धर्मनिरपेक्ष नेता जिम्मेदार हैं, उन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और केवल भावनात्मक मुद्दों पर वोट हासिल करने की कोशिश की.

सवालः आपने हाल ही में मांग की है कि सरकार को अल्पसंख्यक शिक्षा के लिए बजट बढ़ाना चाहिए. भारतीय मुसलमानों में शिक्षा को कैसे बढ़ावा दिया जा सकता है?

हुसैनीः बजट में आवंटन बढ़ाया जाए. लेकिन इस मिशन में जिम्मेदारी सिर्फ सरकार तक सीमित नहीं है. यहां तक कि गैर-सरकारी संगठनों को भी बड़ी भूमिका निभानी चाहिए. हम एक गैर-सरकारी संगठन के रूप में शिक्षा के बारे में जागरूकता पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं और हम अपने स्तर पर बुनियादी ढांचा बनाने की भी कोशिश कर रहे हैं. लेकिन सरकार की बड़ी जिम्मेदारी है और उसे सच्चर आयोग की सिफारिशों को लागू करना चाहिए.

सवालः कुशल मुसलमानों में रोजगार बढ़ाने का क्या उपाय हो सकता है?

हुसैनी: समुदाय के बीच जागरूकता पैदा करने की जरूरत है कि उन्हें आत्मनिर्भर होना चाहिए और हलाल की कमाई में विश्वास करना चाहिए. लोगों की मानसिकता बदलने की जरूरत है. उन्हें इस बात से अवगत कराने की आवश्यकता है कि अच्छे व्यापार परंपराओं और ईमानदारी से आजीविका अर्जित करना इस्लाम का मूल उपदेश है और इसलिए उन्हें उनका पालन करना चाहिए. कुशल श्रम के प्रयासों के समन्वय और समुदाय के बीच उद्यमिता को प्रोत्साहित करने की भी आवश्यकता है. हमारा रिफा चैंबर ऑफ कॉमर्स इस दिशा में काम कर रहा है. हमने युवाओं में उद्यमिता कौशल को प्रोत्साहित करने के लिए पूरे देश में एक नेटवर्क बनाया है. युवाओं को यह बताने की जरूरत है कि जकात इस्लाम में पांच जरूरी चीजों में से एक है, इसलिए जब तक आप नहीं कमाएंगे तब तक आप जकात कैसे देंगे. सरकार को रोजगार के अवसर बढ़ाने और सुरक्षा की भावना लाने पर भी ध्यान देना चाहिए. भारतीय मुसलमानों की एक बड़ी आबादी को खुद पर भरोसा होना चाहिए. अगर कोई देश को आपदा की ओर धकेलेगा तो हम उसे रोकेंगे.

सवालः एक भाषण में आपने मुसलमानों से सादगी भरी शादियां करने की अपील की थी. यदि लोग आपकी सलाह मानें तो आप क्या प्रभाव देखते हैं?

हुसैनी: हमारा पारिवारिक जीवन इस्लाम के उपदेश का उदाहरण बनना चाहिए. फिजूलखर्ची और दहेज ने मुस्लिम समाज में पैठ बना ली है. यह मुसलमानों के सामाजिक और आर्थिक विकास को नुकसान पहुंचा रहा है. मुझे लगता है कि हमारे समाज में सबसे बड़ी बीमारियों में से एक विवाह में फिजूलखर्ची है और इसे नियंत्रित करना महत्वपूर्ण है.