अनुपम खेर पर कमेंट तैश में किया था, पर मैं अपने बयानों पर कायम हूं - नसीर

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 28-01-2021
नसीरुद्दीन शाह अनुपम खेर पर दिए अपने बयान पर कायम हैं
नसीरुद्दीन शाह अनुपम खेर पर दिए अपने बयान पर कायम हैं

 

नसीरुद्दीन शाह बेशक हमारे दौर के सबसे उम्दा अदाकारों में से एक हैं, जिन्होंने रूपहले परदे पर अपना इकबाल कायम किया है. पर अब वह कहते हैं कि वह सिनेमा से थोड़ा ऊब-से गए हैं और थियेटर को अपना ज्यादा वक्त दे रहे हैं. वह मानते हैं कि 'जाने भी दो यारो' जैसी फिल्म बनाना इस वक्त की जरूरत है और ओटीटी प्लेटफॉर्म ही भविष्य है. पर यह कलाकार सिर्फ सिनेमा या कला से ही मतलब नहीं रखता, देश और दुनिया से जुड़े, खासकर अपने मुल्क को लेकिन इनके सरोकार भी हैं, जिसे लेकर शाह काफी मुखर रहते हैं. हाल ही में साथी कलाकार अनुपम खेर पर उनकी टिप्पणी से भी काफी विवाद हुआ था, पर नसीर उसे तैश में की गई सही टिप्पणी करार देते हैं. सिनेमा, देश, महामारी, आने वाले प्रोजेक्ट्स जैसे कई मसलों पर उनसे डिप्टी एडिटर मंजीत ठाकुर ने बेबाक बातचीत की. पेश है इस इंटरव्यू की आखिरी किस्तः

सवालः एक नसीरुद्दीन शाह को हमने देखा ‘कथा’ जैसी फिल्म में ‘चश्मेबद्दूर’ में...  

नसीरूद्दीन शाह: (बीच में रोकते हैं, और हंसते हुए कहते हैं) ‘चश्मेबद्दूर’ में मैं नहीं था, मेरा रकीब था… फारुख शेख. (ठहाका)

सवालः ‘जाने भी दो यारो’ व्यंग्य की विधा में अब तक की सबसे शानदार फिल्म है, रीमेक के इस दौर क्या आपको लगता है कि इसका रीमेक होना चाहिए? रीमेक में आपकी जगह कौन लेगा?

नसीरूद्दीन शाह: मेरी जगह कौन लेगा? मेरी जगह तो मैं खुद रहूंगा. पर रवि वासवानी और ओम पुरी की जगह कौन लेगा और कुंदन शाह की जगह कौन लेगा? यह फिल्म तो सिर्फ कुंदन शाह ही बना सकता था. और कुंदन ने इसका सीक्वल लिखने की बड़ी कोशिश की. ‘जाने भी दो यारो’ जिस करप्शन की बात कर रही थी वह तो बड़े छोटे पैमाने पर था कि पुलिसवाला एक अठन्नी हमसे लेकर चला जाता है.

दो दिग्गजः नसीरुद्दीन शाह और ओम पुरी पुराने दिनों में 


उस फिल्म को बने हुए अब चालीस साल हो गए हैं, अब तो पुलिसवाला हमसे दो लाख रूपए लेगा तब हमें तकलीफ होगी. हम सब की माली हालत बेहतर हो गई है. अब जो करप्शन इस मुल्क को खाए जा रहा है वह इतने बड़े पैमाने पर है कि उसकी कहानी में हमें पूरे पॉलिटिकल सिस्टम को भी शामिल करना होगा और वह बड़ी महत्वाकांक्षी फिल्म बन जाएगी. कुंदन ने स्क्रिप्ट लिखी थी लेकिन शुरू में प्रोड्यूसर नहीं मिला और जब मिला तो रवि का इंतकाल हो गया. मेरा मानना है कि रवि की जगह कोई दूसरा नहीं ले सकता, वह फिल्म बन ही नहीं सकती थी अगर रवि वासवानी उसमें नहीं होता.

रवि वासवानी के साथ

जाने भी दो यारो में रवि वासवानी के साथ नसीरुद्दीन शाह


हालांकि, आपने जो सवाल पूछा उसका जवाब यह है कि हां, हमारी आज की दुनिया में ऐसी फिल्म की बेहद सख्त जरूरत है. ‘जाने भी दो यारो’ जब रिलीज हुई तो हमारे ऊपर इनकम टैक्स का कुछ मसला आ गया था और जब हम इनकम टैक्स के ऑफिस गए तो एक साहब मुझे अलग ले जाकर बोले कि साहब ‘जाने भी दो यारो’ जैसी एक फिल्म आप इनकम टैक्स के बारे में बनाइए. (खुलकर हंसते हैं) मैंने कहा कि मुझे डंडे नहीं खाने इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से.

सवालः आपने तो ऐसे निर्देशकों की फिल्मों में भी काम किया जिनका बहुत बड़ा नाम नहीं था, मसलन ‘तीन दीवारें’ ऐसी फिल्म थी. तो जमाना ओटीटी प्लेटफॉर्म का आ गया है. उसपर फिल्में आ रही हैं, उनमें से कुछ तो कमा रही हैं कुछ फ्लॉप हो रही हैं. ओटीटी प्लेटफॉर्म इंडस्ट्री को सहारा दे रहा है या उसको बर्बाद कर रहा है.

नसीरूद्दीन शाह: नहीं, बर्बाद बिल्कुल नहीं कर रहा है. जब टीवी मकबूल हुआ था पूरे मुल्क में, तब कहा जा रहा था कि सिनेमाहॉल बंद हो जाएंगे, थियेटर वालों का कहना था कि हमारा नाटक देखने कौन आएगा. लेकिन टीवी, थियेटर और सिनेमाहॉल तीनों चलते रहे.

ओटीटी प्लेफॉर्म तो भविष्य है और जो शख्स इससे इनकार कर रहा है वह खुद को बेवकूफ बना रहा है. यह जरूर है कि सब कुछ अब एक कम्युनल एक्सपीरियंस (सामूहिक अनुभव) होने की बजाए एक पर्सनल एक्सपीरियंस (निजी अनुभव) में तब्दील होता जा रहा है. चाहे संगीत सुनना हो, किताब पढ़ना हो या फिर फिल्म देखना और यहां तक कि नाटक देखना भी.

आजकल आप यूट्यूब पर नाटक देख सकते हैं. हालांकि, यह बात और है कि वो जायका नहीं आता. लेकिन एक दिन ऐसा आएगा कि हम नाटकों का बहुत अच्छे तरीके से फिल्मीकरण कर पाएंगे और उनको टीवी पर पेश करने के तरीके ढूंढ पाएंगे. 

फिल्म गांधी के लिए ऑडिशन देते हुए नसीरुद्दीन शाह और स्मिता पाटिल, साथ में हैं रिचर्ड एटनबरो


लेकिन कोरोना आ जाएगी यह किसको मालूम था और खुदा जाने अगले पचास साल में और क्या-क्या चीजें आएं. हमारे ऊपर आफते आ जाएं तो हम उससे हार तो मान नहीं सकते. हमें तरीके ढूंढने होंगे कि जो बात हम कह रहे हैं वो उस सुननेवाले तक पहुंचे. वह किसी भी माध्यम से पहुंचे उससे फर्क नहीं पड़ता. मेरे ख्याल से धीरे धीरे आदत पड़ जाएगी.

मेरा तो मानना है कि अगले पचीस साल में शायद सिनेमाघर बचेंगे ही नहीं. यह बात कहते हुए बहुत अफसोस होता है कि जिस रफ्तार से वो खूबसूरत इमारतें, जो सपनों के महल थे हमारे, जहां हमने स्कूल से भाग-भागकर कितनी ही फिल्में देखी हैं (हंसते हैं) सब एक-एक करके गिरते जा रहे हैं.

सवालः सिंगल स्क्रीन थियेटर तो लगभग खत्म ही होते जा रहे हैं.

नसीरूद्दीन शाह: हां, खत्म ही हो गए हैं और पता नहीं कि ये मल्टीस्क्रीन थियेटर भी कब तक झेल पाएंगे. भई, उनका खर्चा तो फिल्में चलाने की बजाए पॉपकॉर्न बेचकर निकलता है.

सवालः आने वाले वक्त में हम आपकी कौन-सी फिल्में देख पाएंगे?

नसीरूद्दीन शाह: दो साल हुए मैंने बंगाल में एक फिल्म ‘द होली कॉन्सपिरेसी’ की थी. सौमित्र चटर्जी साहब की वह आखिरी फिल्म थी. यह अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी में है. यह कट्टरपंथियों, ऑर्थोडॉक्सी और ब्लाइंड सुपरस्टीशन पर गहरा तंज है जो एक अमेरिकी नाटक पर आधारित है. मैं और सौमित्र दा उसमें दो वकीलों का किरदार निभा रहे हैं.

इसके अलावा दो फिल्मों में मैने छोटी-छोटी भूमिकाएं की हैं. एक है दिवाकर बनर्जी की फिल्म ‘फ्रीडम’ और दूसरी नए फिल्ममेकर ध्रुव की ‘मारीच’. वह तुषार कपूर ने प्रोड्यूस की है. उसके अलावा एक वेबसीरीज है ‘कौन बनेगा शिखरवटी’. शकुन बत्रा की एक नई फिल्म है उसमे भी हूं. लेकिन, फिल्मों से मैं जरा ऊब-सा गया हूं, बहुत वक्त और मेहनत लग जाती है और अक्सर वह वैसी भी नहीं बनतीं जैसा सपना देखा था. इसलिए फिल्मो में अब छोटे रोल ही करना मैं पसंद करता हूं. जिसमें ज्यादा मेहनत न करनी पड़े. (हल्का मुस्कुराकर) मैं अपनी मेहनत अब थियेटर  के लिए बचाकर रखता हूं.

सवालः अनुपम खेर साहब के साथ आपकी बड़ी तल्खी हो गई थी. अब सीज फायर हुआ या नहीं?

नसीरूद्दीन शाह: (जोर से हंसते हैं) अनुपम मेरे दोस्त हैं. तो वह जो जुमला मैंने उसके लिए कहा वह मुझे नहीं कहना चाहिए था, वह जरा ताव में आकर मैं कह गया. हालांकि, मैं उसको वापस नहीं ले रहा हूं, जो मैंने कहा उसपर मैं अटका हुआ हूं. लेकिन, वह बात मुझे इसलिए नहीं कहनी चाहिए थी क्योंकि उस इंटरव्यू के दौरान मैंने जितनी और बातें कीं, वह किसी ने सुनी ही नहीं और वह ज्यादा अहम बातें थीं.

अनुपम के बारे में तैश में मैं एक जुमला बोल गया जिस पर तूफान उठ खड़ा हुआ. मुझे इस बात का दुख हुआ कि और जो ज्यादा अहम बातें मैंने कहीं थीं, उन पर किसी ने गौर नहीं किया.

सवालः आइडिया ऑफ इंडिया की बात को लेकर कितने मुत्तास्सिर होते हैं आप?

नसीरूद्दीन शाह: यही तो हमारी यूनीकनेस थी, हमारी महानता थी. हमने हर सिविलाइजेशन का आवभगत किया, हरेक सिविलाइजेशन को गले से लगाया. चाहे वह पुर्तगाली हो उज्बेकी हों, अंग्रेज हों या फ्रांसीसी... सब लोग आए थे यहां. फर्क यह है कि मुसलमानों को हमलावर कहा जाता है.

मैं महमूद गजनवी जैसे मनहूसों को जस्टिफाई नहीं करता, लेकिन जिन मुगलों को इनवेडर्स कहा जाता है, वह लूटने नहीं, बसने आए थे. अगर इतनी नफरत हम मुसलमानों से कर सकते हैं तो उससे हजार गुना नफरत तो हमें अंग्रेजों से करनी चाहिए. लूटा किसने हमारे मुल्क को? अंग्रेजो ने. जो मुसलमानों को गालियां देते हैं और कहते हैं कि तुम परदेसी हो जिनको हमने शरण दी है, तो अंग्रेजों के बारे में क्या कहना है आपका?

जरा इतिहास आप पढ़ें कि सोलहवीं सदी से इस मुल्क से अंग्रेज क्या-क्या लूटकर ले गए. और एक कमबख्त नादिरशाह के अलावा मुसलमान क्या लूटकर ले गए?

मेरी पांच पुश्तें इस जमीन में दफन हैं. तीन सौ साल से मेरा खानदान यहां पर बसा हुआ है. मेरे खानदान के कई लोग हिंदुस्तान की फौज और पुलिस में शामिल रहे हैं... अगर यह सब चीजें मुझे हिंदुस्तानी नहीं बनाती तो मुझे नहीं मालूम कि फिर कौन-सी चीज बना सकती है. तो आपकी बात बिल्कुल सही है कि यही हमारी ताकत है और अगर इसको तोड़ दिया दिया जाए तो बचेगा क्या हमारे पास. अफसोस यही है कि कोशिशें हो रही हैं और लेकिन उसको बचाने की कोशिश भी हो रही है.

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