महामारियों से जूझते हुए बीता है मानव सभ्यता का इतिहास

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 27-04-2021
काली मौत से फैला मृत्यु का साम्राज्य (फोटो सौजन्यः जेनेटिक लिटरेसी प्रोजेक्ट)
काली मौत से फैला मृत्यु का साम्राज्य (फोटो सौजन्यः जेनेटिक लिटरेसी प्रोजेक्ट)

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

कोविड ने पिछले सवा साल से दुनियाभर में तांडव मचा रखा है. सिर्फ भारत में ही लगातार छठे दिन 3 लाख से अधिक कोविड 19 मामले सामने आए हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय के मंगलवार को जारी आंकड़ों के अनुसार, देश में पिछले 24 घंटों में कुल 3,23,144 कोविड मामले और 2,771 मौतें हुई है.

आंकड़ा यह बता रहा है कि देश में करीबन पौने दो करोड़ लोग संक्रमित हो चुके हैं और करीबन दो लाख लोग काल के गाल में समा चुके हैं.

असल में, इंसानी नस्ल की सबसे बड़ी दुश्मनों में संक्रामक बीमारियां रही हैं. भले ही, हम अभी इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाए हैं कि कोविड-19 असल में, जैसा कि आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी दबे-छिपे जारी है, चीन या अमेरिका की किसी प्रयोगशाला में विकसित वायरस है या बारंबार अपना जीन बदलने वाला महिषासुर राक्षस जैसी कुदरती आपदा, पर अब यह इंसानों को वैसे ही संक्रमित करके काल के गाल में समाने पर मजबूर कर रही है जैसे कभी ‘काली मौत’ने किया था.

काली मौत या प्लेग 1343 में यूरोप के क्रीमिया पहुंचा था (फोटो सौजन्यः जनरल लिटरेसी प्रोजेक्ट)


पुराने जमाने में भी शोरगुल भरे बड़े व्यापारिक शहर रोगाणुओं का घर हुआ करते थे. ऐसे में एथेंस हो या कुस्तुनतुनिया (कॉन्सटेंटिनोपल) लोग इस अहसास के साथ ही जीते थे कि वे बीमार पड़कर अगरे हफ्ते मर सकते हैं. या उनको यह डर तो हमेशा बना रहता होगा कि कोई महामारी फैलेगी और उनका पूरा परिवार झटके में खत्म हो जाएगा. 

ऐसी महामारियों में सबसे मशहूर है ‘काली मौत’या ‘ब्लैक डेथ’. इसकी शुरुआत पूर्वी या मध्य एशिया में किसी जगह पर 1330 के दशक में हुई थी. तब, चूहों के शरीर पर रहने वाले पिस्सुओं में मौजूद यर्सीनिया पेस्टिस नाम के जीवाणु ने पिस्सुओं के काटे हुए लोगों को संक्रमित करना शुरू कर दिया था. मध्य या पूर्वी एशिया से यह जीवाणु रेशम मार्ग से होता हुआ 1343 में यूरोप के क्रीमिया पहुंच गया था.

एशिया से चूहों और पिस्सुओं के जरिए यह महामारी पूरे एशिया, यूरोप और उत्तरी अफ्रीका में फैल गई थी. बीस साल से कम समय में यह अटलांटिक महासागर के तटों तक पहुंच गई. हालांकि, एशिया में यह प्लेग या काली मौत का दूसरा मामला था, पर यूरोप में यह पहली बार पहुंचा था और वहां इसने भयानक तबाही मचा दी.

इस काली मौत से 7.5 करोड़ से लेकर 20 करोड़ के बीच लोग मारे गए थे जो यूरेशिया की कुल आबादी का 25 फीसद से अधिक था. इंग्लैंड में हर दस में से चार लोग मारे गए थे और आबादी महामारी से पहले की 37 लाख से घटकर 22 लाख रह गई थी. युवाल नोरा हरारी की किताब होमो डेयस में इस मौत का आंकड़ा दिया गया है जिसके मुताबिक, "फ्लोरेंस शहर में एक लाख की आबादी में से 50 हजार लोग मारे गए."
एस्टिन अक्लोन की किताब ए पेस्ट इन द लैंडः न्यू वर्ल्ड एपिडेमिक्स इन अ ग्लोबल पर्सपैक्टिव में लिखा है, "यूरोप के कई देशों में 60 फीसद तक आबादी साफ हो गई थी." विश्व जनगणना का अनुमान लगाने वाली हिस्टोरिकल एस्टीमेट्स ऑफ वल्र्ड पॉप्युलेशन के मुताबिक, "चौदहवीं सदी में प्लेग की वजह से दुनिया की आबादी में काफी कमी आई थी. यह 47.5 करोड़ से घटकर 35 से 37.5 करोड़ के बीच रह गई थी. आबादी के लिहाज से अपने महामारी पूर्व की स्थिति में आने में यूरोप को 200 साल लग गए. फ्लोरेंस जैसे शहर तो 19वीं सदी में आकर उस पुरानी स्थिति में लौट पाए."


ठीक सौ साल पहले स्पेनिश फ्लू ने तबाही मचाई थी (फोटोः विकिमीडिया कॉमन्स)


लेकिन काली मौत न तो अकेली ऐसी घटना थी और न ही वह इतिहास की सबसे ख़राब महामारी थी, सबसे ज़्यादा विनाशकारी महामारियों ने अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और प्रशांत महासागर के टापुओं पर यूरोपीय लोगों के हमलों के बाद तांडव मचाया.

हरारी अपनी किताब में लिखते हैं, "5 मार्च, 1520 को जहाज़ों का एक छोटा बेड़ा क्यूबा के द्वीप से मैक्सिको के लिए रवाना हुआ. इनमें घोड़ों के साथ 900 स्पेनी सैनिक, तोपें और कुछ अफ्रीकी गुलाम भी थे. इनमें से एक गुलाम फ्रांसिस्को दि एगिया अपनी देह पर कहीं अधिक घातक माल लादे था....चेचक का विषाणु."

फांसिस्को के मैक्सिको में उतने के बाद इस विषाणु ने उसके शरीर में तेजी से बढ़ना शुरू किया और उसके शरीर पर भयावह फुंसियां फूट पड़ी. बुखार में तपते फ्रांसिस्को को मैक्सिको में केम्पोआलान के एक अमेरिकी परिवार के घर पर रखा गया. नतीजतन, दस दिन में पूरा केम्पोआलान कब्रगाह में बदल गया.

उस समय वहां की माया सभ्यता के लोग वहां के तीन दुष्ट देवताओं की कारस्तानी मानते रहे. पुरोहितों और वैद्यों से परामर्श किया गया, प्रार्थना, शीतल स्नान, शरीर पर तारकोल चुपड़ने से लेकर तमाम उपाय अपनाए गए, पर फायदा नहीं हुआ. हजारों की संख्या में लाशें सड़कों पर सड़ती रहीं. शवों को दफनाने की हिम्मत किसी में नहीं थी. ऐसे में अधिकारियों ने आदेश दिया कि मकानों को शवों पर गिरा दिया जाए.

सन 1520 के सितंबर में महामारी मैक्सिको की घाटी में पहुंच गई और अक्तूबर में अज्टैक राजधानी तेनोचतित्लान में घुस गई, जो ढाई लाख की आबादी वाला भव्य शहर था. दो महीनों के भीतर वहां के सम्राट समेत 35 फीसद आबादी खत्म हो गई. जहाजी बेड़े के मैक्सिको पहुंचने के छह महीने के भीतर सवा दो करोड़ आबादी वाले मैक्सिको में डेढ़ करोड़ से भी कम लोग जिंदा बचे. वजह था, चेचक.

अगले कई दशकों तक चेचक का प्रकोप जारी रहा और उसके साथ फ्लू, खसरा और दूसरी संक्रामक महामारियों की वजह से 1580 तक मैक्सिको की आबादी महज 20 लाख रह गई.

इस घटना के दो सौ साल बाद, 19 जनवरी, 1778 को ब्रिटिश खोजी जेम्स कुक हवाई द्वीप पहुंचा. वहां की आबादी उस वक्त 5 लाख थी. उस समय तक वे लोग यूरोप और अमेरिका के संपर्क में नहीं आए थे. कुक के बेड़े की वजह से हवाई द्वीप पर फ्लू, टीबी, और सिफलिस जैसे रोग फैले. बाद में आए यूरोपियनों ने मोतीझरा (टायफायड) और चेचक भी जोड़ दिए. और 1853 तक हवाई द्वीप की आबादी सिर्फ 70 हजार ही रह गई.

आज से सौ साल पहले 1918 में उत्तरी फ्रांस में जनवरी के महीने में खंदकों से एक खास तरह की बीमारी फैली, जो सैनिकों में फैल रही थी और जिसका नाम ‘स्पेनिश फ्लू’रखा गया. पहले विश्वयुद्ध के दौरान वह मोर्चा एक नेटवर्क से जुड़ा था. ब्रिटेन,अमेरिका,भारत और ऑस्ट्रेलिया से लगातार आदमियों और रसद की आपूर्ति वहां की जा रही थी. पश्चिमी एशिया से तेल, अर्जेंटीना से अनाज और बीफ, मलाया से रबर, और कांगो से तांबा भेजा जा रहा था. बदले में उन सबको स्पेनिश फ्लू मिला. कुछ ही महीनों में आधा अरब लोग यानी दुनिया की उस समय की आबादी का करीबन 35 फीसद हिस्सा इस बिषाणु की चपेट में आ गए.

हरारी लिखते हैं, “भारत में तो स्पेनिश फ्लू से 5 प्रतिशत आबादी यानी डेढ़ करोड़ लोग मारे गए. ताहिती द्वीप पर 14 फीसद लोग, सामोआ में 20 फीसद लोग मरे. कांगो की खदानों में हर पांच में से एक मजदूर मर गया. कुल मिलाकर एक साल के भीतर करीबन 10 करोड़ लोग मारे गए."

वैसे ध्यान रखने वाली बात है कि पहले विश्वयुद्ध के दौरान 1914 से 1918 के बीच 4 करोड़ लोग अलग से मरे.

पिछले कुछ सालों में भी हमने नए किस्म की महामारियां देखी हैं. 2002-03 में सार्स, 2005 में फ्लू, 2009-10 में स्वाइन फ्लूऔर 2014 में इबोला.

लेकिन सार्स की वजह से पूरी दुनिया में 1000 से कम लोग मरे. पश्चिम अफ्रीका में शुरू हुआ इबोला शुरुआत में नियंत्रण से बाहर जाता लगा था और कुल 11,000 लोग मारे गए.

वैसे एक महामारी एड्स भी रही, जिसकी वजह से 1980 के दशक से लेकर आजतक 3 करोड़ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं. पर इन सबको हमने काबू कर लिया है.

आज कोरोना एक बड़े खतरे के रूप में पूरी मानवता के सामने आ उपस्थित हुआ है. अभी इसके इलाज के लिए हालंकि दुनियाभर में टीके विकसित किए गए हैं, पर कोरोना का वायरस जल्दी-जल्दी उत्परिवर्तित (म्यूटेंट) हो रहा है. ऐसे में अभी तक विकसित टीके कितने प्रभावकारी रह पाएंगे, यह देखना होगा. पर जो टीके अभी मौजूद हैं, उनके जरिए भी दुनियाभर की करीबन 7 अरब आबादी का पूर्ण टीकाकरण कैसे और कब तक होगा, यह भी अहम सवाल है.

अभी इससे बचने के लिए कुछ बुनियादी स्वच्छता के उपाय ही एकमात्र तरीके हैं. सामाजिक दूरी और आइसोलेशन ही उपाय है. भारत जैसे देश में जहां दूसरी लहर में दवाओं, इंजेक्शन, अस्पताल के बिस्तरों, ऑक्सीजन और यहां तक कि अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियों तक की कालाबाजारी शुरू हो गई है, वहां टीकाकरण जल्द पूरा हो इसकी कोशिश की जानी चाहिए.