क्या आपको पता है स्वतंत्रता संग्राम में हिंदुस्तानी मुसलमानों की क्या थी भूमिका ?

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 14-08-2021
हिंदुस्तानी मुसलमान और स्वतंत्रता संग्राम
हिंदुस्तानी मुसलमान और स्वतंत्रता संग्राम

 

साकिब सलीम

गजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की,

तख्ते-लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की.

1857 में जब बहादुर शाह जफर से अंग्रेजों ने ये कहा- ‘दमदमे में दम नहीं है खैर मांगो जान की, ऐ जफर, ठंडी हुई अब तेग हिंदुस्तान की'. यानि कि अब हिंदुस्तान हार चुका है और ऐसे में उनको अंग्रेजों का विरोध करने के बजाय अपनी जान की भीख मांगनी चाहिए. इसके जवाब में जफर ने ये शेर कहा था- गजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते-लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की. यानि कि जफर मानते थे कि जब तक क्रांतिकारियों में ईमान है, तब तक उनके तलवार की गूँज लंदन तक रहेगी और देश पराजित न होगा.

आज के समय में ओछी राजनीति के चलते आम समझ ये हो चली है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में मुसलमानों की भूमिका या तो थी ही नहीं, या न के बराबर थी.इसके पीछे एक वजह अंग्रेजों का वो प्रोपेगंडा था, जिसके तहत वो हिंदुस्तानी मुसलमान और हिंदू को लड़ाना चाहते थे.

बदकिस्मती से आज भी बहुत से लोग उनके बहकावे में हैं. पिछले सात दशकों से इतिहास की किताबों में जहां-जहां भारत के स्वतंत्रता संग्राम का जिक्र आया है, वहां-वहां मुसलमानों का नाम नदारद पाया गया. ऐसा लगता है जैसे कि इस आजादी की लड़ाई में भारतीय मुसलमान थे ही नहीं.

सच्चाई इस धारणा के ठीक उलट है. 2019 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1857 से 1947 तक देश पर शहीद हुए सेनानियों की एक डिक्शनरी का विमोचन किया था. एक आंकड़े के अनुसार इस डिक्शनरी में लगभग एक तिहाई नाम भारतीय मुसलमानों के हैं. अब समय आ गया है, जब इतिहास के नाम पर परोसी गयीं ऐसी गलत धारणाओं को सही किया जाए.

इतिहास का सच ये है कि अंग्रेजों के भारत पर राज को शुरू से ही हिंदू और मुसलमान दोनों ने न सिर्फ नकारा है, बल्कि उसके खिलाफ संघर्ष भी किया है. 1757 में पलासी और 1764 में बक्सर में बंगाल के नवाब की फौज के हार जाने के बाद अंग्रेजों के हाथ में बंगाल सूबे का प्रशासन आ गया था.

लेकिन आम हिन्दुस्तानियों ने इसको स्वीकार न किया और विदेशी शासन के विरुद्ध हथियार उठा लिये. अंग्रेज हुकुमत इतनी दमनकारी थी कि उसकी नीतियों के चलते 1770 के अकाल में बंगाल की एक तिहाई आबादी भूख से मारी गयी.

बक्सर के युद्ध से कुछ पहले ही मुसलमान फकीर और हिंदू संन्यासी हथियार लेकर अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध का मोर्चा खोल चुके थे. फकीर एवं संन्यासी विद्रोह के नेता थे मजनू शाह. मजनू शाह कानपुर के रहने वाले एक सूफी थे और उनको बीरभूम के एक सूफी, हमीदुद्दीन ने कहा था कि “तुम संन्यासियों के साथ गठजोड़ करके अंग्रेजों से लड़ो, और उनका खजाना और चावल लूट कर गरीबों में बाँट दो.” इसके बाद मजनू शाह के नेतृत्व में हजारों फकीर और संन्यासियों ने अंग्रेज और उसके पिठ्ठू जमींदारों के खजाने लूटे और गरीबों में बाटें. ढाका से लेकर पटना तक जगह-जगह अंग्रेजों के साथ युद्ध हुए जिसमें अंग्रेजों को अपने कई अफसर और फौजी खोने पड़े.

1786 में मजनू शाह की मौत के बाद विद्रोह की कमान मूसा शाह के हाथ में आई. लगभग 1800 तक चला ये विद्रोह आज इतिहास की किताबों से नदारद है. ये विद्रोह न केवल मुसलमानों का आजादी की जंग में गवाह है, बल्कि हिंदु-मुस्लिम एकता का प्रतीक भी है.

अंग्रेजों ने बर्बरता से इस विद्रोह को खत्म किया, लेकिन हिन्दुस्तानियों की आजादी की ललक को खत्म न कर सके. अभी इस विद्रोह को खत्म हुए कुछ बरस भी न गुजरे थे कि सय्यद अहमद बरेलवी, हाजी शरीयतुल्लाह और टीटू मीर ने बगावत का बिगुल बजा दिया. सय्यद अहमद ने उत्तर प्रदेश से बिहार होते हुए कलकत्ता और बंबई होते हुए अफगानिस्तान का दौरा करके हजारों अनुयायी बनाये. उनको अंग्रेज हुकुमत के नुकसान बताये.

मराठों से गठजोड़ की कोशिशें कीं और अंग्रेजों से युद्ध किये. 1831 में उनकी मौत के बाद पटना के इनायत अली और विलायत अली ने इस विद्रोह की कमान संभाल ली. भारत अफगानिस्तान की सीमा पर इन्होंने कबाइलियों को इकठ्ठा कर के अंग्रेज फौज के साथ युद्ध किये.

हजारों अंग्रेजों का नुकसान इन युद्धों में हुआ. 1852 और 1853 में जगह-जगह हिंदुस्तानी सिपाहियों को इसलिये सजा दी गयी कि वे इस विद्रोह के मौलवियों के कहने पर बगावत को तैयार हो गए थे. 1857 में जब विद्रोह का बिगुल बजा, तो सबसे पहले पटना में इस विद्रोह के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया.

हाजी शरीयतुल्लाह और उनके पुत्र दूदू मियां ने बंगाल में किसान और आम जनमानस के साथ मिलकर अंग्रेज और उनके जमींदारों के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया. उनको फरायजी कहा गया. जगह-जगह इन लोगों ने अंग्रेजों से लोहा लिया.

टीटू मीर ने भी बंगाल में गरीब किसानों के साथ एक सेना का गठन कर अंग्रेजों से युद्ध छेड़ दिया था. कुछ इलाकों में तो, इन्होंने अपनी अदालत तक कायम कर ली थी. 1831 में एक युद्ध के दौरान टीटू शहीद हो गए और इनके सैकड़ों साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया. गुलाम मासूम जो कि टीटू के सेनापति थे, फांसी पर चढ़ा दिए गये.

10 मई, 1857 को मेरठ की छावनी में अंग्रेज फौज के हिंदुस्तानी सिपाहियों ने बगावत कर दी. जिन 85 सिपाहियों ने सबसे पहले अंग्रेजी फरमान को मानने से इंकार किया था, उनका नेतृत्व शेख पीर अली, अमीर कुदरत अली, शेख हसनुद्दीन, और शेख नूर मुहम्मद ने किया था. इन 85 में अधिकतर सिपाही मुसलमान ही थे.

मेरठ से निकलकर आम शहरियों के साथ जब फौजी दिल्ली पहुंचे, तो वहां उन्होंने बहादुर शाह जफर को अपना नेता घोषित किया. 1857 को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम कहने का कारण यही है कि ये युद्ध पूरे देश ने एक नेता के नेतृत्व में लड़ा था. नाना साहिब, तांत्या टोपे, रानी झांसी, बेगम हजरत महल, कुंवर सिंह आदि सबने जफर को देश का बादशाहमान कर उनके नाम पर अंग्रेजों से लोहा लिया था.

1857 की तैयारी कई बरस से चल रही थी. हाजी इम्दादुल्लाह मुहाजिर मक्की, मौलवी अहमदुल्लाह और फज्ले हक खैराबादी जैसे मौलाना मुस्लिम सिपाहियों को अंग्रेजों से बगावत को बरसों से उकसा रहे थे.

वो और उनके अनुयायी शहर-शहर घूम कर अंग्रेजों के विरोध में फतवों का प्रचार प्रसार करते थे. इनमें से हाजी इम्दादुल्लाह ने खुद मुजफ्फरनगर में हथियार उठाकर अंग्रेजों के दांत खट्टे किये थे. उन्होंने शामली और थानाभवन से अंग्रेजों को खदेड़ वहां पर हिंदुस्तानी हुकुमत कायम कर ली थी.

बाद में जब थाना भवन पर अंग्रेजों ने वापिस कब्जा किया, तो हजारों लोगों को या तो फांसी दी गयी या तोपों से उड़ा दिया गया. दूसरी ओ रमौलवी अहमदुल्लाह ने फैजाबाद और आसपास के इलाकों में अपनी फौज बनाकर अंग्रेजों से लोहा लिया. उनको एक गद्दार हिंदुस्तानी ने अंग्रेजों से ईनाम के लालच में धोखे से मार डाला.

लखनऊ में बेगम हजरत महल तो अंग्रेजों के लिए एक सरदर्द ही बन गयी थीं. जो अंग्रेज फौज किसी मोर्चे पर हार न मानती थी, वो भी उनके सामने पस्त हो गयी थी. अंग्रेज अफसरों ने बाद में लिखा कि बेगम जैसा सेनानायक उन्होंने इस से पहले नहीं देखा था.

पटना में पीर अली और मुजफ्फरपुर में वारिस ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया. उनका जुर्म था कि उन्होंने देश को आजाद देखना चाहा था. झज्जर के नवाब, अब्दुल रहमान ने भीदेश की खातिर मौत को गले से लगा लिया था.

1857 में ऐसे अनगिनत आजादी के दीवाने थे, जिनका नाम लिखना या तो मुमकिन नहीं या हम जानते ही नहीं. जैसे कि 1857 में हरा बुर्का पहनकर अंग्रेजों पर हमला कर एक बूढ़ी औरत ने बहुत से अंग्रेजों को मार गिराया था. आज हम उसका नाम भी नहीं जानते.

1857 की ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी’

अभी 1857 की आग ठंडी भी न हुई थी कि अंग्रेजों को एक बार फिर अफगानिस्तान के सीमांत इलाके से चुनौती आने लगी. पठान कबीले अंग्रेजों के खिलाफ जंग में आ गए, कई इलाकों पर उन्होंने कब्जा कर लिया.

1863 में युद्ध हुआ और भारी नुकसान उठाने के बाद अंग्रेज कुछ लोगों को पैसा देकर फूट डालने में कामयाब हुए. किसी तरह हजारों सिपाही खोकर अंग्रेज जीत तो गए, लेकिन खौफ उनके दिलों में बैठ गया. जांच हुई और जासूसी रिपोर्ट में पाया गयाकि इस पठान विद्रोह को अंबाला से नियंत्रित किया जा रहा था.

जाफर थानेसरी नाम का 25 साल का युवक ही पूरे भारत से सीमांत इलाके तक पैसा, हथियार और फौजी पहुंचा रहा था. तुरंत कार्यवाही हुई और जाफर को पकड़ लिया गया. उनके पास जो दस्तावेज बरामद हुए उसके आधार पर पूरे देश से सैकड़ों गिरफ्तारियां हुई.

पटना से याह्या अली को मास्टर माइंड के तौर पर गिरफ्तार किया गया. 1864 से 1870 तक देश के कई इलाकों में ये मुकदमे चले, जिसमें सैकड़ों को काले पानी की सजा हुई. शुरू में तो अंग्रेज फांसी की सजा दे रहे थे, लेकिन फिर उन्हें लगा कि ये आजादी के दीवाने तो शहीद ही होना चाहते हैं और फांसी पाकर खुश होते हैं, ऐसे में सजा को काले पानी में बदला गया.

जाफर, याह्या, अहमदुल्लाह, अब्दुल रहीम जैसे कई आजादी के दीवाने काले पानी भेज दिए गए. 1871 में कलकत्ते में आमिर खान को काले पानी की सजा के विरोध में अब्दुल्लाह ने चीफ जस्टिस की हत्या कर दी और उसके कुछ महीने बाद शेर अली ने वाइसराय लार्ड मेयो को अण्डमान में मार गिराया.

बिपिन चंद्रपाल लिखते हैं कि इन मुकदमों और हत्यायों ने युवावस्था में उनको आजादी की लड़ाई में कूदने के लिए उत्साहित किया था. त्रैलोक्य चक्रवर्ती भी लिखते हैं कि जब वो कालेपानी पहुंचे, तो वहां पहले से मौजूद मुसलमान देशभक्त उनको आजादी की लड़ाई के लाये गुर सिखाते और समझाते कि कौन सी गलतियाँ उनसे हुई, जिस कारण वे पकड़े गए.

दूसरी तरफ महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में इब्राहीम खान और बलवंत फड़के अपने लड़ाकों के साथ अंग्रेजों पर 1860 और 70 के दशक में जगह-जगह हमला करते रहे.   

1885 में पढ़े लिखे भारतीयों ने कांग्रेस का गठन किया, इसमें भी बदरुद्दीन तय्यब जी और रहमतुल्लाह सियानी जैसे नेता शुरू से मुसलमानों की आवाज के तौर पर मौजूद थे. आगे चलकर डॉ. अंसारी, हकीम अजमल खान, मौलाना आजाद, हसरत मोहानी जैसे मुसलमान कांग्रेस के अग्रणी नेता रहे.

1907 में पंजाब में किसान आंदोलन शुरू हो गया. इतिहासकार मानते हैं कि गदर आंदोलन की जड़ें इसी आंदोलन में हैं. लाला लाजपत राय और सरदार अजीत सिंह के साथ सय्यद हैदर रजा इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे.

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के हाथ तीन रेशमी कपड़े लगे जिन पर उर्दू में कुछ लिखाथा. पढ़ने पर पता चला कि देवबंद के मौलाना महमूद हसन अंग्रेजों को देश से निकलने के लिए तुर्की, जर्मनी और अफगानिस्तान की मदद से हिंदुस्तान के बाहर से हमला करने वाले थे.

उबैदुल्लाह सिंधी ने ये खत काबुल से लिखे थे, जहाँ वो राजा महेंद्र और बरकतुल्लाह के साथ एक सरकार का गठन करके फौज की तैयारी कर रहे थे. मौलाना उस वक्त खुद मक्के में थे और तुर्की सरकार से मदद हासिल कर रहे थे.

देश के अंदर मौलाना आजाद, अब्दुल बारी फिरंगीमहली, डॉ. अंसारी जैसे कई जाँबाज इस प्लान का हिस्सा थे, लेकिन खत के अंग्रेजों के हाथ पड़ने और विश्व युद्ध में तुर्की और जर्मनी के हार जाने से ये मंसूबा कामयाब न हो सका. मौलाना महमूद हसन और मौलाना हुसैन अहमद मदनी को मक्के से गिरफ्तार कर माल्टा की जेल में बंद कर दिया गया. दर्जनों को हिंदुस्तान में गिरफ्तार किया गया.

मौलाना आजाद जो कि इस मंसूबे का एक हिस्सा थे सिर्फ कांग्रेस के नेता नहीं थे, वो एक क्रांतिकारी भी थे. अंग्रेजी सीआईडी के हिसाब से वो एक खतरनाक इंसान थे, जिन्होंने हिज्बुल्लाह नामका क्रन्तिकारी संगठन बनाया था.

1700 से ज्यादा देशभक्त इस संगठन का हिस्सा थे. उनका अखबार अल-हिलाल देशभक्ति के लिए बंद कर दिया गया था. इस जुर्म में उनको जेल हुई थी. ये भी याद रखा जाये कि भारत छोड़ो आंदोलन, 1942 के समय वही कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे.

लगभग इसी समय प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गदर आंदोलन ने भी जोर पकड़ा हुआ था. इसका उद्देश्यथा 1857 की तरह अंग्रेज फौज के भारतीय सिपाहियों को बगावत के लिए तैयार करना-रहमतअली जैसे इसके कई मुस्लिम नेताओं को फांसी की सजा हुई.

फरवरी, 1915 में सिंगापुर में अंग्रेज फौज की एक हिंदुस्तानी टुकड़ी ने बगावत कर दी-दो दिन के लिए वहां अंग्रेज काराज खत्म रहा. अंत में इन फौजियों को हरा कर गोली मार दी गयी. जिन 41 सिपाहियों कोगोली मारी गयी उनमें से ज्यादातर पंजाबी मुसलमान थे.

एक और आम लेकिन गलत धारणा ये है कि बंगाल के क्रांतिकारी संगठनों में मुस्लिम नहीं होते थे. सिराजुल हक, हमीदुल हक, अब्दुल मोमिन, मकसुद्दीन अहमद, मौलवी गयासुद्दीन, नसीरुद्दीन, रजिया खातून, अब्दुल कादिर, वली नवाज, इस्माइल, जहीरुद्दीन, चाँद मियां, अल्ताफ अली, अलीमुद्दीन आदि जैसे कई क्रांतिकारी जुगांतर और अनुशीलन समिति के साथ काम कर रहे थे. इन क्रांतिकारियों को काला पानी जैसी सजायें हुई या शहादत मिली.

पहला विश्व युद्ध खत्म हुआ, तो अंग्रेज रोलेट कानून लाये.भारत भर में विरोध हुआ और कई नेताओं को गिरफ्तार किया गया. ऐसे ही एक नेता सैफुद्दीन किचलू थे, जिनकी गिरफ्तारी के विरोध में इकठ्ठा लोगों पर जलियाँवाला बाग में अंग्रेजों ने अंधाधुंध गोलियां बरसा दी थीं. अमृतसर के उस मैदान में मरने वाले हिंदू, मुस्लिम और सिख सभी थे.

इसी के साथ देश में एक नए तरीके की राजनीति का उदय हुआ. धरना, प्रदर्शन की राजनीति जिसमें लोगों को अधिक संख्या में जोड़ा जाता था. ऐसे में शौकत अली, मोहम्मद अली, मौलाना आजाद, हसरत मोहानी आदि आजादी की लड़ाई के प्रमुख नेताओं के तौर पर उभरे. बी अम्मा, अमजदी बेगम, और निशात उन्नीसा जैसी मुस्लिम महिलाओं ने भी आजादी के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करदिया.

सीमांत इलाके में खान अब्दुल गफ्फार खान ने कमान संभाल ली थी. 1930 में जब उनको अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया, तो पेशावर में लोग सड़कों पर उतर आये. हिंदुस्तानी अहिंसा के पुजारी थे और अंग्रेज हिंसा के. पुलिस ने पठानों की इस भीड़ पर गोलियां बरसा के 400 के करीब प्रदर्शनकारियों को शहीद कर जलियाँवाला की यादें ताजा कर दी थीं.

1930 के दशक में ही तमिलनाडु में अब्दुल रहीम, वीएम अब्दुल्ला और अब्दुल सत्तार ने हिंदुस्तान के गरीब किसान और मजदूर को अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में उतारा.

1941 में सुभाष चंद्र बोस नजरबंद थे और एक रात वो अंग्रेजों की नजर से ओझल हो कर पेशावर के रास्ते अफगानिस्तान पहुँच गए. मियाँ अकबर शाह नाम का उनका एक साथी इस पूरे मनसूबे में सबसे खास किरदार था.

जर्मनी पहुँच कर उनके साथ आबिद हसन सफरनी सेक्रेटरी के तौर पर रहे और जब वे पनडुब्बी में 90 दिन का सफर करके जापान पहुंचे, तो नेताजी के साथ आबिद अकेले हिंदुस्तानी थे. 1943 में आजाद हिंद सरकार के गठन के समय अजीज अहमद, एमके कियानी, अहसान कादिर, शाह नवाज, करीम गनी, और डीएम खान के पास महत्वपूर्ण मंत्रालय थे.

इसके अलावा भी आजाद हिंद फौज में मुस्लिम सिपाही आबादी के अनुपात से ज्यादा ही थे. खुद नेताजी ने बर्मा पहुँच कर बहादुर शाह जफर की कब्र पर एक भाषण दिया था और ‘दिल्ली चलो’ का मशहूर नारा भी दिया था. नेताजी ने अलग-अलग रूप में टीपू सुल्तान, नवाब सिराजुद्दौलाह और बहादुरशाह को आजादी के नायक के रूप में श्रद्धांजलि दी थी.

विश्वयुद्ध के बाद आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को गिरफ्तार कर उन पर मुकदमा चला. कप्तान राशिद अली की गिरफ्तारी के विरोध में हिंदु, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब कलकत्ते की सड़कों पर आ गए और अंग्रेजों ने गोली चला दी. दर्जनों हिंदुस्तानियों ने जान दी.

दूसरी ओर आजाद हिंद फौज के समर्थन में नौसेना के सिपाहियों और अधिकारियों ने कर्नल खान के नेतृत्व में मुंबई और कराची में अंग्रेजों से बगावत कर दी. अंग्रेजों ने गोलियां चलायीं, जिसमें दर्जनों शहीद हुए. इन शहीद होने वालों में कम से कम तीन दर्जन मुस्लिम नौ सैनिक भी थे.

देश, हमारा देश हिंदुस्तान, 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ. ये आजादी मुफ्त में नहीं मिली. इसके लिए खून बहाया गया है. इसमें मासूम बच्चों का बचपन, जवान बहनों की जवानी, हँसते-खेलते परिवारों की खुशियाँ, माओं के आंसू और जवान लड़कों के सपनों की बलि है. इसमें किसी एक धर्म का हिस्सा नहीं, ये चमन सबका है. इकबाल के शब्दों मेंः

हम बुलबुलें हैं इसकी,

ये गुलिस्ताँ हमारा.