कश्मीरी पहनावे का ज़िक्र आते ही कानों में शाल की मुलायमियत और रंगबिरंगी pheran की झपक सी आ जाती है। इस महफ़िल में भी वही नाज़ुक कला अपने पूरे शबाब पर थी।
पश्मीना शॉलें — हल्की, नाज़ुक और इतनी गरम कि सर्द हवाओं को भी शर्म आए। सूक्ष्म कढ़ाई वाली सोज़नी शॉलें, जिन्हें बनाने में महीनों नहीं, कई बार सालों का वक्त लगता है, लोगों को अपनी तरफ खींच रही थीं।
दूसरी ओर टंगी थीं अरी कढ़ाई से सजी pheran — जिनके रंग जैसे वादी में खिलते ट्यूलिप हों। महिलाएँ इन्हें हाथों में लेकर नज़रों में भर लेतीं — शायद किसी सफ़र की याद, शायद किसी अधूरे ख़्वाब की तलाश।
बुज़ुर्ग कारीगरों की उंगलियाँ बताते न थकतीं कि हर धागा परंपरा है और हर नक़्शा एक कहानी। यही वजह है कि कश्मीरी परिधान पहनना मानो विरासत ओढ़ लेना है।
कोने में उबलती काहवा अपनी भाप के साथ राहगीरों को रोक लेती... केसर, बादाम और दालचीनी की वो गर्माहट, जिसे पीकर लगता है जैसे ठंड के साथ दोस्ती हो गई हो।
एक हिस्से में वज़वान की झलक... गुस्ताबा, यख़नी, तबक माज़... प्लेट पर नहीं, दिल पर परोसे जाने वाले पकवान और हाँ, कश्मीर की मीठी पहचान — शीरमाल और चोटी रोटी, जिन्हें देखकर बच्चों से लेकर बुज़ुर्गों तक सबकी आँखें चमक उठीं।
कश्मीर का एक और चेहरा था. फूलों से सजा हुआ। कश्मीर बिना फूलों के अधूरा, और फूल बिना कश्मीर के अनाथ। ट्यूलिप की तस्वीरें, सूखे फूलों से बने सजावटी आइटम, ख़ुशबूदार सुगंध — सब मिलकर दिल्ली की इस ज़मीन पर एक मिनी-कश्मीर बना रहे थे।
जिसे खाने से मोहब्बत हो, उसे कश्मीर अपनी बाँहों में समेट लेता है। यहाँ भी खाने के स्टॉलों पर कश्मीर की असलियत परोसी जा रही थी — सुर्ख-लाल रँग का रोगन जोश, जिसमें खुशबू थी पहाड़ी मसालों की।