MANUU में अंतरराष्ट्रीय अकादमिक सम्मेलन का शुभारंभ

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 14-11-2025
International Academic Conference begins at MANUU
International Academic Conference begins at MANUU

 

हैदराबाद:

पद्मावत, 16वीं सदी की सूफ़ी और रूमानी महाकाव्यात्मक कविता, जिसे 1540 में मलिक मोहम्मद जायसी ने अवधी में लिखा, कोई ऐतिहासिक प्रेमकथा नहीं बल्कि सूफ़ी दर्शन का महाकाव्य है,” यह बात जेएनयू के प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने आज मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी (मैनू) में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मुख्य वक्ता के रूप में कही। उनके व्याख्यान का विषय था—“पद्मावत: आरंभिक आधुनिक भारत के अस्तित्ववादी संसार की एक झलक”

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता मैनू के कुलपति प्रो. सैयद ऐनुल हसन ने की, जबकि अमेरिका स्थित यूसीएलए के इतिहास विभाग के प्रो. नाइल ग्रीन ने ऑनलाइन मुख्य वक्तव्य दिया। उनका विषय था— “एक अनुष्ठान का प्रव्रजन: अनातोलिया से दक्कन तक संतों की शादी”

आज मैनू में “उर्दू, हिंदी, अरबी और फ़ारसी— भाषाई, साहित्यिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान के माध्यम से सभ्यतागत सामंजस्य” विषय पर दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय अकादमिक सम्मेलन का उद्घाटन हुआ।

अपने संबोधन को आगे बढ़ाते हुए प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल ने खेद व्यक्त किया कि आज की युवा पीढ़ी के लिए अल्लाह और राम के नाम युद्ध के नारों में बदल गए हैं। उन्होंने कहा कि पद्मावत काल्पनिक से वास्तविक प्रेम की यात्रा का प्रतीकात्मक अर्थ प्रस्तुत करती है, जिसमें हिंदू और इस्लामी रहस्यवाद का संगम है। यह अस्तित्व की एकता में विश्वास करती है और परमात्मा की सर्वव्यापक उपस्थिति को मानती है तथा प्रेम को मानव आत्मा की मुक्ति का मार्ग बताती है।

दूसरे मुख्य वक्ता, प्रो. नाइल ग्रीन ने अपने विचारोत्तेजक संबोधन में कहा कि इस्लामी आस्था और संस्कृति में मूलभूत अंतर है। उनके अनुसार, आस्थाएँ धर्म और रीतियों से जुड़ी होती हैं, जबकि इस्लामी संस्कृति एक व्यापक सांस्कृतिक क्षेत्र है— जिसमें मुस्लिम शासकों, व्यापारियों, सूफ़ियों और बुद्धिजीवियों के प्रभाव से विकसित तमाम पहलू शामिल हैं, चाहे वे धार्मिक हों या न हों। उन्होंने कहा कि सूफ़ीवाद भूमि और धर्म के मिलन का संगम है। सूफ़ी खानकाहें आर्थिक केंद्र थीं, सूफ़ी संत भूमि विवाद सुलझाते थे और कई शहर इन्हीं दरगाहों के इर्द-गिर्द विकसित हुए।

अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. सैयद ऐनुल हसन ने कहा कि सूफ़ीवाद भारत की मिश्रित सभ्यता का वाहक है। चूँकि हर सूफ़ी की शिक्षा में “दिल” का ज़िक्र अनिवार्य है, इसलिए हमें भी “दिल की भाषा”— धड़कन— को समझने की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी कहा कि दोनों मुख्य वक्ताओं को सुनने के बाद उन्होंने बहुत कुछ सीखा और आशा है कि प्रतिभागी और शोधपत्र प्रस्तुतकर्ता एक प्रभावी और सार्थक अकादमिक संवाद का मंच तैयार करेंगे।

इससे पहले विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार प्रो. इश्तियाक़ अहमद ने स्वागत भाषण दिया और सम्मेलन के उद्देश्य व महत्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि यह सम्मेलन विश्वविद्यालय के इतिहास में एक अहम पड़ाव है, जहाँ दुनिया भर से चार भाषाओं के विशेषज्ञ और विद्वान एक साथ एक मंच पर आ रहे हैं।

सम्मेलन के संयोजक प्रो. सैयद इम्तियाज़ हसनैन और निदेशक प्रो. अलीम अशरफ़ जैसी ने क्रमशः अंग्रेज़ी और उर्दू में सम्मेलन की रूपरेखा प्रस्तुत की।

प्रो. गुलफ़िशां हबीब, अधिष्ठाता, स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ ने धन्यवाद ज्ञापित किया जबकि सह–संयोजक प्रो. मोहम्मद अब्दुल सामी सिद्दीकी ने उद्घाटन सत्र का संचालन किया।

सम्मेलन के समापन भाषण “भाषा विज्ञान में मानवतावाद की पुनर्स्थापना की आवश्यकता: सभ्यतागत सामंजस्य पर चिंतन” का व्याख्यान प्रो. संगीता बागा-गुप्ता, यूनिवर्सिटी ऑफ योन्कोपिंग, स्वीडन द्वारा 14 नवंबर को शाम 7 बजे, मैनू के CPDUMT सभागार में दिया जाएगा।