सेना के हाथों का खिलौना रहा है पाकिस्तान

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 04-11-2022
सेना के पंजे में रहा है पाकिस्तान
सेना के पंजे में रहा है पाकिस्तान

 

मंजीत ठाकुर

इमरान खान लॉन्ग मार्च में हुए हमले में घायल हुए तो उसके साथ ही खबरें आईं कि पाकिस्तानी जनता सड़कों पर उतर आई और सैन्य प्रतिष्ठानों के सामने जोरदार प्रदर्शन होने लगे हैं. गुरुवार की रात को यह प्रदर्शन चलते रहे और सोशल मीडिया पर पाकिस्तान सिविल वॉर ट्रेंड करने लगा.

सेना की मुखालफत में पाकिस्तानी जनता सड़क पर उतरने की हिम्मत कर पाई है लेकिन 1947 में एक अलग देश बनने से लेकर आज की तारीख तक पाकिस्तान में फ़ौज लगभग साढ़े तीन दशक तक प्रत्यक्ष तौर पर सत्ता में रही है. और जानकार यह बताते हैं कि सेना का अप्रत्यक्ष रूप से दखल तकरीबन हर लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकारों के दौरान भी रहा है.

आजादी के बाद से पाकिस्तान में चार सैन्य सरकारें गद्दीनशीं हुईं और सत्ता का नियंत्रण जनरल अय्यूब खान, जनरल याह्या खान, जनरल जिया-उल-हक और जनरल परवेज मुशर्रफ के पास रहा.

जनरल अय्यूब से लेकर जनरल मुशर्रफ तक हर दौर में, पाकिस्तानी सैन्य तानाशाहों का एक ही राग रहा है कि पाकिस्तान में निर्वाचित सरकारें अक्षम, भ्रष्ट और देश के लिए खतरा हैं.

यह बात कोई छिपी हुई नहीं है कि पिछले 75 सालों में जहां हिंदुस्तान में लोकतंत्र दिन ब दिन मजबूत होता गया है, वहीं पाकिस्तान में सेना का राजनैतिक रसूख बढ़ता चला गया है. पाकिस्तान में सेना चीनी और उर्वरक के कारखानों से लेकर बेकरी तक के कारोबार में हाथ डाले हुए है.

बहरहाल, असल स्थिति यह है कि लंबे अरसे तक सैनिक शासन की वजह से पाकिस्तान में फौज व्यवस्था में हर तरफ अपनी गहरी पैठ बना चुकी है. सियासी पार्टियों, न्यायपालिका, नौकरशाही और यहां तक कि मीडिया में भी सेना के समर्थकों का एक पूरा तबका मौजूद है.

हालांकि, आज से कोई 9 साल पहले साल 2013 मेंजब पाकिस्तान के पूरे इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि पांच साल के नागरिक शासन के बाद पाकिस्तान में तय समय पर चुनाव हुए, तो समय बहुत सारे विश्लेषकों को लगा कि आखिरकार पाकिस्तान में लोकतंत्र आ गया है.

लेकिन 28 जुलाई 2017 को पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अयोग्य ठहरा दिया और इससे यह साफ हो गया कि पाकिस्तान में डीप स्टेट कितना प्रभावशाली है. इससे यह बात भी साफ हो गई कि पाकिस्तान में सरकार को हटाने के लिए सैनिक तख्तापलट के अलावा और भी कई सारे तरीके हो सकते हैं.

‘डीप स्टेट’ हमेशा किंग्स पार्टी के साथ काम करती है और पाकिस्तान में हमेशा ऐसे राजनीतिज्ञ रहे हैं, जो होने के इच्छुक रहे हैं. यह परम्परा 1950 से चली आ रही है, जब जनरल अयूब खान ने रिपलब्किल पार्टी की स्थापना के लिए प्रोत्साहन दिया था, जो कुछ साल बाद मुकाबले के लिए तैयार हो गयी.

पाकिस्तान की स्थापना के बाद जिन्ना देश के पहले गवर्नर जनरल बने थे और साथ ही वह पहले राष्ट्रपति और संसद के पहले स्पीकर भी थे. लेकिन 11 सितंबर 1948 को मौत के बाद, उनकी जगह लियाकत ली खान ने ली, जो मुस्लिम लीग के महासचिव थे. लियाकत अली खान पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री बने थे. 1947 से 1956 के बीच पाकिस्तान एक राजतंत्र ही था और वह राष्ट्रमंडल का हिस्सा था. गणतंत्र घोषित होने से पहले पाकिस्तान ने दो सम्राट देखे थे.

स्थापना के पहल एक दशक में पाकिस्तान में 7 प्रधानमंत्री बन गए. इसमें सबसे ज्यादा समय तक पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की सरकार चली, जिनकी चौथे साल (1951) हत्या कर दी गई.

जिस तरह पहले 10 साल के आखिरी 6 साल में 6 प्रधानमंत्री बने, उससे साफ था कि जनता में नाराजगी बढ़ रही थी और लोगों का लोकतंत्र से भरोसा भी उठ रहा था. इसी का फायदा सेना प्रमुख अयूब खान ने उठाया. उन्होंने 1959 के आम चुनाव से पहले तत्कालीन राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा के साथ मिलकर सैनिक शासन लागू कर दिया और 1959 से लेकर 1969 तक पाकिस्तान में सेना का शासन रहा. अयूब खान के दौर से सेना को सरकार का स्वाद मिल गया और फिर उसके बाद चाहे किसी की भी सरकार को पाकिस्तान में सेना के इशारे पर सब-कुछ होने लगा.

अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते अयूब खान को सत्ता से हटना पड़ा लेकिन बीच में 13दिनों को छोड़कर सेना का ही शासन रहा. इसके बाद 1973से 1997तक पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो का दौर 4साल तक चला, जिन्हें 1977में पाकिस्तान के सेना प्रमुख मोहम्मद जिया उल हक ने कुर्सी से हटा दिया और फिर से सेना का शासन लागू कर दिया गया. बाद में भुट्टो को फांसी दे दी गई और इसके बाद जिया-उल-हक का सैनिक शासन 1985तक चला.  

पाकिस्तान के लोकतंत्र के इतिहास में 1988 के चुनाव महत्वपूर्ण साबित हुए जब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की नेता बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं. लेकिन उनकी सरकार भी टिकाऊ साबित नहीं हुई दो साल बाद 1990 में पाकिस्तान में फिर चुनाव हुए. इस बार सत्ता पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) को मिली और नवाज शरीफ प्रधानमंत्री चुने गए. इसके बाद 1999 तक नवाज और बेनजीर भुट्टों का दौर रहा.

राष्ट्रपति गुलाम इस्हाक खान ने बेनजीर भुट्टो को दो साल से भी कम अर्से में प्रधानमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया और मध्यावधि चुनावों में 1990 में नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री की कुरसी संभाली. बेनजीर को बर्खास्त करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 58-2बी का सहारा लिया गया. संविधान में यह प्रावधान जनरल जिया उल हक ने जोड़ा था और इसके तहत यदि राष्ट्रपति को ऐसा लगे कि निर्वाचित सरकार संविधान के अनुरूप कार्य नहीं कर रही है, तो उसे उक्त निर्वाचित सरकार को बर्खास्त करने, सदन को भंग करने और नए सिरे से चुनाव कराने का अधिकार है.

बेनजीर भट्टो की बर्खास्तगी के बाद 1990 में हुए चुनाव में नवाज शरीफ का पीपीपी-विरोधी गठबंधन (आइजेआइ) आइएसआइ की सरपरस्ती में एकजुट हुआ. तीन साल से भी कम समय बाद सेना प्रमुख अब्दुल वहीद काकर—जिनको उन्होंने 1993 में जनरल आसिफ नवाज जंजुआ की अचानक मौत हो जाने पर नियुक्त किया था—के साथ उनके रिश्ते कमजोर पड़ने लगे.

‘डीप स्टेट’ के अंग राष्ट्रपति गुलाम इस्हाक खान ने एक बार फिर मई 1993 में संविधान के उन्हीं प्रावधानों (अनुच्छेद 58-2बी) के अंतर्गत नवाज शरीफ को बर्खास्त दिया, जिसका शिकार बेनजीर को बनाया गया था.

शरीफ ने इसका विरोध किया और उस समय सुप्रीम कोर्ट ने एक अप्रत्याशित फैसला सुनाते हुए उनकी सरकार को बहाल कर दिया. सेना के लिए इसे बर्दाश्त करना मुश्किल था और इसलिए जनरल काकर ने एक समझौता किया, जिसके तहत प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार की बहाली हो गई तथा जुलाई 1993 में राष्ट्रपति गुलाम इस्हाक खान को पद छोड़ना पड़ा .

फरवरी, 1997 में शरीफ दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए. अबकी बार शरीफ ने सियासत की बारीक समझ पेश करते हुए सेना प्रमुख जनरल जहांगीर करामात के कार्यकाल की अवधि घटाते हुए उन्हें हटा दिया और उनकी जगह पर जनरल परवेज मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष बना दिया. 1998 के परमाणु परीक्षणों से उनकी लोकप्रियता बढ़ी. शरीफ इससे उत्साहित हो गए और उन्होंने भारत के साथ शांति की पहल की. इससे सेना नाराज हो गई.

फरवरी, 1999 में की गई लाहौर शांति वार्ता को करगिल युद्ध से नाकाम कर दिया गया. अमेरिका के दबाव और चीन की सलाह पर पाकिस्तान की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा. तब तक, जनरल मुशर्रफ और प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के रिश्ते बुरी तरह बिगड़ चुके थे. शरीफ को इसका अहसास हो गया था और उन्होंने जनरल परवेज मुशर्रफ को बदलने की कोशिश की और नतीजतन मनबढ़ मुशर्रफ ने अक्टूबर 1999 को तख्तापलट कर दिया. शरीफ गिरफ्तार कर ले गया और उन्हें ‘अपहरण, हत्या के प्रयास, विमान अपहरण, आतंकवाद और भ्रष्टाचार करने का दोषी ठहराया गया.’ सेना की अदालत द्वारा उनकी उम्रकैद को फांसी में बदले जाने की अफवाहों के बीच अमेरिका और सऊदी सरकारों ने हस्तक्षेप किया और शरीफ को कड़े वित्तीय जुर्माने और 20 साल तक राजनीति में भाग न लेने की शपथ ग्रहण करने के बाद निर्वासित होने की अनुमति मिल गई.

जनरल मुशर्रफ के पतन के बाद ही पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली मुमकिन हो सकी और शरीफ और बेनजीर 2007 में निर्वासन खत्म कर वतन वापस लौट सके. सऊदी सरकार ने यह राय प्रकट की कि यदि राष्ट्रपति मुशर्रफ चुनाव कराने की इजाजत दे रहे हैं, जिनमें बेनजीर भुट्टो भाग ले सकती हैं, तो यह अवसर नवाज शरीफ को भी दिया जाना चाहिए. 2008 में बेनजीर की हत्या के बाद पीपीपी राष्ट्रीय चुनाव जीत गई और शरीफ की पार्टी लोकतंत्र बहाली और राष्ट्रपति मुशर्रफ पर महाभियोग चलाने के प्रयासों के तहत कुछ अर्से के लिए पीपीपी के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल हो गई. आखिरकार, जून 2013 में, शरीफ तीसरी बार प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए.

इस बार भी शरीफ ने नवम्बर 2013 में जनरल रहील शरीफ को सेना प्रमुख नियुक्त किया. हालांकि उनके बीच मतभेद जल्दी ही उभर आए. वह मुशर्रफ पर देशद्रोह का मुकद्दमा चलाना चाहते थे, लेकिन सेना ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया. बाद में उन्होंने सेना पर आरोप लगाया कि वह पंजाब में पीएमएल (एन) को कमजोर करने के उद्देश्य से इमरान की आंदोलनकारी राजनीति को बढ़ावा दे रही है. (पंजाब सबसे बड़ा सूबा है. 342 सदस्यों वाली नेशनल असेम्बली में 183 सीटे पंजाब सूबे में हैं)

2015 में, भारत और अफगानिस्तान के संबंधित नीति के बारे में मतभेद गहरा गए. नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर से अचानक की गई 25 दिसम्बर, 2015 की लाहौर यात्रा की भी अच्छी प्रतिक्रिया नहीं हुई. पठानकोट हमले की जांच में सहयोग करने की उनकी इच्छा का सेना ने सफलतापूर्वक विरोध किया. सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल जांजुआ को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनाए जाने पर, अजीज का ओहदा कम करते हुए उन्हें विदेश नीति सलाहकार बना दिया गया. हर हालत में, अफगानिस्तान और भारत से संबंधित नीतियां परम्परागत तौर पर सेना का अधिकारक्षेत्र रही हैं.

नवाज शरीफ 2018 के चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के अंतर्गत आने वाली योजनाओं का श्रेय भी लेना चाहते थे. नवम्बर 2016 में, उन्होंने जनरल शरीफ के सेवानिवृत्त होने के बाद जनरल कमर जावेद बाजवा को सीओएएस नियुक्त किया. लेकिन इससे भी कुछ मदद नहीं मिल सकी और सेना के साथ उनके मतभेद बढ़ते चले गए. 2018 में लगातार दूसरी बार निर्वाचित होने से नवाज शरीफ काफी मजबूत स्थिति में पहुंच जाते. वह ऐसी नीतियां बना सकते थे, जो सेना के लिए सहज नहीं होतीं. इसी पृष्ठभूमि में पनामागेट मुकद्दमे शुरू हुए.

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नवाज के बाद इमरान के नाटकीय उभार के पीछे भी सैन्य प्रतिष्ठान का हाथ होने के कयास लगाए जा रहे थे, लेकिन शुरुआती नरमी के बाद इमरान के रिश्ते भी सेना के साथ तल्ख होने शुरू हो गए.

अब पाकिस्तान में जनता सड़को पर है और इसका निशाना सेना है. ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि इससे पाकिस्तान में लोकतंत्र के आने की संभावना बढ़ेगा और अगर ऐसा हो पाया और सेना का असर थोड़ा कम होगा, तो दक्षिण एशिया में शांति की संभावना भी बढ़ेगी.