नेपालः चीन के दबाव में भारत-बांग्लादेश को बिजली बचने की योजना खटाई में

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 13-09-2021
प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा
प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा

 

पंकज दास /काठमांडू

नेपाल में अमेरिका की इज्जत दांव पर है. चार साल पहले अमेरिका ने एक समझौता किया था जिसके तहत विकास के लिए 55अरब रूपये नेपाल को मिलने थे. दुनियां के करीब 50देशों में अमेरिका द्वारा चलाए जा रहे मिलेनियम चैलेंज प्रोग्राम के तहत नेपाल के विकास के लिए यह रकम मिलनी थी, लेकिन कम्यूनिस्ट पार्टी के लगातार विरोध के चलते चार साल के बाद भी नेपाल ने इस समझौते को संसद से अब तक पारित नहीं कराया है.

नेपाल सरकार और राजनीतिक दलों पर दबाब बनाने के लिए एमसीसी की उपाध्यक्ष फातिमा सुमार खुद काठमांडू पहुंचीं. प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा से से लेकर सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता प्रचंड, माधव कुमार नेपाल, बाबूराम भट्टराई सभी से मुलाकात की.

ऐसे ही अमेरिकी टीम ने विपक्षी दल के नेता केपी शर्मा ओली और महंथ ठाकुर सेे भी मुलाकात की. मगर इन मुलाकातों और अमेरिकी दबाब का कोई असर होता नहीं दिख रहा है.

एमसीसी को लेकर नेपाल के सत्तारूढ़ गठबंधन में ही विवाद है. इसका नेतृत्व कर रहे नेपाली कांग्रेस और प्रधानमंत्री इस समझौते को संसद से पारित कराने के मूड में दिखते हैं, जबकि सरकार को समर्थन दे रहे माओवादी, एकीकृत समाजवादी और जनता समाजवादी पार्टी के नेता इसके विरोध में हैं.

इनमें सबसे अधिक विरोध प्रचण्ड की माओवादी और माधव नेपाल की एकीकृत समाजवादी पार्टी कर रही है. इनके कार्यकर्ता पिछले कई दिनों से सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. कभी अमेरिकी दूतावास का घेराव करते हैं, तो कभी नेपाल दौरे पर आई फातिमा को काले झंडे दिखाते हैं.

सत्तारूढ़ घटक दलों ने साफ किया कि इस समझौते में कुछ आवश्यक संशोधन नहीं किए जाने तक किसी हालत में इसे संसद से पास नहीं कराया जाएगा. हालांकि अमेरिका ने स्पष्ट किया है कि अब समझौते में किसी भी तरह के संशोधन की गुंजाइश नहीं है.

बिना वजह इसे विवादित बनाया जा रहा है. फातिमा के नेपाल दौरे से ठीक पहले अमेरिका के तरफ से नेपाल को उनके द्वारा पूछे गए सभी सवालों का जवाब दे दिया था. साथ ही नेपाल को जो भी आशंका थी उस पर लिखित जवाब दे दिया था.

दरअसल, नेपाल के कम्यूनिस्ट पार्टी के नेताओं को लगता है कि यह समझौता चीन को घेरने की रणनीति का हिस्सा है. उनका तर्क है कि चीन के राष्ट्रपति सी जिनपिंग के द्वारा लाए गए बीआरआई को चुनौती देने के लिए एमसीसी लाया गया है.

नेपाली दलों ने यह भी आशंका जताई कि एमसीसी समझौता इंडो पैसिफिक रणनीति के तहत है.एमसीसी के माध्यम से अमेरिका नेपाल में अपने सैनिकों को प्रवेश कराना चाहता है ताकि चीन के लिए यह सरदर्द बने.

नेपाल के राजनीतिक दलों के इस आशंका पर अमेरिका के द्वारा कई बार पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है और फातिमा के भ्रमण से पहले लिखित रूप से नेपाल को इन सभी आशंकाओं का निवारण करते हुए कहा गया कि इन आशंकाओं में कोई सच्चाई नहीं है.

लेकिन अपने देश से अधिक चीन के लिए चिंतित नेपाल के कम्यूनिस्ट नेताओं ने अमेरिका को ठेंगा दिखाते हुए इस समझौते को पास नहीं करने की घोषणा की है.एमसीसी में यह बात उल्लेख है कि नेपाल में आगामी दिनों में जो बिजली का अत्यधिक उत्पादन होना है, उसके लिए एक मात्र बाजार भारत होगा.

नेपाल अपनी बिजली भारत को बेच सके इसके लिए एमसीसी समझौते केे तहत नेपाल से लेकर भारतीय सीमा तक ट्रांसमिशन लाईन बनाने की बात उल्लेख है. नेपाल जल्द ही पांच हजार मेगावाट तक की बिजली उत्पादन वाला देश हो जाएगा जिसके बाद वो करीब तीन हजार मेगावाट बिजली भारत को बेच सकता है.

आगामी एक दशक में नेपाल करीब 14000 मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता वाला देश बन जाएगा. वह भारत और भारत के रास्ते बांगलादेश को भी बिजली बेच सकता है. लेकिन इसके लिए अल्ट्रा हाईटवोल्टेज ट्रांसमिशन लाइन की आवश्यकता होगी.

एमसीसी समझौते के तहत अमेरिका ने बनाने का वादा किया है. चूंकि इन सारे ट्रांसमिशन लाइन का संबंध भारत से है. भारत की सहमति के बाद ही इस समझौते का कोई अर्थ है, इसलिए अमेरिका ने पहले ही समझौता में यह कह दिया कि भारत की मंजूरी और सहमति के बाद ही नेपाल में इस प्रोजेक्ट को आगे बढ.ाया जाएगा.

नेपाली कम्यूनिस्ट नेताओं को यही बात खटक रही है. उनका तर्क है कि जब समझौता नेपाल और अमेरिका के बीच होना है तो इसमें भारत के सहमति की क्या आवश्यकता थी.

चीन के लिए भी अमेरिका और नेपाल को बीच का यह समझौता सरदर्द से कम नहीं. दरअसल, चीन नहीं चाहता कि नेपाल उसके चंगुल से छुट कर किसी और देश के करीब जाए. एमसीसी के तहत यदि प्रसारण लाइन बन गया.

भारत को अपनी बिजली बेचने लगा तो एक अनुमान है कि नेपाल को इससे सालाना एक हजार करोड़ रूपये से अधिक की आमदनी होगी. इससे भारत के साथ का ना सिर्फ व्यापार घाटा कम होगा, आर्थिक रूप से नेपाल अपने पैर पर खड़ा हो सकता है.

चीन नहीं चाहता है कि नेपाल आत्मनिर्भर बने. नेपाल आत्मनिर्भर होगा तो वो बीआरआई के जरिए नेपाल को अपने ऋण जाल में कैसे फंसाएगा. इस कारण चीन यहां के कम्यूनिस्ट नेताओं के जरिए इसका विरोध करवा रहा है.

चीन को अच्छी तरह मालूम है कि नेपाल की देउबा सरकार इस समय चीन के चुनिंदा दलों और नेताओं की वैशाखी पर टिकी है. जैसे ही देउबा ने मनमानी की वैसे ही उनकी सरकार चली जाएगी.

सत्तारूढ़ गठबंधन दल के नेता प्रचंड से लेकर माधव नेपाल तक और बाबूराम भट्टराई से लेकर उपेंद्र यादव तक सब चीन की भाषा बोल रहे हैं. फातिमा के नेपाल आने से ठीक पहले चीनी राजदूत ने प्रचंड , माधव, उपेंद्र, बाबूराम आदि से मुलाकात की थी.

कहते हैं, उनसे किसी भी हालत में बीआरटी पारित नहीं करने के लिए दबाब दिया था. प्रधानमंत्री देउबा कहीं विपक्षी दलों के साथ मिलकर गठबंधन ही ना तोड़ दें और एमसीसी पास करा दें इसके लिए फातिमा के दौरे से पहले चीन के दबाब पर संसद के सत्र को आधी रात को अचानक खत्म कर अगले दिन सुबह राजनीतिक दल विभाजन संबंधी अध्यादेश ले आए. इसके निशाने पर केपी ओली की पार्टी थी.

एमसीसी के समर्थन में रहे केपी ओली की पार्टी में विभाजन कराया गया, ताकि उनके साथ मिलकर देउबा कहीं इसे पास ना कर दे. ऐसे ही एमसीसी के समर्थन में रहे महन्थ ठाकुर समूह के 14सांसदों को बाबूराम भट्टराई और उपेंद्र यादव ने उनकी ही पार्टी से निकाल बाहर कर दिया था.

नेपाल के प्रधानमंत्री देउबा इस समय दोधार में फंसे हैं. एक तरफ अमेरिका के साथ किया गया समझौता है तो दूसरी तरफ सत्ता जाने का डर. अगर अमेरिका के दबाब में आकर वो समझौता को संसद में पेश करते हैं तो उनका गठबंधन टूट जाएगा. उनकी सत्ता भी जा सकती है.

चीन के इशारे पर चलने वाली और चीन का एजेंडा देश में लागू करने वाली पार्टियों के समर्थन में देउबा सरकार टिकी है. यदि वो अमेरिकी समझौते को आगे नहीं बढाते हैं तो देश को बड़ा नुकसान हो सकता है. भविष्य में विदेशी सहायता और विदेशी निवेश पर इसका सीधा असर देखने को मिलेगा.

हालांकि देउबा को नेपाल में अमेरिका के सबसे करीबी माना जाता है, लेकिन इस बार कई लोगों को यह आशंका है कि चीन के दबाब के आगे देउबा अपनी सत्ता गठबंधन को दांव पर नहीं लगाने वाले है.

वो बाहर तो दिखा रहे हैं कि उनकी सरकार एमसीसी संसद से पारित कराना चाहती है लेकिन अपने ही घटक दलों को विरोध का हवाला देकर उसको रोकना भी चाह रहे हैं. देउबा सरकार बने हुए दो महीने से अधिक हो गया है, अब तक ना तो वह सरकार का विस्तार कर पाई है और न ही गठबंधन दलों के बीच में मंत्रालय का बंटवारा हो पाया है.

चीन के कहने पर गठबंधन के दबाब में देउबा ने बिना किसी ठोस प्रमाण के दार्चुला घटना पर भारत को प्रोटेस्ट नोट जरूर भेज दिया है. इतना ही नहीं उद्धार और राहत कार्यों के लिए उत्तराखंड की सीमा में उड़ने वाली आर्मी और वायुसेना को हेलीकॉप्टर के नेपाली सीमा में प्रवेश का बेवजह आरोप लगाते हुए भी विरोध दर्ज कराया है. इसको बैलेंस करने के लिए चीन की सीमा विवाद को भी उठाया तो प्रचंड ने गठबंधन तोड़ने की धमकी दे डाली.

वर्तमान अवस्था में एमसीसी का पास होना मुश्किल लग रहा है, क्योंकि ना तो सरकार ना गठबंधन और ना ही स्पीकर ही इसके पक्ष में है. इस समय नेपाली संसद का स्पीकर अग्नि सापकोटा माओवादी पार्टी के हैं.

जैसे ही उन्हें मालूम चला कि सरकार ने संसद का यह सत्र एमसीसी पारित करने लिए बुलाया है वैसे ही उन्होंने इसका विरोध करते हुए कहा कि राजनीतिक सहमति नहीं बनने तक एमसीसी को सदन में पेश नहीं किया जाएगा.

वैसे तो आम तौर पर यह चलन है कि सदन की बैठक से पहले एजेंडा तय करने के लिए स्पीकर के तरफ से कार्य व्यवस्था परामर्श समिति की बैठक अनिवार्य रूप से बुलाई जाती है, लेकिन इस समय संसदीय सत्र को शुरू हुए एक हफ्ते से अधिक हो गया लेकिन स्पीकर अपने मन से ही बिना किसी राजनीतिक दल या सरकार के परामर्श के सदन का एजेंडा प्रकाशित कर दे रहे है. इससे साफ है कि स्पीकर भी सरकार के विरोध में ही है.