जब भारतीय मुस्लिम महिलाओं ने धर्म परिवर्तन के माध्यम से हासिल किया था तलाक का अधिकार

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] • 1 Years ago
प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर

 

साकिब सलीम

1920 के दशक के दौरान भारतीय मुसलमानों को एक अजीब समस्या का सामना करना पड़ा. ऐसे समय में जब ब्रिटिश सरकार धार्मिक समुदायों को उनकी संख्या के आधार पर 'रियायतें' प्रदान कर रही थी, बड़ी संख्या में भारतीय मुस्लिम महिलाओं को इस्लाम की निंदा करते हुए और अन्य धर्म अपनाती देखी गईं.

पंजाब में ईसाई मिशनरियों ने बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं को ईसाई धर्म परिवर्तन के रूप में बपतिस्मा दिया था.

धर्मांतरण के पीछे का कारण?

1913में, एक मुस्लिम व्यक्ति ने देवबंद स्कूल के एक सम्मानित हनफी विद्वान मौलाना अशरफ अली थानवी से एक फतवा (इस्लामी कानूनी राय) मांगी. उस व्यक्ति की पत्नी अपने माता-पिता के पास गई थी और वापस नहीं लौट रही थी. बाद में, जब उसने पत्नी के माता-पिता पर दबाव बनाने की कोशिश की, तो उसने बताया कि उसने इस्लाम धर्म छोड़ दिया है, इसलिए शादी का अनुबंध रद्द कर दिया गया.

वह आदमी जानना चाहता था कि क्या वास्तव में ऐसा था या यदि वह अभी भी उसकी पत्नी थी. मौलाना ने शासन किया, "निरस्त. अविश्वास के शब्दों को जानबूझकर और जानबूझकर कहना, चाहे कोई वास्तव में उन शब्दों पर विश्वास करता हो या नहीं, चाहे वह किसी का अपना विचार हो या किसी और के निर्देश हों, सभी मामलों में अविश्वास का गठन अनिवार्य रूप से होता है. चूंकि अविश्वास विवाह अनुबंध को रद्द करने का कारण बनता है, विवाह [प्रश्न में] भंग हो जाता है."

1910और 20का दशक वह समय था जब विभिन्न महिला आंदोलनों ने गति पकड़ी थी. अखिल भारतीय मुस्लिम महिला सम्मेलन जैसे मुस्लिम महिला संगठनों ने पर्दा और बहुविवाह को चुनौती देना शुरू कर दिया था.

बेगम सुल्तान जहां, अब्रू बेगम, बेगम वहीद और बेगम जहांनारा जैसी महिलाएं महिला शिक्षा की आवश्यकता पर जोर दे रही थीं. अपने अधिकारों के प्रति इस जागरूकता ने महिलाओं को विवाह में भी पतियों द्वारा उनके उत्पीड़न के प्रति जागरूक किया. वे एक क्रूर पति के साथ नहीं रहेंगी.

कई महिलाएं जो अपने अपमानजनक पतियों को छोड़ना चाहती थीं, ऐसा नहीं कर सकीं क्योंकि हनाफी स्कूल ऑफ ज्यूरिस्प्रुडेंस के अनुसार, जिसका अधिकांश भारतीय मुस्लिम अनुसरण करते हैं, एक महिला अपने पति को यौन रूप से नपुंसक होने के अलावा तलाक नहीं दे सकती थी. इस्लाम का त्याग ही एकमात्र रास्ता था क्योंकि ऐसा करने से विवाह रद्द हो जाता था.

इस विकल्प का प्रयोग करने वाली महिलाएं 1924तक इतनी बड़ी हो गईं कि कवि दार्शनिक मुहम्मद इकबाल ने इसे सार्वजनिक सभाओं में उठाना शुरू कर दिया. मुहम्मद खालिद मसूद ने नोट किया, "1924में लाहौर में दिए गए एक सार्वजनिक व्याख्यान में, डॉ मुहम्मद इकबाल (डी. 1938) ने इन धर्मांतरणों के बारे में चिंता व्यक्त की.

इकबाल ने हनफ़ी कानून की वैधता पर सवाल उठाया जिसने मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम छोड़ने के लिए मजबूर किया. उन्होंने मुस्लिम विद्वानों से इस बिंदु पर हनफ़ी कानून में सुधार के लिए इज्तिहाद का प्रयोग करने का भी आग्रह किया-स्वतंत्र कानूनी राय जारी करने के लिए जो कानून के एक विशेष स्कूल के न्यायविदों की पहले की राय से बंधे नहीं थे.

मौलाना अशरफ अली थानवी के नेतृत्व में उलेमा (इस्लामी विद्वान) ने समाधान के लिए विभिन्न विचारधाराओं के न्यायविदों से परामर्श करना शुरू किया. 1931में, मौलाना ने अपने 1913के फतवे को संशोधित किया और इसका शीर्षक - अल-हिलात अल-नजीज़ा लि'ल-हैलीलत अल-अजीज़ा (असफल पत्नी के लिए एक सफल कानूनी उपकरण).

यह 201पृष्ठों का लंबा संशोधित फतवा था जिसमें उन्होंने बताया कि भारतीय मुस्लिम महिलाएं एक अपमानजनक पति के खिलाफ कानूनी राहत के अभाव में एक कानूनी उपकरण के रूप में इस्लाम का त्याग कर रही हैं. इन विशेष परिस्थितियों में उन्होंने लिखा कि न्यायशास्त्र के मलिकी स्कूल के सिद्धांत को भी नियोजित किया जा सकता है. इस प्रकार, उन्होंने फैसला सुनाया, कि भारतीय मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से तलाक लेने की अनुमति दी जानी चाहिए, एक अधिकार जिसे इस्लामी शब्दावली में खुला कहा जाता है.

इस फतवे के आधार पर मेरठ के जमीयत-ए-उलेमा के सदस्य मुहम्मद अहमद काज़मी ने 1936में केंद्रीय विधानमंडल में एक बिल पेश किया. बिल का प्रस्ताव देते हुए काज़मी ने कहा, "बिल के साथ आगे बढ़ने का कारण महान है. जिस मुसीबत में मुझे आज भारत में औरतें मिलती हैं. उनकी स्थिति वास्तव में दिल दहला देने वाली है, और बिल के प्रावधानों के बिना और अधिक समय तक रहने के लिए और पुरुषों को अपने अधिकारों का प्रयोग जारी रखने की अनुमति देना और महिलाओं को उनके धर्म द्वारा दिए गए अधिकारों से वंचित करना उचित नहीं होगा- महिलाओं के अधिकार नहीं होने चाहिए केवल इसलिए खतरे में पड़ जाएं क्योंकि उनका इस सदन में प्रतिनिधित्व नहीं है. मुझे यकीन है कि अगर इस घर में एक भी अच्छी तरह से शिक्षित मुस्लिम महिला होती, तो इस घर के फर्श पर बिल्कुल अलग विचार व्यक्त किए जाते. मुझे पता है, श्रीमान, कि शिक्षित मुस्लिम महिलाओं की मांग अधिक से अधिक होती जा रही है कि इस्लामी कानून के अनुसार उन्हें उनका अधिकार दिया जाए. - मुझे लगता है कि एक मुस्लिम महिला को पूरी आजादी दी जानी चाहिए, वैवाहिक मामलों में अपनी पसंद का इस्तेमाल करने का पूरा अधिकार दिया जाना चाहिए.”

विधानसभा में एकमात्र महिला श्रीमती राधाबाई सुबारॉयन ने कहा, "मुझे लगता है कि यह विधेयक पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता के सिद्धांतों को मान्यता देता है. यहां और बाहर यह कहा गया है कि यद्यपि इस्लामी कानून इस सिद्धांत को निर्धारित करता है, हमारे देश के कई हिस्सों में वास्तविक व्यवहार में, इसे महिलाओं के नुकसान के लिए अनदेखा किया जाता है.”

बिल को अंततः 1939 में मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 के रूप में पारित किया गया. इस अधिनियम ने मुस्लिम महिलाओं को अपने पति से कई बार तलाक का अधिकार प्रदान किया.