एहसान फाजिली / श्रीनगर
कुपवाड़ा जिले के गुंडचबोत्रा गांव की बिलकीस आरा को 2012 की शुरुआत में, आशा कार्यकर्ता (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) के रूप में शामिल होने के बाद शुरुआती कुछ महीनों में कठिन स्थितियों का सामना करना पड़ा. उनके पड़ोस में रहने वाली उनकी चचेरी बहन तबस्सुम उस समय एक गर्भवती थीं. उन्हें विभिन्न जटिलताओं के कारण रक्त की आवश्यकता थी, जिसके लिए उन्हें जिला अस्पताल, बारामूला और श्रीनगर के लाल डेड प्रसूति अस्पताल में भेज दिया गया था. मरीज को अपनी और बच्चे की जान बचाने के लिए कम से कम 11 ब्लड यूनिट्स की जरूरत थी. उस समय घर में कोई पुरुष सदस्य नहीं था, क्योंकि तबस्सुम का पति सीआरपीएफ में कार्यरत था और असम में बहुत दूर तैनात था. तो वह सबसे पहले आगे आईं और गर्भवती मां और उसके बच्चे को बचाने के लिए अपना ब्लड डोनेट किया, जबकि शेष ब्लड यूनिट्स की व्यवस्था भी करवाई.
एक जीवन बचाने के लिए स्वेच्छा से रक्तदान करने के कारण बिलकीस ने खुशी महसूस की. कुछ दिनों के बाद जब उन्होंने पहला रक्त यूनिट दान किया और उनहें बताया गया कि उनके शरीर ने रक्तदान के नुकसान की भरपाई कर ली है और उनके हीमाग्लोबिन का स्तर नौ है. बिलकीस ने कहा, “मुझे (डॉक्टरों द्वारा) बताया गया था कि दान करने में कोई बुराई नहीं है और हर तीन महीने के बाद कोई भी दान कर सकता है.”
टीकाकरण के अभियान में जुटीं आशा वर्कर बिलकीस बानो
2012 में बाद के महीनों के दौरान 30 वर्षीय बिलकीस आरा को एक और मुश्किल स्थिति का सामना करना पड़ा, जब उनके अपने बच्चे (अब लगभग आठ वर्ष) को श्रीनगर के चिल्ड्रेन हॉस्पिटल (सोनवार) में भर्ती कराया गया था. एक दिन के बाद, कुछ जटिलताओं के कारण उनका लड़का दो दिनों के लिए कोमा में चला गया और उन्हें अपने बच्चे की जान बचाने के लिए खुद रक्तदान करना पड़ा.
जब उनके बेटे का इलाज चल रहा था, उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा जिले के द्रुगमुल्ला गांव के एक परिवार को भी इसी तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा था.
बिलकीस ने आवाज-द वॉयस को बताया, “चार बहनों के बाद पैदा हुई उनकी इकलौती संतान को गंभीर हालत में भर्ती कराया गया था, जिसे रक्त आधान की भी जरूरत थी” यह कहते हुए कि वह संकट में परिवार की दुर्दशा से हिल गई थीं. वह रक्तदान करना चाहती थीं, लेकिन उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं थी, क्योंकि उन्होंने केवल एक दिन पहले अपने बच्चे के लिए दान किया था.
परिवार के दर्द और पीड़ा से प्रेरित होकर, उसने आखिरकार अपना ही रक्त दान करने का फैसला किया और अपनी पहचान छुपाने के लिए अपना चेहरा ढंक कर आगे बढ़ीं और उन्होंने एक और रक्तदान किया. उन्होंने अपने पति तारिक अहमद को बिना बताए पहली बार यह कदम उठाया. अगले ही दिन रक्तदान कम हीमोग्लोबिन वाली महिला के लिए जोखिम भरा हो सकता है. लेकिन कहते हैं, जहां नियत, वहां बरक्कत. आस्थावान बिल्कीस का मानना था कि उनके शुभ कार्य से उनका बच्चा बच जाएगा और शुक्र है कि दोनों बच्चे ‘सर्वशक्तिमान की कृपा’ से स्वस्थ हो गए.
इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. क्योंकि बिलकीस ने अपना स्वैच्छिक रक्तदान जारी रखा है. उन्होंने पिछले नौ वर्षों के दौरान दुर्लभ 25 बार रक्तदान को पार कर लिया है.
बिलकीस 25 से ज्यादा बार रक्तदान कर चुकी हैं। इसलिए उन्हें कई बार सम्मानित किया गया।
कुपवाड़ा और आसपास के बारामूला जिलों या श्रीनगर के अस्पतालों में विभिन्न स्थानों पर रक्त दान के बाद उन्हें कई प्रमाण पत्र मिले हैं, जिनमें से ज्यादातर उनके रोगियों को कुछ जटिलताओं के साथ अन्य अस्पतालों में रेफर किया जा रहा था.
यह आशा कार्यकर्ता न केवल प्रसव के मामलों में ग्रामीण क्षेत्र में अपने समुदाय की सहायता कर रही हैं, बल्कि टीकाकरण प्रक्रिया, गोल्ड (स्वास्थ्य) कार्ड और कोविड-19 टीकाकरण प्रक्रिया में भी लगी हुई हैं. उन्होंने दूसरे चरण में 18-45 वर्ष के आयु वर्ग में 500 से अधिक खुराक और 45 वर्ष से अधिक आयु में 350 से अधिक खुराक दी हैं.
लेकिन, आशा कार्यकर्ताओं को उनकी कड़ी मेहनत के लिए बहुत कम या कम भुगतान किया जाता है, यह आम धारणा है.
कुपवाड़ा जिले के हंदवाड़ा क्षेत्र के ब्लॉक लंगेट में स्वास्थ्य शिक्षक और आशा कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षक गुलाम रसूल के अनुसार, बिलकीस आरा स्वास्थ्य कार्यों को हर स्तर पर मदद कर रही हैं और व्यवस्थित रूप से काम करती हैं.
गुलाम रसूल ने टिप्पणी की कि बिलकीस ग्रामीण जनता के बीच एक महान प्रेरक हैं, जिसके द्वारा उन्होंने टीकाकरण का 100 प्रतिशत लक्ष्य पूरा कर लिया है. आशा कार्यकर्ता, स्वास्थ्य कार्यकर्ता समुदाय और स्वास्थ्य प्रणाली के बीच एक इंटरफेस के रूप में कार्य कर रहीं हैं.