शौकत कैफ़ीः किरदार में सच्चा रंग भरने का फ़न जिन्हें मालूम था

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] • 2 Years ago
शौकत कैफ़ी
शौकत कैफ़ी

 

आवाज विशेष । 20 अक्टूबर अदाकारा शौकत कैफ़ी का जन्मदिन        

ज़ाहिद ख़ान

आपको ‘उमराव जान’ की ख़ानम जान की याद है! और ‘बाज़ार’ की हजन बी! ‘सलाम बाम्बे’ के रेडलाइट एरिया के कोठे की मालकिन!! हालांकि यह उनकी शख़्सियत का एक पहलू है. शौकत कैफ़ी लम्बे अर्से तक पृथ्वी थिएटर और इप्टा में सरगर्म रहीं, डबिंग आर्टिस्ट और रेडियो अनाउंसर के तौर पर भी काम किया.

तरक़्क़ीपसंद तहरीक की हमसफ़र शौकत आपा मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की शरीके हयात थीं. शौकत ख़ानम से शौकत कैफ़ी बनने की दास्तान ख़ासी दिलचस्प और हंगामाख़ेज़ है.हैदराबाद से निकलने वाले उर्दू अख़बार ‘पयाम’ के एडिटर, तरक़्क़ीपसंद शायर अख़्तर हुसैन, शौकत ख़ानम के दूल्हाभाई थे.

उनके घर हमेशा तरक़्क़ीपसंद तहरीक से जुड़े अदीबों का डेरा जमा रहता. उन्हीं के घर शौकत ख़ानम की पहली मुलाक़ात कैफ़ी आज़मी से हुई. इस पहली मुलाक़ात में ही वह उन्हें भा गए. यह जानते हुए भी कि कैफ़ी आज़मी कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर हैं, बंबई में पार्टी के कम्युन में रहते हैं, और उनकी आजीविका का कोई ठिकाना नहीं, शौकत ख़ानम ने उनसे शादी करने का फ़ैसला कर लिया.

परिवार की शुरुआती ना-नुकूर के बाद, आख़िरकार उनकी शादी कैफ़ी आज़मी से हो गई.शादी के कुछ अरसे बाद ही शौकत ख़ानम ने ख़ुद को कम्युन और कैफ़ी के रंग में ढाल लिया. उनके संग प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की बैठकों और कार्यक्रमों में शिरकत करने लगीं.

कैफ़ी साहब की ज़िंदगी का मकसद उनका मकसद हो गया. ज़िंदगी जैसे-जैसे आगे बढ़ी, कठोर सच्चाईयों से उनका साबका पड़ा. पार्टी के होल टाइमर होने की वजह से कैफ़ी को परिवार चलाने में दिक्कतों का सामना करना पड़ता था.

पार्टी के काम के अलावा और कोई काम वह कर नहीं सकते थे, न ही इसके लिए उनके पास वक्त था. कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी.सी. जोशी की कहने पर शौकत कैफ़ी ने भी काम करने का फ़ैसला कर लिया. उन्होंने अपना यह फ़ैसला, कैफ़ी को सुनाया, तो उन्होंने भी उनकी मदद की. अपने स्कूल के दिनों में वह ड्रामों में काम करती थीं.

अभिनय उनका शौक़ था. लिहाज़ा उन्होंने अभिनय की दुनिया में जाने का इरादा किया. रेडियो के लिए ड्रामों में हिस्सा लेने के अलावा उन्होंने फ़िल्मी गीतों के कोरस में अपनी आवाज़ दी. उनकी मेहनत और लगन का ही नतीजा था कि कुछ ही दिनों में उन्हें डबिंग वगैरह का काम भी मिलने लगा. घर चलाने की ज़रूरतें पूरी होने लगीं.

इप्टा के नाटकों में शिरकत का सिलसिला भी बन गया. हुआ यूं कि एक रोज़ ख़्वाजा अहमद अब्बास की बीबी मुज्जी उनके पास आईं और ‘इप्टा’ में काम करने की पेशकश की. वह मना नहीं कर पाईं और ख़ुशी-ख़ुशी मान गईं.

इस्मत चुग़ताई का लिखा ‘धानी बांके’ पहला नाटक था, जिसमें उन्होंने अभिनय किया. भीष्म साहनी के निर्देशन में हुए इस नाटक में उनके साथ ज़ोहरा सहगल, अजरा बट्ट और दीना पाठक की भी भूमिका थी. यह नाटक बेहद कामयाब रहा.

इसके बाद भीष्म साहनी के निर्देशन में ही उन्होंने ‘भूतगाड़ी’ किया, जिसमें बलराज साहनी उनके सह कलाकार थे. ‘धानी बांके’ की तरह इस नाटक में भी उनका केन्द्रीय किरदार था, जिसे उन्होंने बहुत ही उम्दा तरीके से निभाया. नाटक और उनका अभिनय दोनों ही ख़ूब पसंद किए गए. इस तरह अभिनेत्री के तौर पर उनकी पहचान बन गई. उनको ज़िंदगी के लिए एक नई राह मिल गई.

कैफ़ी के संघर्षों में कंधे से कंधा मिलाकर वह बराबर खड़ी रहतीं. पृथ्वी थिएटर में नौकरी की, ट्यूशन पढ़ाया और किसी तरह से परिवार का गुज़ारा चलाया. जो रास्ता उन्होंने चुना था, उससे कभी विचलित नहीं हुईं. किराए के मकान और पार्टी कम्यून में उन्होंने कई साल गुजारे.

कुछ साल तक पृथ्वी थिएटर में रहते हुए उन्होंने पृथ्वीराज कपूर के नाटकों में काम करते हुए अभिनय की बारीकियां सीखीं. ‘याद की रहगुज़र’ में पृथ्वीराज कपूर के मशविरे को याद करते हुए उन्होंने लिखा है – वे कहते थे, ‘‘जब तुम कोई किरदार पेश करो, तो उसमें इस तरह समा जाओ कि कोई तुम्हारा दिल चीर कर भी देखे, तो उसको उसी तरह धड़कता हुआ पाए, जिस तरह उस किरदार का दिल धड़कता है.’’

उन्होंने पृथ्वी थियेटर के कई चर्चित नाटकों ‘शकुंतला’, ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘गद्दार’, ‘आहुति’, ‘कलाकार’, ‘पैसा’ और ‘किसान’ में काम किया. ऐलीक पदमसी के ‘थिएटर ग्रुप’ के वन एक्ट ड्रामे ‘नौकरानी की तलाश’, ‘सारा संसार अपना परिवार’, ‘शायद आप भी हॅंसें’ और ‘शीशों के खिलौने’ में भी उन्होंने अभिनय किया. थिएटर की दुनिया में अभिनेत्री के तौर पर उनकी मांग बढ़ती गई. इप्टा के साथ-साथ वे व्यावसायिक थिएटर भी करती थीं ताकि परिवार के लिए ज़रूरी मदद हो सके.

थिएटर में काम करके शौकत कैफ़ी को रचनात्मक सुकून मिलता, आर्थिक ज़रूरतें पूरा करने में भी मदद हो जाती. हालांकि यह मदद अस्थायी थी. नाटक होते, तो उन्हें मेहनताना मिलता. बाक़ी वक्त उन्हें खाली बैठना पड़ता.

यही वजह है कि ऑल इंडिया रेडियो में जब विविध भारती की शुरुआत हुई, तो उन्होंने अनाउंसर की नौकरी के लिए अपनी दरख़्वास्त भेज दी. वह चुन ली गईं. विविध भारती का पहला प्रोग्राम ‘मन चाहे गीत’ उन्हीं की आवाज़ में ब्रॉडकास्ट हुआ.जो आगे चलकर ख़ूब लोकप्रिय हुआ.

विविध भारती में आज जो गीत बजते हैं, उसमें फिल्म के साथ ही गायक, संगीतकार और गीतकार का नाम भी बताते हैं. लेकिन शुरुआत में ऐसा नहीं था. सिर्फ़ फ़िल्म और गायक का नाम ही बोला जाता था. शौकत कैफ़ी ही थीं, जिन्होंने एक बैठक में संगीतकार और गीतकार का नाम भी अनाउन्स करने का प्रस्ताव रखा और यह मान लिया गया.

इप्टा से उनका लंबा नाता रहा. क़रीब चार दशक तक वह मुंबई इप्टा से जुड़ी रहीं. इप्टा के कई अहमतरीन नाटकों, ‘डमरू’, ‘अफ्रीका जवान परेशान’, ‘तन्हाई’, ‘इलेक्शन का टिकट’, ‘आज़र का ख़्वाब’, ‘लाल गुलाब की वापसी’, ‘आख़िरी सवाल’, ‘सफ़ेद कुंडली’ और ‘एंटर ए फ़्रीमैन’ में उनका अभिनय खूब सराहा गया.

ज़्यादातर नाटकों में उन्होंने केन्द्रीय किरदार निभाया. ए.के. हंगल, आर.एम. सिंह, रमेश तलवार, रंजीत कपूर जैसे निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया. अभिनय की शोहरत उन्हें फिल्मों तक ले गई. ‘हकीक़त’, ‘हीर रांझा’, ‘लोफ़र’ आदि फ़िल्मों में उन्होंने छोटे-छोटे चरित्र किरदार निभाए. एम.एस. सथ्यू और शमा जैदी ने 1971 में जब ‘गर्म हवा’ बनाने का फ़ैसला किया, तो एक अहम रोल में उन्हें भी चुना.

सलीम मिर्जा (बलराज साहनी) की बीबी के किरदार में तो शौकत कैफ़ी ने जैसे जान ही फूंक दी. सत्यजीत राय ने शौकत कैफ़ी की तारीफ़ करते हुए कहा,‘‘शौकत को इस फ़िल्म में अदाकारी के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिलना चाहिए था.’’ ‘गर्म हवा’ के बाद उन्हें जो महत्वपूर्ण फ़िल्म मिली, वह थी मुज़फ्फर अली की ‘उमराव जान’. इस फ़िल्म में उन्होंने ख़ानम के रोल में कमाल कर दिखाया है.

कैफ़ी आज़मी ने जब यह फ़िल्म देखी, तो उन्होंने कॉस्ट्यूम डिजाइनर सुभाषिणी अली को अपना रद्दे अमल देते हुए कहा,‘‘शौकत ने ख़ानम के रोल में जिस तरह हकीकत का रंग भरा है, अगर शादी से पहले मैंने इनकी अदाकारी का यह अंदाज़ देखा होता, तो इनका शजरा (वंशावली) मंगवाकर देखता कि आख़िर सिलसिला क्या है!’’ मीरा नायर की ‘सलाम बाम्बे’ ऐसी एक और फ़िल्म है, जिसमें शौकत कैफ़ी की अदाकारी के ख़ूब चर्चे हुए.

‘घर वाली’ के रोल की तैयारी के लिए वे बाक़ायदा कमाठीपुरा जाती रहीं ताकि तवायफ़ों की ज़िंदगी को क़रीब से जान सकें. जब वह शूटिंग के लिए गईं, तो उनकी अदाकारी ने निर्देशक के साथ ही बाक़ी कलाकारों को भी चौंका दिया.

‘लोरी’, ‘रास्ते प्यार के’, ‘बाज़ार’, ‘अंजुमन’ वे और फ़िल्में हैं, जिनमें शौकत ने अपनी अदाकारी के अलेहदा रंग दिखलाए. स्टेज हो या ज़िंदगी, शौकत कैफ़ी को जो भूमिकाएं मिलीं, उन्होंने बेहतर तरीके से निभाया. ‘याद की रहगुज़र’ शौकत कैफ़ी की आपबीती है.

यह उनकी एक मात्र किताब है. इसमें उन्होंने जिस किस्सागोई से कैफ़ी आज़मी, अपने परिवार और ख़ुद के बारे में लिखा है, वह पढ़ने वालों को उपन्यास का मज़ा देता है. ऐसा उपन्यास जिसके सारे किरदार असली ज़िंदगी के हैं.

कृश्न चंदर की शरीके हयात और अफ़सानानिगार सलमा सिद्दीकी ने इस किताब की भूमिका लिखी है. ‘याद की रहगुज़र’ को उन्होंने मुहम्मदी बेगम, नज्र सज्जाद हैदर, कुर्रतुल ऐन हैदर, हमीदा सालिम जैसी उर्दू की अव्वलतरीन लेखिकाओं की आपबीती और सवानेहउम्री (आत्मकथा) के समकक्ष रखा है.

शौकत कैफ़ी उन हिम्मती औरतों में शामिल हैं, जिन्होंने अपनी तक़दीर ख़ुद लिखी. आगे बढ़कर अपनी तारीख़ का उनवान बदला. कैफ़ी आज़मी जिस ‘आग’ में जलते थे, उसी ‘आग’ में जलना मंजूर किया. कैफी की मशहूर नज़्म ‘औरत’ पर ज़िंदगी भर एतमाद किया.

‘‘तोड़कर रस्म के बुत बन्दे-क़दामत (प्राचीनता का बंधन) से निकल/ ज़ोफ़े-इशरत (आनंद की कमी) से निकल, वहम-ए-नज़ाकत (कोमलता का भ्रम) से निकल/....राह का ख़ार ही क्या गुल भी कुचलना है तुझे/ उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे.’’पूरी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर गुज़ारी और कभी किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं किया.

आज़ादी के बाद एक बार फिर इप्टा को खड़ा करने की कोशिशों में ए.के. हंगल, आर.एम. सिंह, विश्वामित्र आदिल, संजीव कुमार, रमेश तलवार और कैफ़ी आज़मी के संग वह भी शरीक थीं. रंगमंच और फ़िल्मों में अपने योगदान और अपनी यादगार अदाकारी से शौकत कैफ़ी हमेशा याद की जाएंगी.