मलिक असगर हाशमी / नई दिल्ली
एग्जिट पोल के आंकड़े चाहे जो इशारा करें, लेकिन असली तस्वीर आज आने वाले नतीजों से ही साफ़ होगी। शाम तक यह तय हो जाएगा कि बिहार की सत्ता पर दोबारा नीतीश कुमार काबिज़ होंगे या महागठबंधन सत्ता की कुर्सी तक पहुँच पाएगा, या फिर नतीजे इतने बिखरे होंगे कि राज्य को एक बार फिर जोड़-तोड़ की राजनीति का सामना करना पड़ेगा। जो भी परिणाम सामने आए, एक बात से कोई भी दल इनकार नहीं कर सकता कि इस बार भी महिला मतदाताओं ने बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की दिशा और दशा तय करने में निर्णायक भूमिका निभाई है।
बिहार के इतिहास में पहली बार लगभग 70 प्रतिशत मतदान हुआ है, और यह रिकॉर्ड इसलिए भी खास है क्योंकि अधिकतर बूथों पर महिलाओं ने पुरुषों से आगे रहकर वोट डाले।
कई केंद्र ऐसे रहे जहाँ महिला मतदाताओं का प्रतिशत पुरुषों से अधिक दर्ज हुआ। यह आंकड़ा न सिर्फ राजनीतिक दलों के दावों को चुनौती दे रहा है, बल्कि बिहार की सामाजिक चेतना में हो रहे परिवर्तन का भी प्रमाण है।
रेकॉर्ड वोटिंग के बाद सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों अपने-अपने पक्ष में तर्क गढ़ रहे हैं। सत्ता पक्ष का कहना है कि अधिक मतदान सरकार के प्रति जनसमर्थन का संकेत है, जबकि विपक्ष का दावा है कि यह सत्ता-विरोधी लहर का प्रतिबिंब है।
विभिन्न एजेंसियों के एग्जिट पोल ने अपने-अपने अनुमान पेश किए हैं — किसी ने एनडीए को 75 से 79 सीटों पर सबसे बड़ी पार्टी बताया है, तो कुछ ने महागठबंधन को 65 से 73 सीटों के बीच मजबूत स्थिति में माना है। पिछले विधानसभा चुनाव में एनडीए ने 125 और महागठबंधन ने 110 सीटें जीती थीं। इस बार मुकाबला पहले से कहीं अधिक कड़ा दिख रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अधिक मतदान को सीधे सत्ता परिवर्तन या सत्ता बरकरार रहने के संकेत के रूप में नहीं देखा जा सकता, लेकिन यह स्पष्ट है कि महिला मतदाताओं की भूमिका अभूतपूर्व रही है।
चुनाव आयोग के प्रारंभिक आंकड़े बताते हैं कि इस बार कई सीटों पर महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में अधिक मतदान किया। एनडीए इस बढ़े हुए महिला मत प्रतिशत को अपने पक्ष में स्विंग मानकर उत्साहित है।
जेडीयू के वरिष्ठ नेता के.सी. त्यागी का कहना है कि अगर 3 से 4 प्रतिशत का महिला स्विंग एनडीए के पक्ष में गया, तो गठबंधन दो-तिहाई बहुमत के करीब पहुँच सकता है। वहीं, महागठबंधन इसे बदलाव की बयार बता रहा है। आरजेडी नेता मीसा भारती ने कहा कि “महिलाएं अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं। रोजगार और उद्योग के मोर्चे पर बिहार पिछड़ गया है, इसलिए इस बार का उच्च मतदान बदलाव की ओर इशारा करता है।”
लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान ने 2010 का उदाहरण देते हुए कहा कि उस समय भी रेकॉर्ड वोटिंग के बाद नीतीश कुमार सत्ता में लौटे थे। उनका मानना है कि यह बार भी उच्च मतदान स्थिर नेतृत्व के पक्ष में गया है।
बिहार में दो चरणों में मतदान हुआ। पहले चरण में 65.08 प्रतिशत और दूसरे चरण में 68.76 प्रतिशत वोट पड़े। दोनों चरणों को मिलाकर कुल मतदान 66.91 प्रतिशत तक पहुँच गया, जो आज़ादी के बाद का सर्वाधिक है।
दूसरे चरण में भी महिलाओं ने पुरुषों से अधिक वोटिंग की। चुनाव आयोग के अनुसार, 1.74 करोड़ महिला मतदाताओं में से 74 प्रतिशत से अधिक ने वोट डाले, जबकि 1.95 करोड़ पुरुष मतदाताओं में से लगभग 64 प्रतिशत ने मतदान किया।
कुल मिलाकर महिलाओं का मतदान प्रतिशत 71.6 रहा, जबकि पुरुषों का 62.8 प्रतिशत। यह अंतर बिहार की लोकतांत्रिक परिपक्वता और महिलाओं की बढ़ती राजनीतिक चेतना का प्रमाण है।
हालांकि, इस उत्साहजनक मतदान के बीच एक चिंताजनक सच्चाई भी छिपी है, महिलाओं के वोट से जीतने की कोशिश तो हर दल करता है, लेकिन सत्ता में उनकी भागीदारी आज भी बेहद सीमित है।
चुनाव के दौरान महिलाओं को सम्मान देने और उनके हक़ की बात करने वाले किसी भी राजनीतिक दल ने टिकट वितरण में उदारता नहीं दिखाई। जिन महिलाओं को टिकट मिले, उनमें से अधिकांश राजनीतिक परिवारों से संबंध रखती हैं, न कि आम कार्यकर्ता या जमीनी स्तर की महिला नेता।
आंकड़ों के अनुसार, आरजेडी, भाजपा और जेडीयू , इन तीनों प्रमुख दलों ने कुल 65 महिलाओं को टिकट दिए, जिनमें से 43 उम्मीदवार राजनीतिक घरानों से हैं।
आरजेडी ने 24 महिलाओं को टिकट दिया, जिनमें 23 किसी न किसी राजनीतिक परिवार से जुड़ी हैं। भाजपा ने 13 में से 10 और जेडीयू ने 13 में से 11 टिकट ऐसे उम्मीदवारों को दिए जिनका राजनीति से पारिवारिक रिश्ता है। यानी दलों ने महिला प्रतिनिधित्व का दिखावा तो किया, लेकिन असली अवसर देने में पीछे रह गए।
नीतीश कुमार भले ही वर्षों से महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के पक्षधर रहे हों, लेकिन इस बार उनकी पार्टी भी टिकट वितरण में साहस नहीं दिखा सकी।
चुनाव प्रचार के दौरान हर दल ने महिलाओं के नाम पर घोषणाएँ कीं, उन्हें मंच पर फूलों से नवाज़ा, रैलियों में सम्मानित किया, लेकिन टिकट देने की बारी आई तो वही पुराना ‘परिवारवाद’ हावी हो गया।
यह विरोधाभास बिहार की राजनीति की गहराई को उजागर करता है, जहाँ महिला मतदाता लोकतंत्र की सबसे सक्रिय ताकत बन चुकी हैं, वहीं सत्ता की सीढ़ियों तक उनकी पहुँच अब भी सीमित है।
इस बार का चुनाव चाहे किसी के पक्ष में जाए, लेकिन एक बात तय है कि बिहार की महिलाएं अब राजनीति की दर्शक नहीं रहीं, वे निर्णायक मतदाता बन चुकी हैं।
उन्होंने साबित कर दिया है कि अब कोई भी दल उन्हें केवल “लाभार्थी” समझकर नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। जिस तरह उन्होंने बूथों तक पहुँचकर रेकॉर्ड वोटिंग की, उसी तरह आने वाले समय में वे विधानमंडल के भीतर भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने की हक़दार हैं।
बिहार का यह चुनाव न केवल सत्ता परिवर्तन का संकेत दे सकता है, बल्कि यह भी तय करेगा कि महिला सशक्तिकरण सिर्फ़ चुनावी नारा रहेगा या हक़ीक़त बनकर उभरेगा।