स्वतंत्रता के 75 वर्ष: नए भारत में जज्बाती मुद्दे छोड़ने होंगे मुसलमानों को

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 14-08-2022
स्वतंत्रता के 75 वर्ष: नए भारत में जज्बाती मुद्दे छोड़ होंगे मुसलमान को
स्वतंत्रता के 75 वर्ष: नए भारत में जज्बाती मुद्दे छोड़ होंगे मुसलमान को

 

qurbanकुरबान अली
 
15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिलने के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने एक नए हिंदुस्तान के निर्माण की बात कही थी. इससे उनका आशय एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण था जिसमें धर्म, संप्रदाय,जाति, भाषा, लिंग और क्षेत्र के आधार पर किसी तरह का शोषण न हो. देश का हर नागरिक सर ऊँचा करके जी सके. हर नागरिक के अधिकार बराबर हों.

कोई अपने आप को नंबर एक और नंबर दो का शहरी न समझे. देश शांति के साथ विकास के रास्ते पर अग्रसर हो चल सके. मजहबी नफरत के नाम पर देश का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण हो जाने के बाद ये एक बड़ी चुनौती थी कि हिंदुस्तान को एक सेक्युलर देश के रूप में न केवल अक्षुण बनाए रखा जाए,
 
वरन उसकी एकता और अखंडता भी बनाए रखी जाए. पंडित नेहरू ने इस काम को बखूबी अंजाम दिया. प्रधानमंत्री के रूप में अपने लगभग सत्रह वर्षों के कार्यकाल के दौरान उन्होंने न केवल देश में लोकतंत्र को मजबूत किया.
 
देश के सांप्रदायिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता और आपसी भाईचारे को भी मजबूती से बनाए रखा. उनके शासनकाल के दौरान 1961 में जबलपुर में हुए एक सांप्रदायिक दंगे के अलावा कोई बड़ा दंगा-फसाद नहीं हुआ.
 
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1964 में अपने निधन के बाद वह एक ऐसी विरासत छोड़कर गए जिस पर कोई भी देश नाज और गर्व कर सकता है. अफसोस की बात यह है कि पंडित नेहरू के निधन के बाद यह विरासत ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सकी. 
 
पचवर्षीय योजनाओं के साथ देश के विकास का काम शुरू हुआ और बड़ी तादाद में गरीबी दूर हुई और भारत विकास की यात्रा पर आगे बढ़ा. लेकिन समाज के अन्य दलित शोषित पिछड़े वर्गों के साथ मुसलमानो की हालत ज्यादा नहीं बदली.
 
देश के बंटवारे के समय उनकी जो हालत थी वह और खराब होती चली गई. शिक्षा के क्षेत्र में तो वह पहले से ही पिछड़े थे. भेदभाव और साम्प्रदायिक दंगों ने उनके हालात और बिगाड़ दिए. 
 
सन 2005 में देश में मुसलमानों के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक हालात का पता लगाने और उनके पिछड़ेपन के क्या कारण हैं, तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए  सरकार ने जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था.
 
सन् 2006 में इस कमेटी ने अपनी जो रिपोर्ट केंद्र सरकार को पेश की और जो संसद के पटल पर भी रखी गई वह चौंकाने वाली थी. रिपोर्ट में बताया गया कि देश में मुसलमानों के हालात देश की पिछड़ी और दलित जातियों से भी बदतर हैं.
 
उनकी सूरतेहाल बेहतर करने के लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाए जाने की जरूरत है.सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में रोजगार और शिक्षा सहित अन्य क्षेत्रों में मुसलमानों के साथ भेदभाव और उन्हें अलग-थलग रखे जाने का विस्तार से विवरण दिया गया था.
 
इस कमेटी की सिफारिशों के आधार पर केंद्र सरकार ने बड़े स्तर पर नीतियां बनाईं और उन्हें देश भर में लागू किया गया. यह जानने के लिए कि सच्चर कमेटी की सिफारिशों से मुसलमानों का कितना विकास हुआ, केंद्र सरकार ने प्रोफेसर अमिताभ कुंडू की अध्यक्षता में सितंबर 2013 में एक कमेटी का गठन किया.
 
इस कमेटी ने अक्टूबर 2014 में अपनी रिपोर्ट सरकार को दी. रिपोर्ट में कहा गया कि सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू होने के 6-7 साल बाद भी मुसलमानों के हालात में कोई खास फर्क नहीं आया है. उनके विकास के लिए कुछ और ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है. 
 
2014 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी. प्रधानमंत्री मोदी ने सब का साथ और सबका विकास का नारा दिया.
 
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इससे उम्मीद बंधी कि देश के गरीब, दलित, शोषित, पीड़ित, वंचित और समाज के हाशिए पर रहने तथा अल्पसंख्यक खासकर मुसलमानों के हालात बदलेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 
 
सन 2020 में कुछ शोधकर्ताओं ने यह जानने का प्रयास किया कि 2006 में आई सच्चर कमेटी की सिफारिशों के 14 वर्ष पूरे होने के बाद मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति में क्या बदलाव आया ? उनके द्वारा एकत्रित आंकड़े भी हैरान करने वाले हैं.
 
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मुसलमानों की जनसंख्या देश की कुल आबादी का 14 प्रतिशत है, पर लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व महज 4.9 प्रतिशत है. सिविल सेवाओं के 2019 के नतीजों में 829 सफल उम्मीदवारों में केवल 5 प्रतिशत मुसलमान थे.28 राज्यों में कोई भी पुलिस प्रमुख या मुख्य सचिव मुसलमान नहीं था.
 
सुप्रीम कोर्ट के 33 जजों में मुस्लिम समुदाय से केवल एक जज थे.आईआईटी, आईआईएम तथा एम्स की प्रशासनिक समिति में कोई भी मुसलमान नहीं था. 
 
लगभग यही स्थिति निजी क्षेत्र और सार्वजनिक क्षेत्र की श्रेष्ठ कंपनियों और मीडिया हाउस की भी थी,जहां सर्वोच्च स्तर पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व का नितांत अभाव था.
 
सन 2013 में संयुक्त राष्ट्र संस्था यूएनडीपी ने भारत में महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को रेखांकित करते हुए कहा था कि भारत में गरीब मुसलमानों की तादाद सबसे ज्यादा असम, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, और गुजरात में है.
 
हालांकि बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अपनी विचारधारा के विपरीत अल्पसंख्यक मंत्रालय सहित अल्पसंख्यक आयोग, राष्ट्रीय  वक्फ विकास निगम और अन्य कई संस्थाओं तथा अल्पसंख्यकों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं को बंद नहीं किया, लेकिन उनका कुछ ज्यादा विकास नहीं हुआ. मुसलमानों को लगता है कि उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाया जा रहा है.        

दरअसल, मुसलमानों के पिछड़ेपन के कई कारण हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण उनका अशिक्षित होना है.1877 में महान समाज सुधारक सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ में एमएओ कॉलेज की स्थापना की जो भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों के शैक्षिक स्तर को बेहतर बनाने में क्रांतिकारी कदम साबित हुआ.
 
मगर इस कॉलेज के विश्वविद्यालय (1920)  बनने के महज 27 साल बाद देश का विभाजन हो गया और पढ़े लिखे ज्यादातर मुसलमान पाकिस्तान चले गए. तबसे लेकर आजतक भारतीय मुसलमान दोराहे पर खड़ा है. 
 
भारत सरकार, राज्य सरकारों और देश के बहुसंख्यक समाज को यह समझना होगा की अगर देश का एक बड़ा वर्ग सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़ा रहेगा तो देश सही मायनों में तरक्की नहीं कर सकता.
 
शरीर का अगर कोई अंग विकसित नहीं हो पाता या विकलांग हो जाता है तो आप पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो सकते. यह बात देश के कर्णधारों और मुसलमानों दोनों को समझनी होगी. 
 
हालांकि, पंडित नेहरू की तरह अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नए भारत की बात करते हैं. इस नए भारत में भारतीय मुसलमानों को क्या करना होगा, यह उन्हें सोचना होगा.
 
भारतीय मुसलमानों को ये समझना होगा कि देश को अभी शांति और सुरक्षा की सख्त जरूरत है.भारतीय मुसलमान इस बात पर फख्र कर सकता है कि दुनिया के आतंकवादी संगठनों जैसे अलकायदा,आईएसआईएस आदि में उसकी भागेदारी नहीं के बराबर है.
 
कश्मीर में भी आतंकवादी गतिविधियों में गैर कश्मीरी भारतीय मुसलमानों की तादाद नहीं के बराबर है. इसलिए अब उसे अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगी. उसे अपने आपको शिक्षित करने के अलावा रचनात्मक कामों में भी लगना होगा.
 
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उत्तर भारत के बहुत से इलाकों में मुसलमान अपने परम्परागत पेशों में जुड़ा हुआ है.जैसे सहारनपुर में लकड़ी का काम, मुरादाबाद में पीतल का काम, अलीगढ़ में ताले, फिरोजाबाद में चूड़ी, खुर्जा में मिटटी के बर्तन, बनारस में साड़ी उद्योग.मिर्जापुर और भदोही में कालीन का काम आदि.
 
हाल ही में यह देखने में आया है कि मुसलमानों के बच्चे जो उच्च शिक्षा के लिए विदेश या अन्य शहरों के बड़े कॉलिजों में गए थे एमबीए, इंजीनयरिंग या डॉक्टरी की पढ़ाई करने के बाद भी अपने पुश्तैनी व्यवसाय से जुड़कर लाखों और करोड़ों कमा रहे हैं.
 
इसलिए उन्हें अपने पुश्तैनी काम धंधे पर ध्यान देना होगा. उन्हें वैज्ञानिक ढंग से नई  तकनीक का इस्तेमाल करके विकसित करना होगा. भारतीय मुसलमानों को यह भी सोचना होगा कि है वह जज्बाती मुद्दे छोड़कर अपने भविष्य और आने वाली अपनी नस्लों के भविष्य के बारे में ऐसे मनसूबे बनाए जिससे वह शिक्षित होने के साथ एक अच्छा नागरिक भी बन सकें. 

बहुत सारे इस्लामी और तीसरी दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले भारतीय मुसलमान काफी बेहतर स्थिति में हैं.उन्हें इस स्थिति का फायदा उठाते हुए संवैधानिक और कानूनी तरीकों से अपने हित की बात करनी चाहिए.
 
साथ ही उसे अपने राजनीतिक आकाओं से यह सवाल करते रहना चाहिए कि वह पिछड़ा क्यों है और उसके पिछड़ेपन को क्यों दूर नहीं किया जाता? क्यों उन्हें समाज के अन्य वर्गों की तरह शिक्षा और रोजगार के अवसर नहीं दिए जाते ?
 
क्यों उनके साथ भेदभाव किया जाता है? क्यों उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बना कर रखा जाता है और क्यों उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से बाहर रखा जाता है?
 
 
इसके अलावा भारतीय मुसलमानों को यह भी सोचना होगा कि वह केवल अपने समाज के नेताओं या मुसलमानों के नाम पर बनाए गए दलों का समर्थन करके अपने हितों की लड़ाई नहीं लड़ सकते. उसे उन सारे दलों का समर्थन करना चाहिए जिन्हें इस देश का बहुसंख्यक समर्थन करता रहा है. 
 
साथ ही मौजूदा सत्ताधारी शासकों को भी यह समझना चाहिए कि 400 सांसदों की पार्टी में एक भी मुसलमान सांसद या मंत्री क्यों नहीं है? भारत को अपनी आजादी के सौ वें वर्ष में अगर एक विकसित, समृद्घ और बड़ी ताकत के रूप में बनकर खड़ा होना है तो सबका साथ और सबका विकास के नारे को अमली जामा पहनाना होगा,ताकि समाज का कोई हिस्सा पिछड़ा और गरीब न रहने पाए.
 
समाज के हर वर्ग को हर शोबे में बराबर की हिस्सेदारी हो.अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों को भी ये देखना और समझना होगा कि उनके मुकाबले देश का ईसाई, सिख, जैन, पारसी समुदाय क्यों समृद्ध और संपन्न है.    
 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और लंबे समय तक बीबीसी से जुड़े रहे. )
 
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