विश्व स्तनपान सप्ताहः मां के दूध का रिश्ता कहीं कमजोर तो नहीं पड़ रहा है ?

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 01-08-2021
मां के दूध जैसा कुछ भी नहीं
मां के दूध जैसा कुछ भी नहीं

 

समी अहमद

हमारे सामाजिक जीवन में दूध का रिश्ता एक ऐसा रिश्ता है, जो जन्म से शुरू होता है, लेकिन दुनिया में इस रिश्ते को कायम करने और रखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ रही है. यह बाजार में बिकने वाले दूध की बात नहीं, बल्कि मां के अमूल्य दूध की बात है. इस बात की याद हर साल एक अगस्त से सात अगस्त तक मनाये जाने वाले विश्व स्तनपान सप्ताह से आती है.

तकनीकी रूप से इसे ब्रेस्ट फीडिंग या स्तनपान कहा जाता है, लेकिन मानवीय परंपरा के रूप में देखा जाए, तो यह वास्तव में मां का दूध है. जो बात मां का दूध कहने में है, वह स्तनपान में नहीं है. हिन्दी पट्टी में अक्सर चुनौती देने के लिए कहा जाता है कि अगर मां का दूध पिया है, तो मुकाबला करो.

मां के दूध का महत्व इस बात से भी समझना चाहिए कि कई समाज में दूध के रिश्ते को जन्म के रिश्ते के बराबर समझा जाता है. इस बात को समझने के लिए यह बात याद रखनी होगी कि कई बार किसी प्रसूता को दूध नहीं उतरता है, तो उसके बच्चे को किसी रिश्तेदार या पड़ोसी धात्री का दूध दिया जाता है. यह रिश्ता सहोदर जैसा ही माना जाता है. उर्दू में इसीलिए बहन के लिए हमशीरा जैसे शब्द का भी इस्तेमाल होता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है एक ही मां से दूध पी हुई.

स्तनपान का तकनीकी महत्व इस बात को लेकर है कि पहले जहां मां का दूध अपने बच्चे के लिए ही होता था, पिछले कुछ सालों से इसका भी बाजारीकरण होने लगा है. यह एक गंभीर चिंता का विषय माना जा रहा है. बाजार में ऐसी कंपनियों आ चुकी हैं, जो कम आमदनी वाली मांओं से दूध खरीद कर उसकी मार्केटिंग के धंधे में लगी हैं.

अफ्रीकी देशों मं ऐसी शिकायतें मिलती रही हैं, जिसका महिला अधिकार के लिए लड़ने वालों ने काफी विरोध किया है. एक उदाहरण बांग्लादेश का भी है, जहां मां के दूध को पाश्चयूराइज करने की तकनीक को बढ़ावा दिया जा रहा है, ताकि धात्रियों से लंबी शिफ्ट में काम लिया जा सके. इसी तरह भारत में कर्नाटक में ऐसी फर्म है, जो मानव दुग्ध से बना शिशु आहार बनाने में लगी है. ऐसी तकनीकों से मां और बच्चे का जो भावनात्मक लगाव होता वह खतरे में पड़ता है.

बीपीएनआई या ब्रेस्टफीडिंग प्रमोशन नेटवर्क ऑफ इंडिया के मुताबिक इस सप्ताह का उद्देश्य यह है कि डिब्बाबंद दूध और दूध पिलाने के लिए बोतल बनाने वाली कम्पनियों के गलत व्यवहार के बारे में जागरुकता फैलायी जाए. साथ ही आईएमएस एक्ट को सही तरीके से लागू करवाना है. आईएमएस एक्ट नवजातों के लिए दूध की जगह बिकने वाले उत्पादों, दूध पिलाने के लिए बनने वाली बोतलों और नवजातों के आहार के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण के नियम निर्धारित करता है. इसे 1992 में बनाया गया और 2003 में इसमें संशोधन हुआ.

इस एक्ट के तहत इस बात को अपराध करार दिया गया है कि दो साल तक के बच्चों के लिए कोई विशेष खाद्य पदार्थ बनाकर बेचा जाए. इसी तरह डिब्बाबंद दूध, दूध पिलाने वाली बोतल और शिशु आहार का कोई विज्ञापन टीवी, अखबार अया अन्य माध्यम से दिखाना भी प्रतिबन्धित है.

दुनिया में मां के दूध पिलाने को तीन तरीके से देखा जाता है. पहला कि बच्चे के जन्म के एक घंटे के अन्दर उसे मां का दूध दिया जाता है या नहीं, जिसे शीघ्र शुरुआत की श्रेणी में रखा जाता है. दूसरा है पूरी तरह मां के दूध पर निर्भरता जिसे एकमात्र स्तनपान की श्रेणी में रखा जाता है. तीसरा तरीका है मां और बाहर का दूध मिलाकर बच्चे को देने की श्रेणी जिसे पूरक श्रेणी मे रखा जाता है. मजबूरी को छोड़कर एक और स्थिति यह भी होती है, जिसमें बच्चे को मां का दूध बिल्कुल ही नहीं दिया जाता और वे सिर्फ बाहरी दूध पर निर्भर होते हैं.

मगर भारत में इस मां के दूध का क्या हाल है? भारत के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक भारत में सिर्फ 51 प्रतिशत बच्चों को मां का दूध जन्म के एक घंटे से मिलने लगता है, जबकि डॉक्टर इसे बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं. सिर्फ मां के दूध पर निर्भर रहने वाले बच्चों का प्रतिशत करीब 61 है.

बीपीएनआई के अनुसार मां का दूध न सिर्फ बच्चों के लिए जरूरी है, बल्कि बच्चों को दूध पिलाने से मां की सेहत भी बनी रहती है. यहां इस बात की चर्चा जरूरी है कि बहुत से मांओं में दूध पिलाने से फिगर बिड़ने की भ्रांति होती है, जबकि यह उनके अपने स्वास्थ्य के लिए ही अत्यंत महत्वपूर्ण होता है. विशेषज्ञ बताते हैं कि स्तनपान न कराने से स्तन कैंसर का खतरा भी अधिक हो जाता है.

मां के दूध के बारे में याद रखने की महत्वपूर्ण बात यह है कि छह माह तक सिर्फ मां का दूध ही बच्चों के पचने के लायक होता है. इसके बाद पूरक आहार के साथ दो साल तक बच्चों को मां का दूध दिया जाना चाहिए.

ऐसे में यह सवाल उठता है कि आज की कामकजी महिलाएं कैसे बच्चों को दूध पिलाएं. इस सप्ताह में यह प्रयास भी किया जाता है कि कार्यस्थलों- जैसे दफ्तरों, स्कूलों और अन्य जगहों पर धात्री यानी दूध पिलाने वाली महिलाओं के लिए सहयोग का माहौल बनाया जाए. इसके अलावा मातृत्व अवकाश लाभ दिलाने का प्रयास भी किया जाता है, जो सरकारी दफ्तरों में तो मिल जाता है, लेकिन प्राइवेट नौकरियों में यह मुश्किल से और कम दिनों के लिए मिल पाता है.

यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक आईएमएस एक्ट के रहते यूट्यूब चौनल, इंस्टाग्राम और अन्य माध्यमों से डिब्बाबंद दूध का प्रचार किया जाता है. हालांकि बीपीएनआई ने ऐसे महज 33 मामलों को दर्ज कराया है. कई ऑनलाइन पोर्टल भी शिशु आहार का प्रचार और विक्रय करते हैं.

भारत में मां का दूध पिलाने में कमी के कई कारण हैं. इनमें तो एक तरफ प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों की कमी है, तो दूसरी ओर डिब्बाबंद दूध का बेरोकटोक प्रचार-प्रसार है. बड़ी संख्या में माएं असंगठित क्षेत्र में काम करती हैं और उन्हें मातृत्व अवकाश नहीं मिल पाता जिस कारण बच्चों को दूध पिलाना मुश्किल होता है. इसके अलावा कार्यस्थलों पर पालने जैसी व्यवस्था का न होना भी एक महत्वपूर्ण कारण माना जाता है. एक और महत्वपूर्ण कारण यह बताया जाता है कि तेजी से बढ़ते सिजेरियन ऑपरेशन के कारण बच्चों को जन्म के कई दिनों तक मां से दूर रख जाता है और इस कारण उन्हें मां का दूध नहीं मिल पाता है. 

ऐसे में जरूरी है कि सरकार और सामाजिक संगठन मां का दूध पिलाने की परंपरा को बढ़ावा देने और आईएमएस एक्ट को लागू करवाने में अपना योदान करें. एक मोबाइल ऐप भी बनाया गया है, उसका इस्तेमाल करवाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. सामाजिक संगठन सोशल मीडिया पर मां के दूध की अहमियत बताने के लिए पोस्ट करें.