कुरबान अली
अमेरिकी इंटेलिजेंस एजेंसियों और रक्षा अधिकारियों का कहना है कि तालिबान, अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को 30 दिनों के भीतर अलग-थलग कर पूरे देश को 90 दिनों में अपने कब्जे में कर लेगा. समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने अमेरिकी अधिकारियों के हवाले से यह खबर 11 अगस्त को दी है.
इस साल 31 अगस्त को अफगानिस्तान में अमेरिका का सैन्य मिशन 20 सालों बाद पूरी तरह से खत्म हो जाएगा.फरवरी 2020 में दोहा में दस्तखत किए गए यूएस-तालिबान समझौते के अनुसार, सभी विदेशी सेनाओं को 1 मई 2021 तक अफगानिस्तान छोड़ना था, लेकिन अप्रैल के मध्य में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने घोषणा की कि ये प्रक्रिया 11 सितंबर से पहले पूरी नहीं हो पाएगी.
इस बीच मई की शुरुआत में अफगानिस्तान से विदेशी सैनिकों की वापसी शुरू हुई थी. तभी से पूरे अफगानिस्तान में तालिबान का दबदबा बढ़ने लगा. एक प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द लॉन्ग वॉर जर्नल‘ के अनुसार, देश के 407 जिला केंद्रों में से 195 से अधिक जुलाई के पहले सप्ताह तक पूरी तरह से तालिबान के नियंत्रण में थे, जबकि मई से पहले केवल 73 जिलों में तालिबान का नियंत्रण था.
देश के 34 प्रांतों में से कई की राजधानियों पर सरकारी नियंत्रण खत्म हो चुका है, जिससे यह डर पैदा हो रहा है कि जल्द ही तालिबान सैन्य रूप से पूरे देश की सत्ता पर काबिज हो जाएगा.
पिछले सप्ताह तालिबान ने उत्तर-पूर्वी प्रांत बदख्शां प्रांत की राजधानी फैजाबाद को अपने कब्जे में लिया.
इस तरह तालिबान ने पिछले कुछ दिनों में नौ प्रांतीय राजधानियों को अपने नियंत्रण में कर लिया है. तालिबान की इस तेज रफ्तार से अमेरिकी अधिकारी हैरान हैं. ईयू के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि इस समय तालिबान के नियंत्रण में 65 फीसदी अफगानिस्तान है और 11 प्रांतीय राजधानियों को या तो वह अपने नियंत्रण में ले चुका है या ये राजधानियां नियंत्रण में आने वाली हैं.
वहीं अमेरिकी अधिकारियों का कहना है कि तालिबान अफगानिस्तान में तेजी से सत्ता पर नियंत्रण की ओर बढ़ रहा है.जबकि तालिबान का दावा कि उसने अफगानिस्तान के 80 फीसदी हिस्से पर कब्जा कर लिया है.
कई महीनों पहले स्थानीय पर्यवेक्षकों ने चेतावनी दी थी कि अगर अफगान सरकार और तालिबान के बीच राजनीतिक समझौता होने से पहले विदेशी सेनाएं वापस चली जाती हैं, तो यह संघर्ष और तेज हो जाएगा.पर्यवेक्षकों का कहना है कि यदि अमेरिकी इस तरह से अफगानिस्तान छोड़ देते हैं, तो तालिबान और अफगानिस्तान में सुरक्षा बलों के बीच एक बहुत ही खतरनाक और व्यापक युद्ध शुरू हो जाएगा.
अफगान सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हमदुल्ला मोहिब ने तालिबान की सफलता का श्रेय अफगान बलों के लिए हवाई समर्थन की कमी होना बताया है. उनका कहना है कि ‘‘कुछ क्षेत्रों से अमेरिकियों की अचानक वापसी के कारण, दूरदराज के जिलों में जहां अफगान सेना, गठबंधन बलों के हवाई समर्थन पर निर्भर थी, उन्हें या तो खाली कर दिया है या वो तालिबान के हाथों में चले गए है.‘‘
पर्यवेक्षकों का कहना है कि अमेरिका के नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय सेना के पीछे हटने की शुरुआत तालिबान को मिलते क्षेत्रीय लाभ का मुख्य कारण प्रतीत होती है, लेकिन इसके पीछे कई दूसरे कारण भी हैं.
सैद्धाांतिक तौर पर, 1,50,000 के करीब तालिबान लड़ाकों और लगभग 290,000 अमेरिकी-प्रशिक्षित सरकारी समर्थन वाले सुरक्षाबलों के बीच कोई मुकाबला था ही नहीं. लेकिन यह समूह बड़े पैमाने पर क्षेत्र पर कब्जा करने में सक्षम रहा है, क्योंकि सरकारी सुरक्षाबल या तो जिला मुख्यालय से पीछे हट गए, अपने पदों को छोड़ दिया या बिना विरोध के आगे बढ़ते चरमपंथियों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.
यह आरोप भी लगाया गया है कि कई मामलों में वरिष्ठ कबायली नेताओं और अन्य स्थानीय प्रभावशाली लोगों ने सरकारी सैनिकों को माफी के बदले तालिबान को अपने क्षेत्र देने लिए राजी किया.दक्षिणी कंधार प्रांत की राजधानी कंधार शहर में तालिबान चरमपंथियों के प्रवेश करने के बाद, गवर्नर रोहुल्लाह खानजादा ने कहा कि राजनेताओं ने सैनिकों से लड़ाई न करने का आग्रह किया था.
खानजादा ने कहा, ‘‘कंधार शहर सैन्य रूप से तालिबान के नियंत्रण में नहीं गया है, यह एक राजनीतिक समर्पण है.‘‘ एक स्थानीय अखबार ‘हश्त-ए शोभ‘ के मुताबिक, कई अधिकारियों ने ‘‘राजनीतिक और कबायली संबधों‘‘ के कारण अपना ठिकाना छोड़ दिया था.
उत्तर-पश्चिमी बदगीस प्रांत में गवर्नर ने जिलों के तालिबान के हाथ में चले जाने के लिए ‘‘विश्वासघाती साजिश‘‘ को जिम्मेदार ठहराया है. इससे पहले उप-राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह ने कथित तौर पर बदगिस के सांसद अमीर शाह नायब जादा पर प्रांतीय राजधानी काला-ए-नव में सैनिकों को तालिबान के सामने आत्मसमर्पण करने के लिए कहने का आरोप लगाया था.
सांसद ने इस आरोप से इनकार किया और बाद में सरकारी सैन्य बलों ने शहर पर फिर से कब्जा कर लिया. तालिबान लड़ाकों ने युद्ध के मैदान में अपनी काबिलियत का परिचय तो दिया ही, मुमकिन है कि सरकार विरोधी साजिश के प्रचार ने भी उनकी सफलता में योगदान दिया है.
मोहिब ने हाल ही में कहा था, ‘‘काफी हद तक, तालिबान का प्रचार (जिलों के नियंत्रण में चले जाने के) कारणों में से एक रहा है.” उन्होंने कहा कि इस तरह के संदेश के कारण कुछ सुरक्षाकर्मी और स्थानीय लोग यह मानने लगे थे कि एक ‘‘सौदे‘‘ के तहत क्षेत्र तालिबान को सौंपे गए थे. मुमकिन है कि इससे सैनिकों के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा हो.
उधर, एक अफगान सांसद मामूर रहमत जई ने आरोप लगाया कि पर्दे के पीछे के समझौते के तहत जिलों पर कब्जा होने दिया गया.एक अखबार ‘अरमान-ए मेली‘ में यह दावा किया गया है कि दोहा में वार्ता के दौरान यह सहमति हुई थी कि कुछ क्षेत्रों को तालिबान को सौंप दिया जाएगा, और बदले में ‘‘अमेरिकी कंपनियों को अफगानिस्तान के खनिज संसाधन निकालने की अनुमति मिलेगी.‘‘
अखबार के मुताबिक, ‘‘गनी की टीम विदेशियों के आदेश पर देश को तालिबान के सामने आत्मसमर्पण करने का इरादा रखती है. यही कारण है कि राष्ट्रपति तालिबान से लड़ने के लिए सार्वजनिक विद्रोह बल के गठन के खिलाफ रहे हैं.‘‘ मगर राष्ट्रपति गनी ने यह कहते हुए इस तरह के आरोपों को खारिज कर दिया है कि ‘‘कोई सौदा नहीं हुआ है और ना किसी भी तरह के सौदे का कोई इरादा नहीं है.‘‘
यह भी कहा जा रहा है कि स्थानीय पुलिस या सेना के बैनर तले सरकार समर्थक मिलिशिया बलों की भर्ती में भ्रष्टाचार ने भी तालिबान की सफलता में योगदान दिया है.कुछ पर्यवेक्षकों ने तर्क दिया कि ‘‘अक्षम नेतृत्व‘‘ सरकारी बलों के नुकसान के लिए जिम्मेदार था.
सैन्य विशेषज्ञ मोहम्मद नादर मेमार ने कहा, ‘‘हमारे सुरक्षा नेतृत्व को अक्षम व्यक्ति संचालित कर रहे हैं, जो प्रोफेशनल नहीं हैं. दूसरी ओर यूएस-तालिबान समझौते के तहत अफगान जेलों से 5,000 तालिबान लड़ाकों की रिहाई ने भी इस समूह की सैन्य क्षमता को बढ़ाया है.
अफगान राष्ट्रपति ने हाल ही में कहा था कि तालिबान कैदियों को रिहा करना ‘‘एक बड़ी गलती‘‘ थी.गनी ने यह भी दावा किया है कि हाल के हफ्तों में हजारों विदेशी लड़ाके इस समूह में शामिल हुए हैं. एक शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने ताशकंद में कहा था कि खुुफिया इनपुट ‘‘पिछले महीने पाकिस्तान और अन्य स्थानों से 10,000 से अधिक जिहादी लड़ाकों के आने का संकेत देता है.
इसके अलावा, तालिबान ने हाल के वर्षों में अपने समर्थन का विस्तार किया है. 1990 के दशक के अंत में तालिबान ने पहले दक्षिण में अपनी स्थिति मजबूत की जहां पश्तून रहते हैं और फिर ताजिक और उज्बेक की आबादी वाले उत्तर की ओर आगे बढ़े.लेकिन आज देश भर के समूहों के बीच उनका प्रभाव है और उन्हें समर्थन हासिल है. अब हर गांव और इलाके में मौजूद हर जातीय समूह में सैकड़ों और हजारों सशस्त्र मुजाहिदीन (तालिबानी) हैं.”
संयुक्त राष्ट्र के एक वरिष्ठ अधिकारी ने अफगानिस्तान में चल रहे युद्ध को तत्काल समाप्त करने का आह्वान करते हुए कहा है कि यदि मौजूदा संकट का जल्द समाधान नहीं तलाश किया गया तो बड़ी संख्या में लोग विस्थापित होंगे.
संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी मामलों की संस्था यूएनएचसीआर ने अफगानिस्तान में चल रही लड़ाई की वजह से विस्थापित हो रहे लोगों की बढ़ती संख्या पर चिंता जाहिर करते हुए कहा है कि अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर हो रहा विस्थापन राजनीतिक कारणों से हो रहा है और इसे रोका जाना चाहिए.दूसरी तरफ अफगानिस्तान के शरणार्थी मंत्रालय का कहना है कि आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की संख्या पिछले साल की तुलना में इस साल दोगुनी हो गई है.
मंत्रालय का कहना है कि पिछले छह महीनों में करीब दो लाख लोग अपने घरों से भागने को मजबूर हुए हैं.बहरहाल, अफगानिस्तान में फिलहाल हालात बहुत ही खराब है.गृह युद्ध शुरू हो चुका है.
बड़ी तादाद में लोग विस्थापित हो रहे हैं और इनमें सबसे ज्यादा बुरी हालत बुजुर्ग, महिलाओं और बच्चों की है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए की वह फौरन वहां संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं जैसे रेड क्रॉस और मानवाधिकार संगठनों की मदद से उन लोगों को राहत और पुनर्वास का इंतजाम करें जो इस गृह युद्ध से प्रभावित हुए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और बीबीसी में रहते हुए अफगान और इराक युद्ध कवर कर चुके हैं )