प्रो. अख्तरुल वासे
नफरत से भरे आज के माहौल में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो भारत की शान हैं. राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सद्भाव और गंगा-जमुनी तहजीब की जीती-जागती, चलती-फिरती मिसाल हैं. आइए! आज इनलोगों को याद करें. उनके काम की तारीफ करें और खुद से वादा करें कि हम उन्हीं के रास्ते पर चलेंगे.
बात दूर से क्यों शुरू करें? 13 जुलाई को बरेली के शिकारपुर चौधरी नामक कस्बे के लोगों ने खासकर इस्लाम और राशिद खान नाम के दो मुसलमानों ने सांप्रदायिक सौहार्द की एक मिसाल पेश की. कांवड़ियों की यात्रा आसानी से निकल सके और शिव-भक्तों को कोई परेशानी न हो, इसके लिए इन दोनों मुसलमानों ने अपने खेत का एक हिस्सा दान करते हुए कहा कि ‘‘इसपर पक्की सड़क बना दो, जिससे कांवड़ियों को भी परेशानी नहीं होगी और आम दिनों में भी गांववालों को गुजरने के लिए रास्ता मिल जाएगा.’’
जब गांव के कुछ लोगों ने जमीन के बदले पैसे देने की पेशकश की तो इस्लाम और रशीद खां मुस्कुराए और कहा ‘‘ये पैसे लेकर कहां जाएंगे. इस गांव में तो सब कुछ है. एकदूसरे की खुशियां बढ़ती रहें, यही हमारे लिए सबसे बड़ी दौलत है.’’
लगभग ढाई हजार की आबादी वाले इस कस्बे में मुसलमान बहुसंख्यक हैं. मुसलमानों ने यह सब कुछ बिना किसी दबाव और बोझ के हंसी-खुशी से संभव कर दिखाया. अफसोस की बात यह है कि हमारी तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया ने इसको वह स्थान नहीं दिया जो उन्हें मिलना चाहिए था.
इसी तरह महाराष्ट्र के औरंगाबाद में छोटा पंढरपुर नाम का एक कस्बा है, जिसमें हिंदू-मुसलमान हमेशा से मेल-मिलाप से रहते हैं. एक ऐसे शहर में जहां कभी किसी सांप्रदायिक तनाव का अनुभव नहीं हुआ, पंढरपुर में विट्ठल रुक्मिणी नामक एक प्राचीन मंदिर भी है, जो आषाढ़ी एकादशी के अवसर पर पूरे मराठवाड़ा से लाखों की संख्या में भक्त आते हैं. गांव में मेला लगता है.
शायद यह पहला मौका है जब इस कस्बे में एकादशी और ईदुल-अज्हा एक ही दिन मनाए जाने थे, लेकिन आषाढ़ी एकादशी की वजह से अपने गैर-मुस्लिम भाईयों की भावनाओं एवं जज्बात का सम्मान करते हुए यहां के मुसलमानों ने फैसला किया कि चूंकि ईदुल-अज्हा की कुर्बानी अगले दिन भी हो सकती है, इसलिए आज सिर्फ ईद की नमाज पढ़ी जाए और कुर्बानी अगले दिन तक टाल दी जाए. इस फैसले पर हिंदू समुदाय के लोगों ने खुशी जाहिर की और इसे स्वागतयोग्य कदम बताया.
स्थानीय हिंदुओं का कहना है कि ईद-उल-अजहा की 10 तारीख को कुर्बानी से परहेज कर मुसलमानों द्वारा लिए गए फैसले और आपसी भाईचारे और आपसी सम्मान की जो मिसाल कायम की है, उसकी तारीफ की जानी चाहिए क्योंकि देश को आपसी एकता की आज जितनी जरूरत है, उसके लिए यह कदम बहुत ही स्वागतयोग्य है. छोटा पंढरपुर के मुसलमानों ने पूरे देश को यही संदेश दिया है.
इसी तरह उत्तराखंड के काशीपुर की दो हिंदू बहनें अनीता और सरोज ने अपने पिता लाला बृजनंदन रस्तोगी की मृत्यु के बीस साल बाद, जब उन्हें पता चला कि उनके पिता ईदगाह के विस्तार के लिए अपने मुस्लिम भाइयों को कुछ जमीन देना चाहते थे तो उन्होंने अपने भाई राकेश से आपसी सलाह-मशविरा कर उनकी इच्छा पूरी करते हुए ईदगाह के विस्तार के लिए स्थानीय मुसलमानों को एक करोड़ रुपये से अधिक की जमीन सौंप दी.
काशीपुर के मुसलमानों ने इस धर्मार्थ दान के बाद कहा कि ‘‘रस्तोगी जी बड़े दिल वाले व्यक्ति थे. जब तक वे जीवित थे, मुसलमानों के हर धार्मिक त्योहार के अवसर पर दान देते रहे.’’ यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि यह ईदगाह सिखों के एक गुरुद्वारे और हिंदुओं के एक मंदिर के बीच स्थित है, लेकिन आज तक कोई विवाद नहीं हुआ. काश! बेंगलुरू की ईदगाह पर विवाद खड़ा करनेवाले लाला बृजनंदन रस्तोगी, उनकी बेटियों अनीता, सरोज और उनके बेटे राकेश से कुछ सीख सकें. दोनों बहनों के इस नेक काम की उत्तराखंड के काशीपुर क्षेत्र में खूब तारीफ हो रही है.
इसी तरह, बिहार के पूर्वी चंपारण में इश्तियाक अहमद खान नाम के एक मुसलमान ने अपनी 30 एकड़ खेती की जमीन में से ढ़ाई करोड़ रूपये की कीमत वाली जमीन के सरियानामी कस्बे में स्थित विराट रामायण मंदिर के लिए दे दी.
उनका कहना है कि ‘‘जब मुझे पता चला कि दुनिया के सबसे बड़े रामायण मंदिर के निर्माण के लिए पांच सौ करोड़ रूपये का प्रोजेक्ट है, लेकिन जमीन की बढ़ती हुई कीमतों की वजह से ट्रस्ट वाले पूरी तरह से जमीन नहीं खरीद पा रहे हैं, इसलिए मैंने अपनी जमीन दान करने का फैसला किया.’’
यहां यह भी ज्ञात होना चाहिए कि इश्तियाक अहमद खान के रिश्तेदारों ने पहले ही बहुत सस्ते दामों पर साठ एकड़ जमीन दे दी थी और ट्रस्ट के पास 103 एकड़ जमीन हो गई थी तथा अभी भी लगभग बीस एकड़ जमीन की आवश्यकता थी.
महावीर मंदिर ट्रस्ट के सचिव औ रपूर्व आईपीएस अधिकारी किशोर कुणाल ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि जब जमीन की कीमत चार लाख कट्ठा है, उस समय इश्तियाक अहमद खान द्वारा जमीन को दान करना बड़ी बात है. उन्होंने इस बात पर खुशी जताई कि स्थानीय मुसलमानों ने अपनी जमीनें 25 हजार से 60 हजार कट्ठा के हिसाब से ट्रस्ट को सौंप दीं. गौरतलब है कि यह मंदिर अयोध्या से जनकपुर रामजानकी पथ पर स्थित होगा. यहां से गुजरने वाले राम और सीता के भक्त इस विराट रामायण मंदिर में पूजा करने के लिए आएंगे और इश्तियाक अहमद खान और अन्य स्थानीय मुसलमानों के धार्मिक सहिष्णुता को याद रखेंगे.
देखा जाए तो भारत में यह कोई नई बात नहीं है. इसी मिलन से ही भारत की अंतरात्मा का विकास हुआ है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय फिल्मों का सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय भजन, बैजू बावरा फिल्म का ‘‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’’ शकील बदायूनी द्वारा लिखा गया था, जिसे नौशाद अली ने संगीत दिया था. मुहम्मद रफी ने अपनी मधुर आवाज से इसे अमर बना दिया. इसी तरह फिल्म‘ ‘मुगल-ए-आजम’’ में ‘‘बेकस पे करम कीजिए सरकार-ए-मदीना’’ लता (ताई) मंगेशकर ने गाया था.
पता नहीं आज किसकी नजर हमारी सहनशीलता, साम्प्रदायिक और धार्मिक सद्भाव को लग गई है. हम उसी डाली को काटने पर तुले हैं जिसपर हम बैठे हैं. हम यह भूल जाते हैं कि अल्लामा इकबाल के अनुसारः
शक्ति भी शांति भी भगतों के गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ति प्रीत में है
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.)