सियासी दलों नहीं, प्रधानमंत्रियों के नजरिए से आजादी के बाद की राजनीति पर निगाह

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 1 Years ago
देश के प्रधानमंत्रियों के कामकाज पर नजर
देश के प्रधानमंत्रियों के कामकाज पर नजर

 

शेखर अय्यर

भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के 75वर्ष पूरे हो रहे हैं,तो कोई भी यह सोच सकता है कि इतने वर्षों में हमारी राजनैतिक व्यवस्था में क्या बदलाव आया है. क्या हमारे राजनैतिक दलों का लोगों के हित में अच्छा और बुरा आचरण पर निगाह डाली जाए या इन पार्टियों में शुरू से ही बतौर नेता उभरने वाले प्रधानमंत्रियों का काम अहम है?

एक मसल है कि परिस्थितियां पुरुषों को बनाती हैं लेकिन पुरुष भी ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हैं जो समाज की समस्याओं का समाधान सुझाती है. इसी तरह हमारे राजनैतिक नेता भी हैं.

उनकी कहानी भी लोगों की जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं से उनकी आकांक्षाओं के लिए रास्ते तलाशने की खोज की कहानी है. वे नेता जिन्होंने अपने समय की पुकार की आवाज सुनी और अपने पीछे ऐसी विरासत छोड़ गए जो आज भी अमूल्य हैं.

जवाहरलाल नेहरूमहात्मा गांधी की इच्छा के अनुसार हमारे पहले प्रधानमंत्री थे. नेहरूने 1947से 1964तक 17वर्षों तक शासन किया. उन्हें एक ऐसे नवजात राष्ट्र की कठिनाइयों का प्रबंधन करने में भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिसे विभाजन के कारण अपनी जनता के गहरे दर्द से उबरना था.

निवर्तमान शासकों द्वारा छोड़े गए अल्प संसाधनों और लाखों भूखे लोगों की पीड़ा के बीच फंसे नेहरू ने शासन का एक मॉडल पेश किया जिसने भारत के संसदीय लोकतंत्र को पोषित करने की ओर कदम बढ़ाया. उनकी दृष्टि में, यह एक मिश्रित अर्थव्यवस्था, आधुनिक कृषि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रसार और आवश्यक बुनियादी ढांचे के माध्यम से होना था.

नेहरू को उनके प्रशंसकों द्वारा एक राजनेता जैसे दृष्टिकोण के रूप में देखा गया था, क्योंकि उन्होंने एक ऐसी दुनिया के लिए अपने तरीके से प्रतिक्रिया दी थी जो द्वितीय विश्व युद्ध से उबर रही थी.

जब वे विभाजन के दागों से जूझ रहे थे, नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता की हमारी समझ को इस उम्मीद में बढ़ाने की कोशिश की कि यह भारतीयों को समुदायों के बीच और उनके बीच अलगाव और अलगाव की भावना को दूर करने में मदद करेगी.

लेकिन धर्मनिरपेक्षता एक राजनैतिक अवधारणा के रूप में आज भी लोगों को विभिन्न व्याख्याओं के साथ भ्रमित कर रही है, भले ही उन्हें विरासत में ऐसी परंपरा मिली हो जो सभी धर्मों का सम्मान करती हो. लेकिन एक राजनैतिक विचार के रूप में, यह एक ऐसा जरिया था जिसकी उन लोगों को बहुत कम समझ थी-जैसा कि बाद के समय में साबित भी हुआ.

हालांकि, नेहरू की सरकार में दिग्गजों और प्रतिभाशाली लोगों की कोई कमी नहीं थी लेकिन अहम फैसलों पर नेहरू के व्यक्तित्व और वैचारिक झुकाव की स्पष्ट छाप थी. जिनकी आज तक प्रशंसकों और आलोचकों द्वारा समान रूप से प्रशंसा या आलोचना की जाती है.

उनके बाद, लाल बहादुर शास्त्री केवल 18महीने के लिए पद पर थे, 1966में सुदूर ताशकंद में उनका निधन हो गया. लेकिन अपने संक्षिप्त कार्यकाल में वे यह दिखाने में कामयाब रहे कि एक गैर-नेहरू परिवार का नेता क्या कर सकता है.

एक साधारण नेता, जिसकी ग्रामीण गरीबों की समझ उनके कुलीन पूर्ववर्ती की तुलना में व्यापक थी, शास्त्री अपने कार्यालय में शासन का गहरा ज्ञान लेकर आए. उन्होंने नेहरू की मृत्यु से पहले विदेश मामलों, गृह और रेल मंत्री के रूप में कार्य किया था.

शास्त्री ने भारत की कृषि में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया, हरित और श्वेत क्रांतियों की शुरुआत की और देश को दुनिया की भूख को पूरा करने के लिए प्रमुख खाद्यान्न उत्पादकों में से एक के रूप में उभरने की नींव रखी. उनकी सबसे बड़ी चुनौती 1965में भारत-पाकिस्तान युद्ध के रूप में आई, जो ताशकंद समझौते के साथ समाप्त हुआ. लेकिन युद्ध के कारण हुए तनाव ने शायद उनकी जान भी ले ली.

शास्त्री के आकस्मिक निधन ने सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के भीतर भारत की पहली तीव्र प्रतिद्वंद्विता देखी. जैसा कि नेहरू के वफादारों ने इंदिरा गांधी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा था, जिसका प्रधानमंत्री के पद पर कब्जा करने का समय आ गया था. लेकिन पुराने दिग्गजों के सिंडिकेट के लिएइस कमउम्र महिला का पदभार संभालना रास नहीं आया था. वह सिर्फ 49 वर्ष की थी.

उनका फायदा सिर्फ नेहरू की बेटी नहीं बल्कि उनके प्रमुख अनौपचारिक सहयोगियों में से एक होने में था, जिन्होंने कई चीजों को करीब से देखा और जिन्होंने उनके कार्यकाल के अधिकांश भाग के लिए उनके प्रधानमंत्रित्व के दौरान उनके साथ मिलकर काम किया. उन्हें पार्टी द्वारा मोरारजी देसाई जैसे वरिष्ठ नेताओं पर तरजीह देते हुए शास्त्री की जगह लेने के लिए चुना गया था. उन्हें शीर्ष पर पहुंचाने का श्रेय कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज जाता है.

अपने तरह की एकमात्र शख्सियत इंदिरा गांधी कांग्रेस सिंडिकेट से अलग होना चाहती थीं और इस धारणा को दूर करने के अवसरों की तलाश में थीं कि वह कमजोर थीं. लेकिन उनकी शैली ने उनके लिए प्रशंसकों और दोस्तों और राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी ही नहीं बल्कि दुश्मन भी पैदा किए.

उन्होंने 1969में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के असामयिक निधन से प्रदान किए गए अवसर का उपयोग किया, जिसने हुसैन के उत्तराधिकारी को चुनने के लिए राष्ट्रपति चुनाव के दौरान सियासी घटनाएं घटने लगीं.

उन्होंने नीलम संजीव रेड्डी को तरजीह देने वाले कांग्रेस सिंडिकेट को चुनौती दी. उन्हें संदेह था कि सिंडिकेट उनके प्रधानमंत्री के रूप में काम करने की शैली पर अंकुश लगाने के लिए रेड्डी जैसे "मुश्किल" राष्ट्रपति को उनके ऊपर थोपने का इच्छुक था.

उन्होंने हुसैन की मृत्यु के बाद भारत के तीसरे उपराष्ट्रपति और कार्यवाहक राष्ट्रपति वी वी गिरी को उनके उत्तराधिकारी के रूप में वरीयता दी.

उन्होंने निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने के लिए गिरी को कार्यवाहक राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने के लिए कहा. उन्होंने चुनाव में रेड्डी पर 15,000मतों से अपनी जीत सुनिश्चित की. ऐसे में उग्र कांग्रेस सिंडिकेट ने उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया.

यह पहला मौका था जब किसी प्रधानमंत्री को उनकी ही पार्टी से निष्कासित किया गया था. हालांकि, उन्होंने अपनी पार्टी बनाई और राष्ट्रीय राजनीति पर हावी रही जब तक कि वह 1975में एक अदालत के फैसले से चुनावी कदाचार के लिए एक सांसद के रूप में अयोग्य ठहरा दी गईं. जवाब में, उन्होंने अपने खिलाफ विरोध को रोकने के लिए आपातकाल लगा दिया.

उन्होंने प्रिवी पर्स, राष्ट्रीयकृत कोयला, बैंक और बीमा क्षेत्र को समाप्त कर दिया और 1971का चुनाव "गरीबी हटाओ" के नारे के बल पर जीता, जो विपक्ष के "इंदिरा हटाओ" के जवाब में था.उन्होंने 1971में पाकिस्तान को विभाजित करते हुए बांग्लादेश का निर्माण किया और 1974में बड़ी शक्तियों का साहस करते हुए पहला परमाणु परीक्षण किया. पहले चरण में उनका शासन 1977तक रहा.

यह राजनीति का सबसे उथल-पुथल भरा दौर था, जिसमें जेपी के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आंदोलन हुआ था.

1977में जब उन्होंने "तानाशाह" के टैग को खत्म करने की उम्मीद में चुनावों का आह्वान किया, तो कांग्रेस बहुत बुरी तरह से लोकसभा चुनाव हार गई. वह व्यापक असंतोष की विशाल सुनामी में डूब गई और भारत की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार गठित हुई.

1977के चुनावों में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए. मूल रूप से गांधीवादी, मोरारजी देसाई पुरानी कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी के कट्टर प्रतिद्वंद्वी थे. लेकिन देसाई और उनके जनता पार्टी के सहयोगी, जिनमें स्वतंत्र पार्टी के पूर्व नेता,समाजवादी और जनसंघ के नेता शामिल थे, एक खिचड़ी व्यवस्था में एक साथ अधिक समय तक नहीं रह सके.

जनता पार्टी सरकार की मंशा प्रशंसनीय थी लेकिन कई मोर्चों पर डिलीवरी ने व्यवस्था को चरमरा दिया. समाजवादियों ने अटल बिहार वाजपेयी जैसे जनसंघ के नेताओं का विरोध किया, उन पर आरएसएस और जनता पार्टी के दोहरे सदस्य होने का आरोप लगाया.

इंदिरा गांधी के हाथ ऊपर हो गया जब उन्होंने चरण सिंह को गैर-कांग्रेसी गठबंधन से दूर करने के लिए पीएम का पद का लालच दिया. हालांकि सांसारिक चिंताओं के साथ एक किसान नेता, एक महत्वाकांक्षी चरण सिंह इस फेर में पड़ गए.  यह बात दीगर है कि 24 सप्ताह में अपने पैरों के नीचे गलीचा खींचने तक एक वर्ष से भी कम समय तक उस पद पर रहा. इंदिरा 1980 में फिर से सत्ता में लौटीं और 1984 में उनकी हत्या तक इस पद पर रहीं.

जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14अगस्त, 2014को अपने संबोधन में लाल किले से कहा था, "आज अगर हम आजादी के बाद यहां पहुंचे हैं, तो यह सभी प्रधानमंत्रियों, सभी सरकारों और यहां तक कि सभी की सरकारों के योगदान के कारण है. मैं उन सभी पिछली सरकारों और पूर्व प्रधानमंत्रियों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करना चाहता हूं जिन्होंने हमारे वर्तमान भारत को इतनी ऊंचाइयों तक ले जाने का प्रयास किया है और जिन्होंने देश के गौरव को बढ़ाया है.