यूक्रेन संकट: भारत किधर जाए?

Story by  जेके त्रिपाठी | Published by  [email protected] • 2 Years ago
जो बाइडेन - व्लादिमीर पुतिन
जो बाइडेन - व्लादिमीर पुतिन

 


जेके त्रिपाठी 


यूक्रेन को लेकर अमेरिका और रूस के मध्य तनाव बढ़ता जा रहा है. जहाँ एक ओर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने रूस की सीमा से सटे यूक्रेन के दो दक्षिण पूर्वी ओब्लास्ट (प्रांतों) को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता प्रदान करके पश्चिम सहित तमाम देशों की आलोचना आमंत्रित की है, वहीं अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जवाब में कल देर रात रूस के खिलाफ और भी प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा कर दी. हालाँकि पुतिन की अभी तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन यह तो तय है कि स्थिति इन प्रतिबंधों से और बिगड़ सकती है.

यहाँ संक्षेप में जान लेना आवश्यक है कि इस समस्या की जड़ क्या है. 1980 के दशक के उत्तरार्ध में सोवियत संघ के विघटन के परिणामस्वरूप यूक्रेन 1 दिसम्बर 1991 को फिर से एक स्वतंत्र राष्ट्र बन गया. उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति बुश और रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन के बीच वार्ता में अमेरिका ने रूस की नैटो के रूस तक बढ़ने की चिंताओं के मद्देनज़र अमेरिका ने वायदा किया कि नैटो "पूर्व की ओर एक इंच भी नहीं बढ़ाया जाएगा" और रूस की सुरक्षा संवेदनाओं का ध्यान रखा जाएगा.

लेकिन अमेरिका अपनी बात से मुकर गया तथा उसने 1993 से अब तक पूर्वी यूरोप के चौदह देशों को नाटो में सम्मिलित कर लिया और अब रूस के विरोध के बावजूद यूक्रेन को नाटो सदस्य बनाने की तैयारी चल रही है.
वर्तमान में अमेरिका ने यह तर्क दिया कि ऐसा कोई आश्वासन रूस को नहीं दिया गया था और यह कि एक स्वतंत्र संप्रभु राष्ट्र होने के कारण यूक्रेन को किसी भी संगठन में शामिल होने का निर्बाध अधिकार है.

जबाव में रूस ने दक्षिण पूर्वी यूक्रेन के दो प्रांतों, दोनेत्स्क और लुहांस्क (जहाँ रूसी आबादी बहुमत में है), को स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी. बाइडेन द्वारा घोषित नए प्रतिबन्ध 'खोदा पहाड़, निकली चुहिया' की कहावत को चरितार्थ करते हैं.

तीन नए प्रतिबन्ध हैं -रूस के दो बैंकों पर अमेरिका और यूरोप में प्रतिबन्ध, रूस द्वारा अमेरिका, नैटो और यूरोप से कोई संप्रभु ऋण, वित्तीय सहायता और व्यापार पर रोक तथा रूस से जर्मनी को जाने वाली गैस पाइपलाइन नॉर्डस्ट्रीम-2 पर तुरंत रोक. साथ ही बाइडेन ने यह भी चेतावनी दे डाली कि नाटो किसी भी सदस्य देश पर रूसी हमला बर्दाश्त नहीं करेगा. 

इन प्रतिबंधों का खोखलापन इसी से ज़ाहिर हो जाता है कि नॉर्डस्ट्रीम-2 का निर्माण भी अभी पूरा नहीं हुआ है. नॉर्डस्ट्रीम-1  ( जिससे जर्मनी को रूस से सालाना 55 अरब घन मीटर गैस मिलती है) को जर्मनी के सशक्त प्रतिरोध के कारण नहीं रोका गया.

आर्थिक प्रतिबंधों की आशंका से  रूस ने पहले ही अपनी तैयारी कर ली है और कई देशों के साथ उसके स्थानीय मुद्राओं में व्यापार हो सकता है, जिससे अमेरिका के रास्ते डॉलर के विनिमय की ज़रुरत ही नहीं पड़ेगी. फिर भी रूस का व्यापार कुछ तो प्रभावित होगा ही, जिसके संकेत रूबल के मूल्य में आई 4% गिरावट से मिलते हैं. साथ ही नाटो सदस्य पर आक्रमण की दशा में उत्तर देने की बाइडेन की धमकी का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि यूक्रेन अभी नाटो का सदस्य ही नहीं है.

कुछ विश्लेषकों को यह आशंका है कि वर्तमान तनाव विश्वयुद्ध में बदल सकता है. यहाँ यह विचारणीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद यूक्रेन संकट से भी अधिक बड़े कई संकट आए, जैसे  कोरिया, क्यूबा, भारत-चीन, वियतनाम, इराक, सीरिया आदि - लेकिन महाशक्तियों के द्वारा अंतिम क्षण में संयम का परिचय देने से संकट टल गया. वैसे भी परमाणु बम के प्रयोग से ही दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हुआ था और अब कई देशों के पास ये अस्त्र हैं, इस लिए कोई भी संकट को बढ़ाना नहीं चाहेगा.

विचारणीय यह भी है कि इस संकट का विश्व पर प्रभाव क्या पड़ेगा और भारत इससे कैसे प्रभावित होगा. किसी भी युद्ध से युद्धरत देशों की अर्थव्यवस्था कम से कम दस साल पीछे चली जाती है. लेकिन युद्ध न होने पर भी युद्ध का खतरा ही अर्थव्यवस्था पर कुछ चोट पहुंचा सकता है. रूसी रूबल में आई गिरावट और शेयर बाजार में मंदी इसके प्रमाण हैं. युद्ध की आशंका के चलते पिछले दो हफ़्तों में ही कच्चे तेल के दाम 84 डॉलर प्रति बैरल से बढ़ कर 95 डॉलर प्रति बैरल हो गए हैं. याद रहे कि दुनिया के कुल कच्चे तेल तथा गैस के उत्पादन में रूस की हिस्सेदारी  क्रमशः 13 % और 17 % है और युद्ध, यहां तक कि तनाव की स्थिति में इस उत्पादन के घटने की सम्भावना है. तेल के दाम बढ़ने का सीधा प्रभाव परिवहन पर पड़ेगा और प्रकारांतर में महंगाई में वृद्धि होगी. युद्ध से राजनीतिक रूप से विस्थापितों और शरणार्थियों की संख्या में वृद्धि होगी जिसकी मार संबंधित देशों की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगी. 

भारत पर भी इस संकट का प्रभाव निश्चित ही पड़ेगा. बजट प्रस्तुत करते हुए आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने उम्मीद जताई थी कि विषय में कच्चे तेल के दाम विचाराधीन वित्तीय वर्ष में 70 - 72 डॉलर प्रति बैरल रहेंगे. लेकिन अभी ही ये दाम उछल कर 95 डॉलर से ऊपर पहुँच गए हैं, जिससे मंहगाई अधिक बढ़ने की सम्भावना है.

यदि इस संकट का शीघ्र ही समाधान नहीं हुआ, तो रूस से आयातित होने वाली सैन्य सामग्री की उपलब्धता और मूल्यों पर भी असर पड़ेगा (भारत की कुल सैन्य सामग्री ज़रूरतों का 49 % रूस से आता है). हमारा अन्य देशों के साथ भी व्यापार प्रभावित हो सकता है.

इस संकट के दौरान भारत का क्या रुख है, क्या रहना चाहिए और क्यों तथा हमारे पास क्या विकल्प उपलब्ध हैं, इस पर भी विचार आवश्यक है. भारत सदा से ही शांति का पक्षधर रहा है. हमारा मानना है कि युद्धरत या तनावग्रस्त देशों को युद्ध के बजाय कूटनीति का सहारा लेकर तनाव कम करने के लिए वार्ता करनी चाहिए.

युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं होता, बल्कि कई बार अकारण ही होता है. इतिहास गवाह है कि हर युद्ध के बाद शांति वार्ता होती ही है, जिससे तनाव शिथिल करने में मदद मिलती है. सैनिक अभियानों का अंत भी कूटनीतिक प्रयासों में ही होता है.

इसी विदेश नीति के चलते भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ सुरक्षा परिषद् में शांति- बहाली और वार्तालाप की बात की. इसी से हम परिषद् में रूस के खिलाफ मतदान में शामिल नहीं हुए, जिसको रूस ने तो समझा, पर अमेरिका को थोड़ा बुरा लगा. कई पर्यवेक्षक यह तर्क देते हैं कि अब भारत का कद इतना बढ़ चुका है कि उसे वैश्विक मामलों में अपनी बात रखनी चाहिए और, जहाँ ज़रुरत हो, मध्यस्थता करनी चाहिए .

लेकिन इस तर्क को स्वीकार करने में दो समस्याएं हैं - पहली तो यह कि दो महाशक्तियों की लड़ाई में पक्षधर  बनाना हमारी समय-परीक्षित विदेश नीति के विपरीत है. दूसरे, कश्मीर समस्या पर हमरा हमेशा यही मत रहा है कि हम भारत-पाकिस्तान की द्विपक्षीय समस्या पर किसी तीसरे देश का हस्तक्षेप या मध्यस्तता नहीं स्वीकार करेंगे. अब अगर हम यूक्रेन संकट पर हस्तक्षेप करेंगे या बिचोलिये का काम करेंगे, तो ये हमारी कश्मीर नीति के विरुद्ध होगा और कल अन्य देश हमें कश्मीर पर मध्यस्थता स्वीकार करने को कहने लगेंगे.

रही बात अमेरिका की नाराज़गी या रूस से एस-400 लेने के मसले पर संभावित अमेरिकी प्रतिबन्ध की, तो वह अभी संभव नहीं है, क्योंकि अमेरिका को आज एशिया में चीन पर लगाम लगाने के लिए भारत की, उससे ज़्यादा नहीं तो, उतनी ही ज़रुरत है, जितनी कि भारत को अमेरिका की. यदि ऐसा नहीं होता, तो अमेरिका कब का भारत पर प्रतिबन्ध लगा चुका होता, आखिर उसने तुर्की पर नैटो सदस्य होने के बावजूद प्रतिबन्ध पहले ही लगाया है. इसलिए भारत का जो रुख इस संकट पर है, वह बहुत ही उपयुक्त और समीचीन है.

 
अब देखना यह है कि रूस-अमेरिका का यह विवाद कब तक सुलझेगा, वैसे उम्मीद तो है कि दोनों राष्ट्रपतियों की प्रस्तावित मुलाक़ात के बाद तनाव कम हो जाएगा.