हरजिंदर
हो सकता है कि दोनों घटनाओं के कोई सीधा रिश्ता न हो लेकिन दो घटनाएं अगर एक साथ हों तो हम दोनों को एक साथ जोड़कर देखने लग जाते हैं.जिस दिन यह खबर आई कि काबुल पर तालिबान का पूरी तरह से कब्जा हो गया है उसी दिन यह भी पता पड़ा कि लाहौर में महाराज रणजीत सिंह की मूर्ति तोड़ दी गई है.
दोनों घटनाओं में एक संबंध तो यह है कि तालिबान को हम उग्रवादी मानते हैं और महाराजा रणजीत सिंह की मूर्ति को तोड़ना भी एक उग्रवादी वारदात है.इसके आगे का रिश्ता ढूंढने के लिए हमें इतिहास में जाना होगा.
महाराजा रणजीत सिंह भारत के पहले और शायद आखिरी ऐसे राजा थे जिन्होंने पेशावर पर न सिर्फ हमला किया बल्कि जीत भी हासिल की.वे अकेले ऐसे भारतीय राजा हैं जिनकी सवारी इस जीत के बाद पूरी शान से पेशावर की सड़कों पर निकली.
बात 1818 के बाद की है जब काबुल में अफगानिस्तान के शहजादे कामरान ने वजीर फतेह खान बरक्जई की हत्या कर दी.कहा जाता है कि शहजादे के नाम पर वजीर फतेह खान ही दरअसल पूरी सरकार चला रहा था.
शाहजादे को यह बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने अपने रास्ते के इस रोड़े को खत्म कर दिया.लेकिन तब तक वजीर फतेह खान ऐसी फौज तैयार कर चुका था जो उनके नाम पर कुछ भी करने को तैयार रहती थी.
वजीर की हत्या के बाद ये सैनिक उबल पड़े और अफगानिस्तान में गृह युद्ध शुरू हो गया.इस गृहयुद्ध में विद्रोह का नेतृत्व कर रहे थे वजीर बरक्जई के बेटे जिन्हें बरक्जई बंधुओं के नाम से भी जाना जाता है.
उस समय महाराजा रणजीत सिंह जिस पंजाब के राजा थे उसकी सीमा अटक तक जाती थी.एक तरह से यह भारत की सीमा भी थी जिसके आगे अफगानिस्तान शुरू हो जाता था.महाराजा ने जब अटक को जीता तो उन्होंने अटक का किला जहां दाद खान के हवाले करके उन्हें वहां की सूबेदारी सौंप दी थी.
अफगानिस्तान गृहयुद्ध में उलझा तो महाराजा और जहां दाद खान दोनों को ही लगा कि यह एक अच्छा मौका है.1819 की सर्दियां शुरू होते ही उनकी फौज पेशावर की ओर बढ़ गई.
अपनी समस्याओं में फंसे काबुल को इसकी खबर भी नहीं लगी.थोड़ी बहुत लड़ाई के बाद ही पेशावर काफी आसानी से जीत लिया गया.पेशावर के सूबेदार यार मोहम्मद अपनी तोपें और ढेर सारा जंगी जखीरा छोड़कर भाग निकले.
यही वह मौका था जब महाराज रणजीत िसंह की सवारी पेशावर की सड़कों पर निकली.महाराज ने जहां दाद खान को ही पेशावर का सूबेदार बनाना बेहतर समझा। कहते हैं इसी के साथ ही उन्हें यह निर्देश भी दिया गया कि आम लोगों को किसी तरह का नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा। इसके तुरंत बाद महाराजा लाहौर लौट गए.
महाराज के लौटते ही बरक्जई बंधुओं में सबसे बड़े दोस्त मुहम्मद ने हमला बोला और जहांदाद खान को मार भगाया.लेकिन दोस्त मुहम्मद यह भी जानते थे कि अगर पंजाब की सेना फिर लौटी तो पेशावर बचाना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा.डर यह भी था कि अगर इस बार हमला हुआ तो यह फौज पेशावर से आगे काबुल की ओर भी बढ़ सकती है.
इससे बचने का एक ही तरीका था कि महाराजा की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया जाए.दोस्त मुहम्मद ने लाहौर दरबार को यह संदेश भेजा कि वे हर साल एक लाख रुपये की मालगुजारी देने के लिए भी तैयार हैं और पेशावर पर महाराजा की सर्व सत्ता को स्वीकार भी करेंगे.दरबार ने उनकी यह पेशकश स्वीकार कर ली.
इन घटनाओं का नतीजा यह हुआ कि अभी तक पंजाब की जो सरहद अटक तक थी वह पेशावर तक पहुंच गई और पेशावर अफगानिस्तान के हाथ से निकल गया.एक ऐसी नई सरहद बन गई जिसके इस तरफ भी पश्तो बोलने वाले पख्तून थे और उस तरफ भी.
इसके बाद इस सरहद पर अगली मुहर लगी 1838 में जब एक त्रिपक्षीय संधि हुई.यह संधि पंजाब, अफगानिस्तान और ब्रिटिश शासन के बीच हुई थी.इस पर दस्तखत करने वालों में थे महाराजा रणजीत सिंह, काबुल के शाह शुजा और ब्रिटिश गर्वनर लार्ड आकलैंड.
इस संधि में कईं शर्तें थी.जिनमें पहली यही थी शाह शुजा और उनके उत्तराधिकारी पेशावर वाले इलाके पर अपना दावा पेश नहीं करेंगे.दूसरे क्षेत्र पर किसी भी तरह की डकैती और लूटपाट की वारदात को रोका जाएगा.
अफगानिस्तान से पेशावर के इलाके में प्रवेश के लिए महाराजा की सरकार का अधिकृत पासपोर्ट जरूरी होगा.इस संधि को पख्तूनों ने कभी स्वीकार नहीं किया और शाह शुजा को अंग्रेजों का एजेंट कहा जाने लगा.उनके खिलाफ बगावत शुरू हो गई और अंग्रेजों ने जब इस बगावत को दबाने की कोशिश की तो उन्हें करारी शिकस्त मिली.
इसके बहुत बाद 1893 में जब मार्टीमर डूरंड ने नक्शे पर भारत और अफगानिस्तान की सीमा रेखा खींची तो उन्होंने उस सारे इलाके को भारत में रखा जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने जीता था और जो 1838 की संधि का आधार भी था.
इसी सीमा रेखा को डूरंड लाइन के नाम से जाना जाता है.अब डूरंड लाईन के एक तरफ पाकिस्तान है और दूसरी तरफ अफगानिस्तान.लेकिन अफगान लोगों और खासकर पख्तूनों ने डूरंड लाइन को कभी स्वीकार नहीं किया.इसलिए यह भी कहा जाता है कि जब तक डूरंड लाइन रहेगी पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच कई तरह के तनाव बने रहेंगे.
सच यही है कि अगर महाराजा रणजीत सिंह नहीं होते तो आज के पाकिस्तान का नक्शा कुछ और ही होता। कम से कम पेशावर और बलूचिस्तान तो उसके पास नहीं ही होते.आज नक्शे पर पाकिस्तान का जो विस्तार है उस में महाराजा का भी एक बड़ा योगदान है.
यानी पाकिस्तान को जिस महाराज रणजीत सिंह को शुक्रगुजार होना चाहिए था, वहीं पर अब उनकी मूर्ति तोड़ी जा रही है.पाकिस्तान की यह भी एक विडंबना है.