किसी सियासी पार्टी से चुना जाना गुलाम बन जाना तो नहीं !

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 15-06-2022
किसी सियासी पार्टी से चुना जाना गुलाम बन जाना तो नहीं !
किसी सियासी पार्टी से चुना जाना गुलाम बन जाना तो नहीं !

 

मलिक असगर हाशमी
 
पैगंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर अब यह बताने की जरूरत नहीं कि इसके बाद क्या-क्या हुआ ? अब बात इस मुद्दे पर होनी चाहिए कि ऐसा कौन-क्या करे कि देश-दुनिया में दोबारा भारत की छवि खराब होने की नौबत नहीं आए ? यदि इन सवालों का मूल्यांकन करें तो आपको एक ही जवाब मिलेगा कि उन्हें जो करना चाहिए था उन्होंने वह नहीं किया और जिन्हें नहीं करना था उन्होंने वह किया. 

इस पंक्ति को आप तराजू की तरह मुसलमानों के हर उस मुद्दे को रखकर देख सकते हैं, जिस पर बवाल मचा है. आपको हर बार ऐसा ही जवाब मिलेगा.शाह बानो केस से लेकर पैगंबर मोहम्मद साहब पर अभद्र टिप्पणियों से होने वाले हंगामे को देखा जाए तो मुसलमानों के तथाकथित सियासी और इस्लामी रहनुमाओं ने अपनी हैसियत के हिसाब से भूमिकाएं नहीं निभाईं.
 
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भाजपा नेता की गिरफ्तारी को लेकर सड़कों पर
 
बाबरी मस्जिद-अयोध्या मामले को लें या मौजूदा पैगंबर मोहम्मद साहब के मसले को. आप उन मुस्लिम रहनुओं को ढूंढते रह जाएंगे जो मसले का हल सियासत  से निकाल सकते थे. खून-खराब और बवाल, उबाल का शिकार होने से देश और मुसलमान बच जाता.
 
अयोध्या मामले में अनगिनत लोग मारे गए. एक समय मुल्क में दंगों का ऐसा सिलसिला चला कि किसी और का नहीं बल्कि सबसे अधिक मुसलमानों का ही नुकसान हुआ. उनके कारोबार ऐसे तहस नहस हुए कि आज तक पटरी पर नहीं आ पाए हैं.
 
ऐसे मौकों का कई डॉन ने भी लाभ उठाया. अपने हित साधे और पड़ोसी मुल्क में जाकर छिप गए. मगर उलाहना और खामियाजा आज भी देश के मुसलमान को ही भुगतना पड. रहा है. कश्मीर में आतंकियों ने पंडितों को निशाना बनाया और कश्मीर सहित भारत के तमाम मुसलमान वेलन बना दिए गए कि इस मामले में उनकी मौन सहमति थी.
 
पैगंबर मोहम्मद साहब के मसले में भी यही सब कुछ चल रहा है. इसको लेकर दो शहरों में सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं. कई लोग मारे जा चुके हैं. बहुतेरे शहरों में तनाव व्याप्त है और केवल उत्तर प्रदेश में 300 से अधिक गिरफ्तारियां हो चुकी हैं. कई के खिलाफ गंभीर आरोपों में मुकदमे दर्ज किए गए हैं और बुलडोजर लगाकर मकानों को विस्मार किया गया है.
 
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हिजाब का मसला सड़कों पर सुलझाने की कोशिश

अब जरा हाल के किसान आंदोलन पर नजर मार लें. किसानों ने अपने जिस मुददे को लेकर लड़ाई लड़ी, उसमें उन्हें जीत मिली. सरकार को कृषि कानून वापस लेना पड़ा. इतने किसानों की गिरफ्तारियां भी नहीं हुई, जितने पैगंबर मोहम्मद साहब के बयान को लेकर उठे विवाद में मात्र दो से तीन दिनों में हुईं. किसान आंदोलन तो तकरीबन साल भर चला.
 
इसमें न केवल उनकी जीत हुई. जेल में बंद तकरीबन सारे किसान बाहर भी आ गए. यही नहीं जो लोग उन्हें खालिस्तानी और आतंकवादी बता रहे थे बाद उन्होंने  आंदोलनरत किसानों के बीच समझौता कराने में अहम भूमिका निभाई.
 
इस किसान आंदोलन से क्या मुसलमानों ने कोई सीख ली है ? मुसलमानों को तो धरना-प्रदर्शन करना भी नहीं आता. उन्हें लगता है कि उनके हर मसले का हल शुक्रवार की नमाज के बाद सड़कों पर आने से निकल जाएगा.
 
आप कहेंगे कि किसानों का मसला खालिस काश्तार से जुड़ा था. इसे हम किसी धर्म विशेष से जोड़कर नहीं देख सकते. आप सही कह रहे हैं. मगर आपको यह भी समझना होगा कि कृषि कानून काश्तकारी से कहीं अधिक सियासी मामला था, जिसके विरूद्ध न केवल किसान, किसान संगठन बल्कि सियासी पार्टियों ने भी लड़ाईयां लड़ीं.
 
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नई रोशनी की तलाश

मगर मुसलमानों के मामले में हो क्या रहा है. हाल के हलाल मीट, हिजाब, मंदिर-मस्जिद, ताजमहल-कुतुब मीनार से लेकर पैगंबर मोहम्मद के विवाद को ले लें. यह मजहबी से कहीं अधिक सियासी मामला लगता है. कई प्रदेशों में चुनाव होने हैं, तो कोई इन्ही मुद्दों के सहारे 2024 के चुनाव की तैयारी कर रहा है.
 
मगर देश के मुसलमानों से इस हकीकत से रू-ब-रू कराने वाला कोई नहीं. इन सारे मुददों को लेकर लड़ाई कौन लड़ रहा है इस्लामिक संगठन. सियासी मसले का हल कोई धार्मिक संगठन कैसे निकाल सकता है ?
 
इनके आधे-अधूरे प्रयासों का ही नतीजा है कि देश में बवाल दर बवाल मच रहा है. किसानों के मसले पर कई दलों के नेताओं ने अपनी पार्टी की मूल विचारधारा से इतर आंदोलन में साथ दिया था.
 
इसमें राज्य के राज्यपाल तक शामिल थे. मगर मुसलमानों के मसले को सुलझाने के लिए कितने सियासतदां आपने खांचे से बाहर आए ? ओवैसी साहब सोशल मीडिया पर केवल भड़काउ बयान दे सकते हैं. इस मसले पर किसी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए पीएम,सीएम का दरवाजा नहीं खटखटा सकते ?
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मंथन करती युवा पीढ़ी
 
मुसलमानों के सियासी मसले को सुलझाने में कभी मुस्लिम सियासतदानों ने दिलचस्पी नहीं दिखाई. दिखाई होते तो आज यह नौबत नहीं आती. मुस्लिम कौम बदहाली का शिकार न होता. मौजूदा पैगंबर साहब के मामले में कितने मुस्लिम सियासतदां आगे आए हैं.
 
बीजेपी से लेकर तमाम तथाकथित सेक्युलर पार्टियों में मुस्लिम नेताओं की भरमार है, पर कोई आगे नहीं आया. रोम जलता रहा और वे बांसुरी बजाते रहे. इनकी बातों और व्यवहार से ऐसा लगता है कि किसी पार्टी में होने का मतलब है उसका बंधुआ हो जाना. खुद को पार्टी के पास गिरवी रखे हुए हैं.
 
वे यह नहीं समझते कि जनता के प्रतिनिधि होने के नाते इलाके और लोगों के विकास के अलावा उनकी देश, समाज और कौम के प्रति भी कुछ जिम्मेदारियां हैं. इनके आगे नहीं आने से देश पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है.
 
नुपुर शर्मा मामले जब मुस्लिम मुल्कों के अनर्गल बयान आने लगे तो कितने मुस्लिम नेताओं के उसके विरूद्ध बयान आए कि यह हमारे देश का मामला है. हम निपट लेंगे. आपको टांग अड़ाने की जरूरत नहीं ?
 
मुस्लिम सियासतदानों के आगे नहीं आने का नतीजा है कि मुस्लिम देशों के बयान आने के बाद पक्ष और विपक्ष के कट्टरपंथियों ने एक अलग तरह से जहर उगलना शुरू कर दिया है. बीस दिनों बाद बकरीद आने वाली है. आशंका है कि कट्टरपंथी आने वाले दिनों में भी देश में ऐसा ही माहौल बनाए रखेंगे.
 
मौजूदा दौर में मुस्लिम का सियासी स्तर पर कोई एक रहनुमा नहीं है और न ही कोई ऐसा प्रभावशाली नेता जिनकी बातों पर सभी अमल करने को राजी हो जाएं. इसके लिए किसी ओर से प्रयास भी नहीं किया जा रहा है. अप्रत्यक्ष रूप से सियासत करने वाले इस्लामिक संगठन भी नहीं चाहते कि मुसलमानों के बीच कोई सर्वमान्य सियासी शख्यिसत उभरे ताकि सर्वाजनिक मोर्चे पर कौम के मसले उठा सके.
 
मुस्लिम कौम की हालत यह है कि डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम को भी कभी गंभीरता से नहीं लिया. दूसरी कौम उनसे सीखती रही और मुसलमान यही सोच कर समय बर्बाद करते रहे कि कलाम साधुओं के चरणों में बैठते हैं और वीणा बजाते हैं.
 
बावजूद इसके यदि कौम का कोई रहनुमा नहीं है तो सभी पार्टियों के नेता हर बड़े मुस्लिम मसले पर इकट्ठे तो हो ही सकते हैं. ठीक है आप अपने राजनीतिक दल की नीतियों से बहुत इतर नहीं जा सकते.
 
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ओवैसी आखिकर किधर ले जाना चाहते हैं मुस्लिम समाज को ?

मगर ऐसी कौन सी पार्टी है जो यह चाहेगी कि लोग सड़कों और अदालतों में हर दम लड़ते फिरें ? सभी दलों के सियासतदां भले ही एक दूसरी की सार्वजनिक तौर पर मुखालफत करते रहे हों, लेकिन उनके बीच आपसी रिश्ते ठीक-ठाक ही हैं.
 
गाहे-बगाहे सियासी एनेक्सी से ऐसी तस्वीर आती भी रहती हैं.मुसलमानों के मसले को सुलझाने के लिए क्या ऐसे रिश्तों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता ? उत्तर प्रदेश में अभी सपा के तीस से अधिक मुस्मिल विधायक हैं.
 
इसी तरह बिहार, पश्चिम बंगला, राजस्थान, तेलंगाना, महाराष्ट्र,मध्य प्रदेश, असम,झारखंड आदि प्रदेशों में अनेक विधायक हैं. मगर हाल के मुस्लिम मसलों के प्रति बयान बाजी के अलावा मसलों को सुलझाने के लिए उनकी ओर से कोई पहलनहीं की गई. जब तक यह नहीं होगा मुस्लिम कौम यूं ही सड़कों पर उतरकर अपना ही नुक्सान करती रहेगी.
 
*लेखक आवाज द वॉयस हिंदी के संपाकद हैं.