पैग़म्बर ‎मुहम्म्द के सामूहिक विकास के मॉडल की सार्थकता आज भी

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 16-10-2022
प्रतीकात्मक फोटो
प्रतीकात्मक फोटो

 

wasayप्रो. अख़्तरुल वासे / तिरंगे का तीसरा रंग 
 

रसूलुल्लाह (सल्ल.) जैसी महान शख़्सियत और उनसे संबद्ध ज़माने में मानव इतिहास ने जो महान ‎सांस्कृतिक अनुभव किया एवं भौतिक तथा बौद्धिक स्तरों पर मानवता के अस्तित्व के जो उसूल और ज़ाब्ते ‎सामने आए, उनमें ऐसी ख़ूबसूरती है कि हर युग और काल में इससे फ़ायदा उठाया जा सकता है .

‎उनमें ऐसी ऊर्जा है कि कोई भी ज़माना चाहे वह कितना भी गुमराह क्यों न हो, इस ऊर्जा से वंचित नहीं ‎रह सकता. इस्लाम ने जीवन के लिए जो आचरण बनाया था.उस आचरण के अनुसार पैग़म्बर ‎मुहम्म्द (सल्ल.) ने सामूहिक विकास का जो मॉडल प्रदान किया था. उसकी सार्थकता आज भी वैसी ही है.
 
बीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में हम इस प्रणाली के प्रति जो व्यापक असंतोष देख रहे हैं, उसके ‎कारणों को समझना कठिन नहीं है. इसके विपरीत, इस्लाम के उदय के साथ उभरी सामूहिक सभ्यता की ‎‎रूपरेखा के अनुसार, समाज एक ऐसा क्षेत्र था जिसमें हज़ारों व्यक्तिगत क्षेत्रों को उनके रूप और सार में ‎बिना किसी कमी के विलय किया जा सकता था. स्वतंत्रता संभव थी.
 
 यह समाज विभिन्न आत्मनिर्भर और ‎स्थापित इकाइयों का एक संग्रह था, यह समाज विभिन्न व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं का संग्रह था. इस समाज ‎को अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता से समझौता करने की आवश्यकता नहीं ‎पड़ी.
 
बीसवीं सदी के कुछ विचारकों ने व्यक्तिगत सुधार की धारणाओं पर जोर दिया है कि यदि व्यक्ति ‎सही हैं, तो समाज स्वतः ही सही हो जाएगा,
 
जैसे कि धार्मिक अस्तित्ववादी, किर्कगार्द से लेकर मार्टिन ‎बूबर तक सबने व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं शिक्षा के लिए समाज की आज़ादी के लिए किताबें लिखी हैं. ‎हमारे सूफ़ियों, प्राचीन समाज सुधारकों ने अपने-अपने ढंग से इसी दर्शन का प्रचार किया था.
 
यदि ‎पिछली चौदह शताब्दियों में मानव विकास की स्थिति का निष्पक्ष विश्लेषण किया जाए तो समझ में आ ‎जाएगा कि इस स्वप्न का सबसे मज़बूत आधार पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की ज़िंदगी और इस्लाम के उदय ‎के साथ सामने आने वाली सामाजिक व्यवस्था ने प्रदान किया था.
 
पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की ज़िंदगी हमें सिखाती है कि केवल दान ही नहीं, हर अच्छे काम की ‎‎शुरुआत सबसे पहले अपने स्वयं के घर से होनी चाहिए, इसलिए आपने सभी को अपने निजी जीवन में ‎सुधार करना सिखाया क्योंकि जब तक घर अर्थात् समाज की मूल इकाई में ही सुख और शांति नहीं ‎होगी तब तक समाज में शांति और सद्भावना कैसे सम्भव हो सकेगी ? 
 
यदि लोग अपने घरों में ही न्याय ‎नहीं कर सकते तो फिर वे समाज में उचित भूमिका कैसे निभा पाएंगे? इसलिए पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने ‎कहाः‎‘‘तुम अपनी वंशावली का ज्ञान प्राप्त करो, जिससे अपने रिश्तेदारों के साथ दयाभाव रख सको। ‎क्योंकि दयाभाव ही परिवार में प्रेम, धन और आयु में वृद्धि का कारण है...? 
 
इसकी व्याख्या भी पैग़म्बर ‎मुहम्मद (सल्ल.) द्वारा इस तरह से की गई थी कि उसका महत्व भी सामने आया था. पैग़म्बर मुहम्मद ‎‎(सल्ल.) ने फरमाया कि रहम (रक्त-संबंध) दया का ही एक भाग है.
 
अल्लाह ने फ़रमायाः ‘‘जो दया ‎करेगा, मैं उससे अपना रिश्ता जोड़े रखूँगा। जो इस रिश्ते को काट देगा, मैं भी उससे रिश्ता काट लूँगा.’’ ‎‎(बुख़ारी)

सूरह निसा में वर्णित धर्म के दो पहलू हैं ख़ुदा का भय और रिश्तों का सम्मान। कुरान कहता हैः ‎‎‘‘अल्लाह की नाफ़रमानी से बचो, जिसका वास्ता देकर तुम एक दूसरे से उनका हक़ मांगते हो और रिश्तों ‎की क़द्र और सम्मान करो.’’
 
 इसी तरह अल्लाह तआला ने सूरह राद में नेक बंदों की ख़ूबियाँ बयान करते ‎हुए उनकी एक ख़ूबी यह भी बताई है कि वह रिश्तों की हक़ अदा करते हैं. अल्लाह तआला फ़रमाते हैंः ‎‎‘‘हमारे सच्चे बंदे वह हैं जो अल्लाह से किए हुए वादे को पूरा करते हैं और वादे को तोड़ते नहीं, जो उन ‎रिश्तों, जिन्हें जोड़े रखने को अल्लाह ने आदेश दिया है, जोड़े रखते हैं, जो अपने रब से डरते और हिसाब ‎‎(क़यामत) के बुरे परिणाम से ख़ौफ़ खाते हैं.’’‎
 
रिश्तों में माँ-बात भी शामिल हैं। जीवनसाथी, पत्नी, बच्चे और अन्य सभी प्रिय रिश्तेदार भी. ‎पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) की ज़िंदगी में इन सबका सम्मान, आपसी प्रेम, करुणा और दया और अच्छे ‎व्यवहार के व्यावहारिक उदाहरण देखे जा सकते हैं.
 
 सूरह बनी इस्राईल में अल्लाह तआला ने माँ-बाप के ‎साथ अच्छे व्यवहार का उल्लेख किया है और इसे अपनी इबादत से जोड़ दिया है. अल्लाह तआला ‎फ़रमाते हैं ‘‘और तुम्हारे रब ने फ़ैसला फ़रमा दिया है कि उसके सिवा किसी और की इबादत न करो और ‎माँ-बाप से अच्छा व्यवहार करो.
 
अगर तुम्हारे यहाँ वह दोनों या उनमें कोई एक बुढ़ापे की उम्र को पहुँच ‎जाएँ तो ऐसी बात न कहो जो उन्हें बुरी लगे, न ही उन्हें डाँटो बल्कि उनसे नम्रता से बात करो, दया और ‎करुणा के साथ उनके लिए नम्रता की बाहों को झुका दो और कहो, ऐ मेरे रब! 
 
इन पर रहम फ़रमा जिस ‎तरह इन्होंने मुझे बचपन में पाला था.’’ हज़रत अबू हुरैरा से मरवी है कि ‘‘एक व्यक्ति रसूलुल्लाह (सल्ल.) ‎की सेवा में आया और पूछा, ऐ रसूलुल्लाह (सल्ल.)! मेरे अच्छे बर्ताव का सबसे सबसे ज़्यादा हक़दार कौन ‎है ?
 
 पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने फ़रमायाः तुम्हारी माँ। उसने पूछा कौन? फ़रमायाः तुम्हारी माँ। उसने पूछा ‎उसके बाद कौन? फ़रमायाः तुम्हारी माँ। उसने पूछा उसके बाद कौन? फ़रमायाः उसके बाद तुम्हारा बाप।’’ ‎‎(बुख़ारी)‎
 
पति-पत्नी का रिश्ता हर परिवार में बुनियादी हैसियत रखता है. अगर दोनों के बीच के रिश्ते ‎‎खुशनुमा होंगे तो घर भी जन्नत बन जाएगा और बच्चों की शिक्षा और तालीम भी स्वस्थ तरीके से हो ‎सकेगी.
 
सूरह अन्निसा में यदि एक ओर मर्दों को औरतों के ज़ि़म्मेदार का स्थान दिया गया है, तो दूसरी ‎तरफ़ नेक औरतों की ख़ूबी यूँ बयान की है कि वह आज्ञाकारी और मर्दों की अनुपस्थिति में उनके माल ‎और इज़्ज़त की हिफ़ाज़त करने वाली होती हैं.

 साथ ही मर्दों पर यह ज़िम्मेदारी भी डाल दी कि वह ‎अपनी बीवियों से ‘‘अच्छा व्यवहार’’ करें. अगर वह उन्हें ‘‘नापसंद’’ हों तब भी, क्योंकि हो सकता है कि ‎उन्हें कोई चीज़ ‘‘नापसंद’’ हो और अल्लाह ने उनमें उनके लिए ‘‘बहुत बेहतरी’’ रख दी हो.
 
अल्लाह के ‎रसूल (सल्ल.) ने भी अपनी उम्मत के सभी मर्दों को यह वसीयत दी किः‎‘‘औरतों के साथ अच्छे व्यवहार के बारे में मेरी वसीयत को कुबूल करो।’’ (बुखारी, मुस्लिम)‎
 
आपने (सल्ल.) औलाद पर ख़र्च करने को पसंद फ़रमाया है। इसके अलावा, अन्य प्रियजनों पर ख़र्च ‎करना दान है और रिश्तेदारों पर ख़र्च करना दोहरा इनाम है, यह दान और दया दोनों है. ”(तिर्मिज़ी, ‎निसाई, इब्ने-माज़ा)‎
 
दूसरी ओर, मानवाधिकारों का वह घोषणा-पत्र है जिसे संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर ‎‎1948 को अनुमोदित किया गया था. ख़ुत्बा-ए-हज्जतुल-विदा के चौदह सदियों के बाद जारी होने वाला ‎‎यह ऐलान जो दुनिया के लगभग सभी देशों के सर्वोच्च दिमाग़ के बौद्धिक और रचनात्मक प्रयासों का ‎परिणाम है, हर लिहाज़ से पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) के दूरदर्शी प्रकाश में नहाया हुआ है.
 
 मुसलमानों के ‎सांस्कृतिक और राजनीतिक पतन के बाद, मानव इतिहास जिन गली-कूचों से गुज़रा है उनमें से फ्रांसीसी ‎क्रांति और रूसी क्रांति इस यात्रा के कुछ मील के पत्थर हैं.
 
यह कहना शायद ग़लत नहीं होगा कि ‎दुनिया को इतिहास की इन पथरीली घाटियों में यूँ न भटकना पड़ता और इस सांस्कृतिक यातना के ‎अनुभव नहीं करने पड़ते अगर इसे इस्लाम के आध्यात्मिक और बौद्धिक ज्ञान से जोड़ा जाता.
 
आज दुनिया ‎के पास मानवाधिकारों का घोषणापत्र तो है, लेकिन मानवाधिकारों का सम्मान नहीं, क्योंकि इसमें ‎आध्यात्मिक शक्ति, ईमानदारी और व्यावहारिक साहस की कमी है जिसे पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने इंसानों ‎की ज़िंदगी में शामिल कर दिया था.
 
‎(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफ़ेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं।)‎