उच्च शिक्षा में मुस्लिम समुदाय ने कदम बढ़ाए पर अभी वह नाकाफी है

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 17-09-2021
मुस्लिम शिक्षाः बहुत थोड़ा है, बहुत ज्यादा की जरूरत है
मुस्लिम शिक्षाः बहुत थोड़ा है, बहुत ज्यादा की जरूरत है

 

देशहित । मंजीत ठाकुर

मुस्लिमों की सामाजिक स्थिति के बारे में 2006 में सच्चर कमिटी की रिपोर्ट आई थी. इस रिपोर्ट के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है. उस रिपोर्ट में भी कहा गया था कि मुस्लिमों में साक्षरता की दर 57 फीसद के करीब थी जो करीब 74 फीसद के राष्ट्रीय औसत से काफी कम थी. देश के दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों की साक्षरता दर मुस्लिमों से बेहतर है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, जैनों में साक्षरता दर 86 फीसद, ईसाइयों में 74 फीसद, बौद्धों में 71 फीसद और सिखों में 67 फीसद है. हालांकि, अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, मुस्लिम महिलाओं में साक्षरता दर अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) की महिलाओं से अधिक है लेकिन अन्य समुदायों के मुकाबले तालीम में मुस्लिम महिलाएं काफी पीछे हैं.

हालांकि, एस एम आइ ए ज़ैदी ने 2006 में एक अध्ययन किया था कि मुस्लिमों में छोटे राज्यों में साक्षरता की दर अधिक है जबकि बड़े राज्यों में कम. मसलन अंडमान-निकाबोर द्वीपसमूह में तब यह साक्षरता दर 90 फीसद थी और उसके बाद केरल में 89 फीसद थी. जबकि सबसे कम मुस्लिम साक्षरता दर हरियाणा में 40 फीसद और बिहार में 42 फीसद थी. खासतौर पर उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार और हरियाणा जैसे बड़े राज्यों में अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में मुसलनमान पढ़ाई-लिखाई में पीछे हैं.

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की 75वें दौर की रिपोर्ट (2018) में कहा या है कि मुस्लिमों की समग्र उपस्थिति दर (ग्रॉस अटेंडेंश रेशियो, जीएआर) सभी समुदायों में सबसे कम है. अपर प्राइमरी स्तर पर भी उनका जीएआर बाकी समुदायों से कम है. सेकेंडरी स्तर पर मुस्लिम छात्रों का जीएआर 71.9 फीसद है जो कि एसटी में 79.8 फीसद, एससी में 85.8 फीसद है. इसी तरह हायर सेकेंडरी स्तर पर मुस्लिमों का जीएआर 48 फीसद ही है. जाहिर है, यह सभी समुदायों में सबसे कम है. इस स्तर पर भी उनका जीएआर 14.5 फीसद ही है.  

सभी समुदायों में 3 साल से लेकर 35 साल की उम्र तक के वर्ग में, कभी किसी औपचारिक शिक्षा संस्थान में दाखिला नहीं लेने वाले लोगों का सबसे अधिक हिस्सा मुसलमानों का ही है. उच्च शिक्षा में मुसलमानों का दाखिले पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा कराए गए एक सर्वे ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन रिपोर्ट (एआइएसएचई) में यह कहा गया है कि उच्च शिक्षा में भी मुसलमानों की संख्या सभी वंचित समुदायों यानी एससी, एसटी और ओबीसी से भी कम है.

इस रिपोर्ट के आंकड़े मुसलमानों की बुरी स्थिति तो बताते हैं पर इसी में उजाले की एक किरण भी छिपी है.

साल 2010-11 में उच्च शिक्षा में मुसलमानों की प्रतिशतता 3.8 फीसद थी. जो 2015 में बढ़कर 4.5 फीसद हुई लेकिन 2018-19 में बढ़कर यह 5.2 फीसद हो गई. यानी 2010-11 की तुलना में 2018-19 में यह बढ़ोतरी करीब 27 फीसद की है. जबकि मुसलमानों की तुलना में एसटी में यह वृद्धि 20 फीसद, एससी 25.5 फीसद और ओबीसी में 24 फीसद ही है.

इसका मतलब साफ है कि उच्च शिक्षा में दाखिले में मुसलमानों की वृद्धि सबसे अधिक और यह बेहद आशाजनक बात है लेकिन दाखिले की संख्या अभी भी ऐसी है जिसमें सुधार करना होगा. बेहतर भविष्य, शैक्षिक और आर्थिक दृष्टि से, मुसलमानों की जद में तभी आएगा जब वह अच्छी तालीम हासिल करेंगे.

मुसलमानों के नेतृत्व को और खासतौर पर उनके हित की बात करने वालों को पहले तालीम की बात करनी चाहिए. क्योंकि न सिर्फ मुसलमानों का एक बड़ा तबका गरीब है बल्कि उनके पास शिक्षा की विरासत भी नहीं है. गरीब और मेहनतकश मुस्लिम समुदाय के लिए, जो छोटे-मोटे कारोबार से रोटी कमाते हैं, शिक्षा हासिल करना टेढ़ी खीर है. ऐसे में हमारा दायित्व है और खासकर मुस्लिम समाजसेवी संगठनों की भी जिम्मेदारी है कि वह मुस्लिम समुदाय के बच्चों को स्कूलों तक पहुंचने में मदद करे और भारत सरकार की विभिन्नव कल्याणकारी योजनाओं से अवगत कराए.

वक्फ बोर्ड को शैक्षिक संस्थान अधिक से अधिक संख्या में शुरू करे ताकि आधुनिक शिक्षा की लौ इन बच्चों तक पहुंचे. आने वाला जमाना ज्ञान का जमाना है, इससे वंचित रहकर कोई समुदाय शायद ही तरक्की कर पाएगा.


(मंजीत ठाकुर आवाज- द वॉयस के डिप्टी एडिटर हैं)