हर मुसलमान पढ़े सैय्यद मुमताज अली के इन तर्कों को, दिमाग की खिड़कियां खुल जाएंगी

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 09-03-2021
सैय्यद मुमताज अली और उनकी किताब
सैय्यद मुमताज अली और उनकी किताब

 

 

- सैय्यद मुमताज अली वो देवबंदी मौलवी थे, जो मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को सबसे बड़े योद्धा थे

- सैय्यद मुमताज अली को तर्कों में बहुत दम है, लेकिन समाज से उन्हें गालियां मिली थीं


साकिब सलीम / नई दिल्ली

मौलवी सैय्यद मुमताज अली ने 1890 के दशक में एक बार सर सैयद अहमद खान से मुलाकात करने और अपनेे द्वारा लिखी हुई एक किताब की पांडुलिपि दिखाने के लिए अलीगढ़ का दौरा किया था. जब सर सैयद ने पांडुलिपि को पढ़ना शुरू किया, तो उन्हें झटके लग रहे थे और कुछ पन्ने पलटने के बाद वे विचारों में डूब गए. फिर उन्होंने मुमताज से कहा, तुम मुझसे बहुत छोटे हो, यह किस किस्म का ‘कचरा’ लिखा है और यह कहते हुए उन्होंने पांडुलिपि को फाड़ दिया. मुमताज अली ने बाद में कूड़े के ढेर से पांडुलिपि एकत्रित की और 1898 में सर सैयद की मृत्यु के कुछ महीने बाद ही इसे प्रकाशित करवा दिया.

आखिर वह कौन सी किताब थी, जिसे लेकर सर सैयद इस हद तक आगबबूला हो गए थे?

किताब ‘हक उन-निस्वान’ (महिलाओं का अधिकार) थी. यह इस्लामी कानूनों के तहत महिलाओं के अधिकारों की वकालत करने वाला मज़मून था. शेख-उल-हिंद महमूद अल-हसन के साथ देवबंद में अध्ययन करने वाले सैय्यद मुमताज अली का मानना था कि इस्लाम में महिलाओं को वे सभी अधिकार हैं, जो महिलाओं को होने चाहिए. जबकि महिलाओं की समाज में झूठे रीति-रिवाजों के कारण कमतर हालत है. इसलिए, इस्लाम के अनुसार महिलाओं के कानूनी अधिकारों के बारे में पुरुषों और महिलाओं को शिक्षित करना आवश्यक था, जो कुरान और हदीस की प्रामाणिक परंपराओं पर आधारित थे. यह पुस्तक अपने समय की इतनी क्रांतिकारी थी कि सर सैयद अहमद खान जैसे आधुनिक शिक्षाविद् भी इसके तर्कों को स्वीकार करने से डरते थे.

अगर पैगंबर से प्यार है, तो

किताब की प्रस्तावना में, मुमताज अली ने कहा कि लोग उन्हें अंग्रेज, या ईसाई, एजेंट कहेंगे. उनका मानना था कि अगर किसी को कुरान और हदीस का ज्ञान है और उसके मन में पैगंबर और उनके परिवार के लिए सम्मान है, तो वह महिलाओं को छोटा और कमतर मानने की गैर-इस्लामी प्रथाओं को दूर करने के लिए उनके तर्कों को स्वीकार करेगा.

पुस्तक को मोटे तौर पर पांच भागों में विभाजित किया गया था. 1- पुरुषों का महिलाओं से श्रेष्ठ होने का गलत सामाजिक निर्माण, 2- महिलाओं की शिक्षा, 3- परदा प्रणाली (घूंघट या हिजाब), 4- विवाह, 5- पति एवं पत्नी का संबंध. किताब में मुमताज अली ने एक नीतिविद् के दृष्टिकोण को अपनाया है, जिसमें सबसे पहले वे समाज में प्रचलित तर्कों को सूचीबद्ध करते हैं और फिर उन्हें कुरान की आयतों, हदीस की परंपराओं और तार्किक व्याख्याओं से खारिज करते हैं. हालांकि, अपने दृष्टिकोण में आधुनिक रूप से यह पुस्तक खुद को इस्लामी न्यायशास्त्र के हनफी स्कूल के ढांचे के दायरे में रखती है.

हालांकि यह इस लेख के दायरे से बाहर की बात है, लेकिन फिर भी मैं पुस्तक में शामिल उन सभी महत्वपूर्ण तर्कों को संक्षेप में प्रस्तुत करने का प्रयास करूंगा, ताकि पाठकों को यह अंदाजा हो सके कि आज के मानकों के हिसाब से भी ये तर्क तब कितने क्रांतिकारी थे.

पुरुष महिलाओं से श्रेष्ठ 

‘पुरुषों को अल्लाह द्वारा महिलाओं से श्रेष्ठ बनाया गया है, क्योंकि पुरुषों को अधिक शारीरिक शक्ति प्रदान की गई है’, सबसे पहले इस तर्क का मुकाबला करते हुए मुमताज का तर्क है कि एक गधे में एक आदमी की तुलना में अधिक शारीरिक शक्ति होती है, तो क्या गधा मनुष्य से श्रेष्ठ हो जाएगा. मनुष्य ज्ञान के कारण जानवरों से श्रेष्ठ है, न कि शारीरिक शक्ति के कारण. अल्लाह ने औरतों को बुद्धि में कम नहीं किया है.

उन्होंने आगे इस तर्क का भी विरोध किया है कि महिलाएं आध्यात्मिक रूप से हीन होती हैं और किसी भी महिला को कभी नबी नहीं बनाया गया है. कहा जाता है कि एक लाख 25हजार पैगंबरों में से बस कुछ पैगंबरों के ही नाम पता हैं, इन सभी ज्ञात पैगंबरों में निश्चित रूप से कोई भी महिला नहीं है, लेकिन कुरान और हदीस में कहीं भी यह निर्दिष्ट नहीं है कि अज्ञात पैगंबरों में कोई महिला नहीं हो सकती है. यह बहुत संभव है कि नबियों के बीच ऐसी महिलाएं हैं, जिनके नाम अज्ञात हैं.

इसके अलावा, हालांकि मनुष्य जानवरों के मुकाबले आध्यात्मिक श्रेष्ठता का दावा कर सकते हैं, लेकिन पुरुषों और महिलाओं के बीच ऐसा अंतर नहीं हो सकता. ऐसे पुरुष हो सकते हैं, जो अन्य पुरुषों और महिलाओं से आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ हैं और इसी तरह महिलाएं आध्यात्मिक रूप से पुरुषों और महिलाओं से बेहतर हो सकती हैं. अपनी बात को साबित करने के लिए वे हजरत फातिमा (पैगंबर मुहम्मद की बेटी) और रहस्यवादी कवि राबिया बसरी के उदाहरणों पर चर्चा करते हैं.

मुमताज अली पूरी तरह इस तर्क को खारिज करते हैं कि अल्लाह ने एडम के बाद ईव को बनाया, ताकि उसे साथी मिल सके. उनके विचार में काउंटर तर्क यह है कि अल्लाह जो सब कुछ जानता है. वह अतीत, वर्तमान और भविष्य को पूरी तरह से जानता था कि वह ईव बनाने जा रहा है. इसलिए ईव का साहचर्य रखने के लिए उसने ईव से पहले एडम को बनाया, यह तर्क अधिक प्रशंसनीय है.

शिक्षा या किताबें महिलाओं के लिए फिट नहीं 

फिर मुमताज अली इस तर्क पर आते हैं कि हर मुसलमान के लिए लिंग-भेद के बिना ज्ञान प्राप्त करना अनिवार्य है, इसलिए महिलाओं को उसी तरह शिक्षित किया जाना चाहिए जैसे कि पुरुषों को. जो लोग यह कहते हैं कि कुछ तरह की शिक्षा या किताबें महिलाओं के लिए फिट नहीं हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि अगर कोई किताब समाज के लिए खतरनाक है, तो यह दोनों लिंगों के लिए खतरनाक होगी, अकेले महिलाओं के लिए नहीं. मुमताज अली के विचार में, महिलाओं को उसी तरह शिक्षित करना एक धार्मिक कर्तव्य है, जिस तरह से पुरुषों को सिखाया जा रहा है.

परदा प्रथा

मुमताज अली का परदा प्रथा पर तर्क है कि शील (लज्जा) के बारे में कुरान की जो आयतें विश्वासियों को अपनी आंखें नीची रखने और अपने निजी अंगों को ढंकने के लिए कहती हैं, वे पुरुषों और महिलाओं पर समान रूप से लागू होती हैं. एक और आयत है, जो महिलाओं को स्तनों को ढंकने के लिए कहती है, यह शालीन पहनावे का हिस्सा भर है, लेकिन यह आयत महिलाओं को उनके सामाजिक और आर्थिक जीवन में अक्षम नहीं करती है. कुरान में जब महिलाओं को पूर्व-इस्लामिक समय की तरह हर जगह नहीं जाने के लिए कहा जाता है, तो यह उन्हें हर समय घरों के अंदर रहने के लिए भी नहीं कहती है. संक्षेप में, उन्होंने हदीस और कुरान की आयतों के साथ तर्क दिए हैं कि महिलाओं को अपने चेहरे और हाथों को खुला रखने की अनुमति है. इसके अलावा कोई भी इस्लामिक नियम नहीं है कि महिलाएं घरों से बाहर कदम नहीं रख सकतीं, जो उन दिनों की एक सामान्य प्रथा थी.

कम उम्र में शादी और गर्भाधान

मुमताज अली कम उम्र में विवाह को इस आधार पर हतोत्साहित करते हैं कि इस्लाम में समझा जाता है कि पुरुष और महिला विवाह के लिए सहमति दें. इसलिए, उन्हें उस उम्र का होना चाहिए, जब वे यह समझ सकें कि दांव पर क्या लगने वाला है. वह आगे तर्क देते हैं कि कम उम्र में गर्भावस्था भी इस्लामी शिक्षाओं के अनुरूप नहीं है. पुस्तक में उन्होंने दहेज और फिजूलखर्ची वाले विवाह समारोहों के खिलाफ भी तर्क दिया है.

मुमताज अली किताब में सामाजिक बुराईयों को दूर करने की खातिर महिलाओं के लिए स्कूल खोलने और पत्रिकाओं का छापने के समाधान सुझाते हैं.  

मुमताज अली का यह मज़मून भारतीय मुस्लिम समाज के वर्तमान मानकों के मुकाबले भी क्रांतिकारी लगता है और मुमताज अली ने इसे आज से लगभग 125 साल पहले लिखा था. कोई आश्चर्य नहीं कि लोगों ने उनकी आलोचना की थी और शुरुआती 1000 प्रतियों को छापने के बाद किताब फिर कभी नहीं छपी. बहुत से लोग, जिन्हें मुमताज अली ने किताब की मुफ्त प्रतियां भेजीं थी, उन्होंने गालियों से भरे पत्रों के साथ उन्हें वापस कर दिया था. जिस तरह हम समय के साथ आगे बढ़ रहे हैं, तो हमें प्रेरणा के लिए मुमताज अली की ओर देखना चाहिए.