अब तालिबान, अमेरिका और शेष दुनिया

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 18-08-2021
तालिबान
तालिबान

 

राकेश चौरासिया / नई दिल्ली

दोहा समझौता के बाद अमेरिकी और मित्र देशों के 2001 से अफगानिस्तान में जमे फौज-फांटे का लंगर उठना और तालिबान का आना तय तो था, लेकिन अमेरिका का जल्दबाज इवेक्युएशन और तालिबान की वेगवान वापसी चौंकाने वाली रही. अभी अफगानिस्तान सुन्न है, जैसे गर्म धारे की मछली को ठंडे पानी में आकर शॉक लगता है. भारी अव्यवस्था है. किंतु काल-चक्र के हाथों चीजों का बदलना लाजिमी है.

अमेरिका गया. मीडिया के कुछ तबकों में अमेरिका के वियतनाम और ईराक के ऑपरेशन की तरह अफगान मिशन को भी विफल करार दिया जा रहा है. वजह यह है कि तालिबान ने तेजी से कब्जा कर लिया. पशेमानी की हालत में लोगों का काबुल एयरपोर्ट पर फायरिंग और भगदड़ के बावजूद हजारों की तायदाद में जमे रहना, हताशा के आलम में अमेरिकी सी-17 विशालकाय विमान के पहियों से लटककर अफगान सीमा से बाहर निकलने का मंसूबा बनाना और महिलाओं के बीच दो दशक पुराने जुल्मो-सितम के आहट की अफरातफरी के लिए अमेरिका को दोषी करार दिया जा रहा है.

इसकी शुरुआत यूं हुई थी कि 9/11 के बाद तालिबान के आंचल में छुपे अलकायदा को सबक सिखाने के लिए अमेरिका अपने लाव-लश्कर के साथ अफगानिस्तान पहुंचा. 2001 से 2021 के दो दशकों में अमेरिका और मित्र देशों ने अफगानिस्तान में जो भी किया, उसे न तो अफगानी भूल पाएंगे और न ही तालिबान की राहें अब उतनी आसान रह गई हैं.

अमेरिकी प्रभाव में अफगानिस्तान में कई बदलाव हुए. 2001 से अब तक पुरानी पीढ़ी ने खुली हवा, लोकतंत्र, शिक्षा, विकास, शासन में भागेदारी, रोजगार-धंधे, शेष दुनिया से जुड़ाव आदि परिभाषाओं को समझा और जिया. पिछले अनुभवों के मुकाबले इस पुरानी पीढ़ी को यह स्वाद भाना ही था. 2001 के बाद एक नई पीढ़ी भी पूरी तरह युवा हो चुकी है, जिसने तालिबान शासन के दुर्दांत किस्से और कहानियां सिर्फ अपने अम्मी-अब्बू और बड़े-बूढ़ों से सुने हैं. इन दो दशकों में मोबाइल फोन और इंटरनेट ने अफगानिस्तान को संसार से जिस तरह जोड़ा, वह प्रवाहमान संपर्क और संवाद अफगानियों ने कभी सोचा भी न था. साइबर दुनिया के जरिए ग्लोबल विलेज का हिस्सा बन चुके अफगानिस्तान की नई पीढ़ी अब तक या तो सोसायटी को टेकओवर कर चुकी है या करने को तैयार है.

नए लाभकारी अनुभवों से गुजरी पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी को अब अफगानिस्तान का बाकी दुनिया से कट जाना क्या मंजूर होगा? यह उतना ही मुश्किल है कि भारत में कोई पिता अपने बेटे को मोबाइल फोन से मुक्त कर दे. बात सिर्फ मोबाइल या इंटरनेट की नहीं है. आज लगभग 70 फीसदी अफगानी स्मार्टफोन इस्तेमाल करते हैं और यह वे संसाधन हैं, जिनसे अफगान कला, संस्कृति, शिक्षा, व्यापार, उद्योग और कुछ अन्य भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहा. संचार माध्यमों ने न केवल उत्तरोतर विकास को रवानी दी है, बल्कि उसे धार भी दी है. 

अमेरिका-पूर्व परिदृश्य से पहले अफगानिस्तान में लड़कियों का एक भी विशेष स्कूल नहीं था. लड़कियों को फकत दीनी तालीम तक महदूद रखा जाता था. अब लाखों अफगान युवक और युवतियां मॉडलिंग, फैशन, शिक्षा जगत, इंजीनियरिंग, मेडिकल, मीडिया आदि क्षेत्रों से जुड़कर अपने संपनों को पंख दे रहे हैं. सैकड़ों की संख्या में लड़कियों के स्कूल खुले हैं. कॉलेजों और यूनीवर्सिटी का विस्तार हुआ है. उच्च शिक्षित युवाओं ने अफगानी फलक के बाहर दूसरे मुल्कों में भी अपने पांव जमाए हैं और वे वहां अपने करयिर को बुनने में जुटे हैं. इस समयांतराल में एक अफगान डायस्पोरा भी तैयार हुआ है.

बदलाव की बयार के इन लक्षणों को अगर आंकड़ों की शक्ल दी जाए, तो वर्ल्ड बैंक आंकड़े बताते हैं कि 2001के बाद जब भारत सहित अन्य पश्चिमी देशों में अफगानी अर्थव्यवस्था में तरलता लानी शुरू की और डॉलर्स पंप किए, तो 2003 से 2012 तक अफगान विकास दर 9.4 प्रतिशत के औसत से आगे बढ़ी. वहां की लगभग 60प्रतिशत आबादी कृषि-आय पर आश्रित थी, वह 2003 से 2012 के बीच कृषि क्षेत्र विस्तार, सेवा क्षेत्र, वाणिज्य, उद्योग से भी जुड़ी और समाज के अन्य वर्गों को भी इसका लाभ हुआ. इसके बाद कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय उथल-पुथल के कारण अफगान इकॉनोमी की ग्रोथ 2.5 प्रतिशत ही रह गई.

किंतु अमेरिका, भारत और मित्र देशों के नेतृत्व वाले इन दो दशकों में ऐसा पहली बार हुआ कि अफगानिस्तान में स्थिरता के साथ बाद-ए-तरक्की ने जन-जीवन और समाज को आमूच-चूल प्रभावित ही नहीं किया, बल्कि ‘ऐसा भी हो सकता है’ की उम्मीद को जिंदा भी किया.

अफगानिस्तान में अमेरिका की हार देखने वालों के लिए यह नजरिया थोड़ा परेशान कर सकता है.

अब उसकी परिणति का आंकलन देखिए, जो परिवर्तन इस कालखंड में अफगानी समाज में हुए. कला, संस्कृति, शिक्षा, रोजगार और उद्योग के फायदों को अपनी खुली आंखों से देख चुका और उन्हें मन से आत्मसात कर चुका अफगानी अवाम अब तालिबानी शासन में अपनी दुनिया उजड़ने पर चुप बैठा रहेगा?

ऐसे वीडियो भी सोशल मीडिया में साझा हुए हैं, जिनमें तालिबानियों के पैरों में चप्पल भी नहीं थी और वे नंगे पैर थे. मगर उनके हाथों में कमसकम एके-57, हैंडी राकेट लॉन्चर और मल्टी बैरल गन भी दिखाई पड़े. यह तालिबानी खौफ इस समय अफगानियों के सिर चढ़कर बोल रहा है. मगर कब तक?

क्या बंदूक की नोक से अफगानियों को दबाया जा सकता है. शायद नहीं. तालिबानी अगर ऐसा सोचते हैं, तो यह उनकी दूसरी बड़ी गलती होगी.

भारत में मराठों के लिए कहते हैं, मर हटे, यानि वो जो युद्ध क्षेत्र में मरकर हटे, जो मरहटे, फिर मरहठे, अंततः मराठे हुए. भारतीय राजपूतों के लिए कहा जाता है, कुक्कुर जीवे 12साल और क्षत्री जीवे अठारह साल. इसी तरह गोरखाओं के नेपाल में एक मुस्लिम शासक ने सिर्फ एक बार हमला करने की नाकाम नादानी की थी. मराठों, राजपूतों और गोरखाओं की तरह अफगान भी अजेय रहे हैं. 1947के पहले भारतीय उप महाद्वीप में अंग्रेज भी अफगानिस्तान को यूनियन जैक तले लाने के लिए बस ऐड़ी-चोटी का जोर लगाते ही रह गए. यहां तक कि उन्हें अफगानिस्तान में सुरक्षित आवाजाही के लिए क्षेत्रीय अफगान सरदारों को ‘जबरिया टैक्स’ देना पड़ता था. तालिबान को यह समझना होगा कि जिस नस्ल के वे हैं, उसी नस्ल की अवाम भी है.

तालिबान ने अफगानिस्तान पर कबीलाई रस्मो-रिवाज और कानून थोपने की कोशिश की थी. उसने एक सत्तारूढ़ लोकतांत्रिक दल की तरह व्यवहार नहीं किया. यही कारण था कि उसे 2001में सत्ताच्युत होना पड़ा.

हालांकि तालिबान के साथ एक सुविधा है. यह मनोविज्ञान पूरी धरती पर है कि लोग परायों के बजाय अपनों से शासित होना पसंद करते हैं. इसलिए देर-सबेर अमेरिकी सिस्टम की विदाई होनी ही थी.

किंतु तालिबान के पास एक ही सूरत है कि जब आम अफगानी उनके द्वारा शासित होना पसंद कर सकते हैं. और वो है कि तालिबान एक जिम्मेदार जम्हूरी सियासी पार्टी के तौर पर व्यवहार करे और सत्ता में सभी अफगान फिरकों, समूहों और महिलाओं को भागेदारी समान रूप से सुनिश्चित करे.

तालिबान के प्रवक्ताओं ने सोशल मीडिया पर तालिबान 2.0 के रोड मैप का खुलासा करते हुए बताया है कि महिलाओं को शरीयत के दायरे में अधिकार दिए जाएंगे, बाहिजाब लड़कियां और महिलाएं शिक्षा ग्रहण कर सकेंगी और कार्यस्थालों पर काम भी कर सकेंगी, अफगान धरती पर दोबारा ‘अलकायदा’ या ‘लश्करे-तैयबा’ न होगा यानि विदेशी आतंकियों को अफगानी खुराक नहीं मिलेगी, भारत अपने अधूरे प्रोजेक्ट पूरे कर सकता है और अर्थव्यवस्था को दुनिया और पश्चिमी देशों का सक्रिय सहयोग चाहिए.

ये वायदे इस शर्त पर हजम किए जा सकते हैं कि आने वाले दौर में तालिबान की कथनी और करनी में अंतर न दिखे.

लब्बोलुवाव यह है कि अफगानी समाज कृषि आधारित अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त गैर-कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से भी जुड़ चुका है. स्वप्नदर्शी अफगान युवाओं को अब इन सामाजिक-आर्थिक बदलावों से मोड़ने या महरूम करने की कोई भी कोशिश तालिबान के लिए आत्मघाती साबित होगी.