प्रो. अख़्तरुल वासे
यदि आप भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं और विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी और भारतीय संसद में उनके प्रतिनिधित्व को देखें, तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि शुरू से अब तक केवल 20 मुस्लिम महिलाओं को संसद सदस्य के रूप में चुना गया है.
आप कह सकते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को ही क्या मुसलमान पुरुषों को भी उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व कब और कहां मिला है, लेकिन इस संसदीय प्रणाली में, जहां अच्छे लोगों का अकाल है उसमें एक मुस्लिम महिला ने यह कीर्तिमान स्थापित किया है कि वह 1978, 1980 और 1984 में लोकसभा के लिए लगातार निर्वाचित हुईं.
1978 में एक ऐसे वक्त में वह आज़मगढ़ से (पूर्वी उत्तर प्रदेश) से जीतीं जब पाकिस्तान से बांग्लादेश की सरहद तक 1977 में कांग्रेस को ज़बरदस्त हार का सामना करना पड़ा था तथा नागौर (राजस्थान) और छिंदवाड़ा (मध्यप्रदेश) को छोड़कर इंदिरा गांधी और संजय गांधी सहित उसका कोई भी उम्मीदवार जीत नहीं पाया था.
यह कामयाबी उस समय की उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष और अवध के एक रूढ़िवादी, संभ्रांत मुस्लिम परिवार की राजनीतिज्ञ मोहसिना क़िदवई को मिली और उनकी सफलता ने कांग्रेस को नया जीवन दिया. देखते ही देखते 1980 में एक दफ़ा फिर कांग्रेस केंद्र में न केवल सत्ता में आई बल्कि अधिकांश राज्यों की विधानसभाओं में भी बहुमत हासिल किया.
मोहसिना क़दवई ने न केवल 1960 से 2016 तक भारतीय राजनीति को देखा, बल्कि उसके सभी उतार-चढ़ाव का हिस्सा भी रहीं और उन सबके विवरण को उन्होंने ‘‘हिंदुस्तान सियासत और मेरी ज़िंदगी’’ (My Life in Indian Politics) के नाम से इसको उर्दू और अंग्रेज़ी में इकट्ठा कर दिया.
उन्होंने जो कुछ बयान किया उसको वरिष्ठ पत्रकार और कई ऐतिहासिक राजनीतिक पुस्तकों के लेखक राशिद क़दवई द्वारा पूरी ईमानदारी के साथ हम तक पहुंचा दिया गया है.
पुस्तक आजमगढ़ चुनाव से ही शुरू होती है, और यह अपरिहार्य था कि मोहतरमा मोहसिना क़िदवई ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के टिकट पर एक असाधारण साहसिक कदम के रूप में चुनाव लड़ा.
ऐसे समय में जब कांग्रेस का सूर्य अस्त होता दिख रहा था, वह मोहसिना क़दवई ही थीं जिन्होंने कांग्रेसियों को दृढ़ संकल्प और साहस दिया किः
अपने पैदा किए सूरज की दुआएं मांगो
भीक मांगी हुई किरणों का भरोसा क्या है
और उसके बाद 1989 तक इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस सक्रिय रही और इंदिरा गांधी और राजीव गांधी दोनों ने मोहसिना क़िदवई को अपने मंत्रालयों में शामिल किया और यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि बिना किसी आरोप-प्रत्यारोप के मोहसिना क़दवई ने इन मंत्रालयों को पूरी पारदर्शिता के साथ संभाला.
यह पहली बार नहीं था जब वे किसी मंत्रालय की प्रभारी थीं, उत्तर प्रदेश में भी वे राज्य सरकारों में मंत्री रहीं और उन्होंने पार्टी का नेतृत्व भी किया, सांगठनिक दायित्वों को भी बखूबी निभाया.
चाहे यूपी में बेहद कठिन समय में कांग्रेस की अध्यक्षता करना हो या एआईसीसी महासचिव के रूप में ज़िम्मेदारियों को निभाना हो. केरल से लेकर हिमाचल तक, बिहार और छत्तीसगढ़ सहित, उन्होंने कई प्रांतों में कांग्रेस को सत्ता के क़रीब रखने की पूरी कोशिश की, और उसमें वे अक्सर सफल भी रहीं.
मोहसिना क़िदवई 1960 में केवल 28 वर्ष की आयु में उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य बन गई थीं और इससे पहले उनके ससुर जनाब जमीलुर्रहमान क़िदवई उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति के प्रमुख स्तंभ थे.
दिलचस्प बात यह है कि मोहतरमा मोहसिना क़िदवई ने राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे कि उन्हें या उनके ख़ानदान को किसी तरह की शर्मिंदगी हो.
वह एक कट्टर मुस्लिम, प्रबुद्ध और धर्मनिरपेक्ष समर्थक नेता के रूप में आगे बढ़ती चली गईं. निस्संदेह उन्हें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी का समर्थन प्राप्त था और सबसे बड़ी बात यह कि उनके ससुर जमील क़िदवई साहब के प्रोत्साहन और राजनीतिक मार्गदर्शन ने असाधारण भूमिका निभाई.
मोहसिना क़िदवई को जानने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके राजनीतिक उदय में उनके पति खलीलुर्रहमान क़िदवई का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है.
आमतौर पर सफल पुरुषों के लिए यह कहा जाता है कि उनकी सफलता के पीछे एक महिला (अर्थात उनकी पत्नी) का हाथ होता है, लेकिन मोहरमा मोहसिना क़िदवई के लिए यह कहा जा सकता है कि उनकी सफलता और उत्थान और के पीछे एक मर्द (अर्थात् उनके पति) का हाथ रहा है.
इस पुस्तक में जगह-जगह आपको हिंदुस्तानी सियासत के प्रसिद्ध लोगों जिनमें सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, दिग्विजय सिंह, एके एंटनी, भूपेश बघेल, डॉ. शशि थरूर, शर्मिला टैगोर और शबाना आज़मी के मोहतरमा मोहसिना क़िदवई के बारे में सराहनीय छाप मिलेगी.
उसी तरह मोहतरमा मोहसिना क़िदवई ने भी इस किताब में राजनीति में अपने सहयोगियों और समकालीनों के बारे में अपनी राय को एक असाधारण विस्तार और कुछ हद तक बेबाकी से दर्ज किया है.
इनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी, डॉ. मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, अहमद पटेल, लालू प्रसाद यादव, चंद्रशेखर, देववाड़ा, आई के गुजराल और उनके साथ काम कर चुके माधवराव सिंधिया, सचिन पायलट का उल्लेख भी इस किताब में मिलता है.
इनके अलावा नरसिम्हा राव, जितेंद्र प्रसाद और मुलायम सिंह यादव का उल्लेख और उनके बारे में मोहसिन क़िदवई की राय मालूम होती हे. इन सबको जानकर एक बात समझ में आती है कि मोहतरमा मोहसिना क़िदवई कुछ हद तक कबीरपंथी बन गई हैं किःना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर
वह अत्यंत शालीनता, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ अपने विचार व्यक्त करती हैं और उन्होंने अपने दौर की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को उजागर करने से भी परहेज़ किया है.
यदि वह राजीव गांधी और नरसिम्हा राव के समय की घटनाओं और हादसों, जो कुछ हद तक कांग्रेस के पतन का कारण बने, उन पर भी कुद प्रकाश डालतीं तो अच्छा होता.
इस पुस्तक में मोतरमा मोहसिना क़िदवई की छवि जहां एक समझदार और कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में उभर कर सामने आती है, वहीं एक आदर्श पत्नी, एक अच्छी मां, एक अच्छी बहन और परिवार में सबका ख्याल रखने वाली महिला के रूप में उनका व्यक्तित्व भी उभर कर सामने आता है.
वह अपनी बेटियों और दामादों का उल्लेख जिस मोहब्बत से करती हैं वह अत्यंत प्रिय है। जिन शब्दों में उन्होंने अपनी पुस्तक अपने शौहर मरहूम खलीलुर्रहमान क़िदवई को समर्पित की है, वह एक वफ़ादार और अनुकरणीय पत्नी की भावनाओं को दर्शाती हैं। उन्होंने लिखा हैः
‘‘यह किताब मैं अपने शौहर मरहूम ख़लीलुर्रहमान क़िदवई को समर्पित करती हूँ जिन्होंने हमेशा मुझे अपने ख़्वाबों की तरफ़ परवाज़ करने और समाज और राष्ट्र की सेवा करने के लिए प्रेरित किया है। ख़लील, आपकी रूह (आत्मा) हमेशा मेरे साथ रही है.’’
इस पुस्तक की मुख्यपात्र मोहसिना क़िदवई और उनको बयान करने वाले राशिद क़िदवई का ना केवल बाराबांकी के क़िदवई ख़ानदान हैं बल्कि इन दोनों का खानदानी तअल्लुक़ सिद्क़-ए-जदीद वाले मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी से है जिन्हें मोहसिना क़िदवई दादा कहती थीं और वह रशीद क़िदवई के सगे नाना थे.
यदि मोहतरमा मोहसिना क़िदवई कांग्रेस की दृढ़निश्चयी और क़द्दावर नेता रही हैं तो रशीद क़िदवई ने एक प्रमुख पत्रकार, लेखक, स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में अपनी पहचान बनाई है.
बहरहाल, मोहतरमा मोहसिना क़िदवई को उनके 90 वें जन्मदिन पर भारतीय राजनीति और उनके जीवन के बारे में कुछ बताने का शुभ निर्णय लेने के लिए धन्यवाद, और मोहसिना क़िदवई के साथ साझा की गई बातों को पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ पाठकों के सामने पेश करने के लिए रशीद क़िदवई का शुक्रिया.
यह पुस्तक पहले से ही अंग्रेज़ी और उर्दू में उपलब्ध है, अब इसे हिंदी में अनुवाद करके जल्द से जल्द पाठकों तक पहुंचाना चाहिए क्योंकि पूरी ईमानदारी और सादगी से लिखा गया यह वृत्तांत (जीवनी) सिर्फ़ एक राजनेता का वृत्तांत नहीं बल्कि किसी हद तक भारतीय राजनीति के एक पूरे युग का जायज़ा है.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं)