मोहसिना क़िदवई : एक सफल सियासतदां

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 27-11-2022
 मोहसिना क़िदवई : एक सफल सियासतदां
मोहसिना क़िदवई : एक सफल सियासतदां

 

wasayप्रो. अख़्तरुल वासे
यदि आप भारतीय लोकतंत्र में महिलाओं और विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं की ‎भागीदारी और भारतीय संसद में उनके प्रतिनिधित्व को देखें, तो आपको यह जानकर ‎आश्चर्य होगा कि शुरू से अब तक केवल 20 मुस्लिम महिलाओं को संसद सदस्य के रूप में ‎चुना गया है.

आप कह सकते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को ही क्या मुसलमान पुरुषों को ‎भी उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व कब और कहां मिला है, लेकिन इस संसदीय ‎प्रणाली में, जहां अच्छे लोगों का अकाल है उसमें एक मुस्लिम महिला ने यह कीर्तिमान ‎स्थापित किया है कि वह 1978, 1980 और 1984 में लोकसभा के लिए लगातार निर्वाचित ‎हुईं.
 
1978 में एक ऐसे वक्त में वह आज़मगढ़ से (पूर्वी उत्तर प्रदेश) से जीतीं जब पाकिस्तान ‎से बांग्लादेश की सरहद तक 1977 में कांग्रेस को ज़बरदस्त हार का सामना करना पड़ा था ‎तथा नागौर (राजस्थान) और छिंदवाड़ा (मध्यप्रदेश) को छोड़कर इंदिरा गांधी और संजय ‎गांधी सहित उसका कोई भी उम्मीदवार जीत नहीं पाया था.
 
यह कामयाबी उस समय की ‎उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष और अवध के एक रूढ़िवादी, संभ्रांत मुस्लिम परिवार ‎की राजनीतिज्ञ मोहसिना क़िदवई को मिली और उनकी सफलता ने कांग्रेस को नया ‎जीवन दिया. देखते ही देखते 1980 में एक दफ़ा फिर कांग्रेस केंद्र में न केवल सत्ता में ‎आई बल्कि अधिकांश राज्यों की विधानसभाओं में भी बहुमत हासिल किया.
 
मोहसिना क़दवई ने न केवल 1960 से 2016 तक भारतीय राजनीति को ‎देखा, बल्कि उसके सभी उतार-चढ़ाव का हिस्सा भी रहीं और उन सबके विवरण को ‎उन्होंने ‘‘हिंदुस्तान सियासत और मेरी ज़िंदगी’’ (My Life in Indian Politics) के नाम से इसको उर्दू और अंग्रेज़ी में ‎इकट्ठा कर दिया.
 
उन्होंने जो कुछ बयान किया उसको वरिष्ठ पत्रकार और कई ‎‎ऐतिहासिक राजनीतिक पुस्तकों के लेखक राशिद क़दवई द्वारा पूरी ईमानदारी के साथ हम ‎तक पहुंचा दिया गया है.
 
पुस्तक आजमगढ़ चुनाव से ही शुरू होती है, और यह अपरिहार्य था कि मोहतरमा ‎मोहसिना क़िदवई ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के टिकट पर एक असाधारण ‎साहसिक कदम के रूप में चुनाव लड़ा.
 
ऐसे समय में जब कांग्रेस का सूर्य अस्त होता दिख ‎रहा था, वह मोहसिना क़दवई ही थीं जिन्होंने कांग्रेसियों को दृढ़ संकल्प और साहस दिया ‎किः‎
 
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और उसके बाद 1989 तक इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ‎सक्रिय रही और इंदिरा गांधी और राजीव गांधी दोनों ने मोहसिना क़िदवई को ‎अपने मंत्रालयों में शामिल किया और यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि बिना किसी ‎आरोप-प्रत्यारोप के मोहसिना क़दवई ने इन मंत्रालयों को पूरी पारदर्शिता के साथ ‎संभाला.
 
यह पहली बार नहीं था जब वे किसी मंत्रालय की प्रभारी थीं, उत्तर प्रदेश में ‎भी वे राज्य सरकारों में मंत्री रहीं और उन्होंने पार्टी का नेतृत्व भी किया, सांगठनिक ‎दायित्वों को भी बखूबी निभाया.
 
चाहे यूपी में बेहद कठिन समय में कांग्रेस की अध्यक्षता ‎करना हो या एआईसीसी महासचिव के रूप में ज़िम्मेदारियों को निभाना हो. केरल से लेकर ‎हिमाचल तक, बिहार और छत्तीसगढ़ सहित, उन्होंने कई प्रांतों में कांग्रेस को सत्ता के क़रीब ‎रखने की पूरी कोशिश की, और उसमें वे अक्सर सफल भी रहीं.
 
मोहसिना क़िदवई 1960 में केवल 28 वर्ष की आयु में उत्तर प्रदेश विधान ‎परिषद की सदस्य बन गई थीं और इससे पहले उनके ससुर जनाब जमीलुर्रहमान क़िदवई ‎उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति के प्रमुख स्तंभ थे.
 
दिलचस्प बात यह है कि मोहतरमा ‎मोहसिना क़िदवई ने राजनीति में अपनी जगह बनाने के लिए ऐसा कोई काम नहीं किया ‎जिससे कि उन्हें या उनके ख़ानदान को किसी तरह की शर्मिंदगी हो.
 
वह एक कट्टर ‎मुस्लिम, प्रबुद्ध और धर्मनिरपेक्ष समर्थक नेता के रूप में आगे बढ़ती चली गईं. निस्संदेह उन्हें ‎इंदिरा गांधी, राजीव गांधी का समर्थन प्राप्त था और सबसे बड़ी बात यह कि उनके ससुर ‎जमील क़िदवई साहब के प्रोत्साहन और राजनीतिक मार्गदर्शन ने असाधारण भूमिका निभाई.
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मोहसिना क़िदवई को जानने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि उनके राजनीतिक ‎उदय में उनके पति खलीलुर्रहमान क़िदवई का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा है.
 आमतौर ‎पर सफल पुरुषों के लिए यह कहा जाता है कि उनकी सफलता के पीछे एक महिला ‎‎(अर्थात उनकी पत्नी) का हाथ होता है, लेकिन मोहरमा मोहसिना क़िदवई के लिए यह कहा ‎जा सकता है कि उनकी सफलता और उत्थान और के पीछे एक मर्द (अर्थात् उनके पति) ‎का हाथ रहा है.
 
इस पुस्तक में जगह-जगह आपको हिंदुस्तानी सियासत के प्रसिद्ध लोगों जिनमें ‎सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, दिग्विजय सिंह, एके एंटनी, भूपेश बघेल, डॉ. शशि थरूर, ‎‎शर्मिला टैगोर और शबाना आज़मी के मोहतरमा मोहसिना क़िदवई के बारे में सराहनीय छाप ‎मिलेगी.
 
उसी तरह मोहतरमा मोहसिना क़िदवई ने भी इस किताब में राजनीति में अपने ‎सहयोगियों और समकालीनों के बारे में अपनी राय को एक असाधारण विस्तार और कुछ ‎हद तक बेबाकी से दर्ज किया है.
 
इनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, अर्जुन ‎सिंह, एनडी तिवारी, डॉ. मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, अहमद पटेल, लालू प्रसाद यादव, ‎चंद्रशेखर, देववाड़ा, आई के गुजराल और उनके साथ काम कर चुके माधवराव सिंधिया, ‎सचिन पायलट का उल्लेख भी इस किताब में मिलता है.
 
इनके अलावा नरसिम्हा राव, ‎जितेंद्र प्रसाद और मुलायम सिंह यादव का उल्लेख और उनके बारे में मोहसिन क़िदवई की ‎राय मालूम होती हे. इन सबको जानकर एक बात समझ में आती है कि मोहतरमा मोहसिना ‎क़िदवई कुछ हद तक कबीरपंथी बन गई हैं किः‎ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर

वह अत्यंत शालीनता, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ अपने विचार व्यक्त करती ‎हैं और उन्होंने अपने दौर की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं को उजागर करने से भी परहेज़ ‎किया है.
 
यदि वह राजीव गांधी और नरसिम्हा राव के समय की घटनाओं और हादसों, जो ‎कुछ हद तक कांग्रेस के पतन का कारण बने, उन पर भी कुद प्रकाश डालतीं तो अच्छा ‎होता.
 
इस पुस्तक में मोतरमा मोहसिना क़िदवई की छवि जहां एक समझदार और कुशल ‎राजनीतिज्ञ के रूप में उभर कर सामने आती है, वहीं एक आदर्श पत्नी, एक अच्छी मां, एक ‎अच्छी बहन और परिवार में सबका ख्याल रखने वाली महिला के रूप में उनका व्यक्तित्व भी ‎उभर कर सामने आता है.
 
वह अपनी बेटियों और दामादों का उल्लेख जिस मोहब्बत से ‎करती हैं वह अत्यंत प्रिय है। जिन शब्दों में उन्होंने अपनी पुस्तक अपने शौहर मरहूम ‎‎खलीलुर्रहमान क़िदवई को समर्पित की है, वह एक वफ़ादार और अनुकरणीय पत्नी की ‎भावनाओं को दर्शाती हैं। उन्होंने लिखा हैः‎
 
‎‘‘यह किताब मैं अपने शौहर मरहूम ख़लीलुर्रहमान क़िदवई को समर्पित करती हूँ जिन्होंने ‎हमेशा मुझे अपने ख़्वाबों की तरफ़ परवाज़ करने और समाज और राष्ट्र की सेवा करने के ‎लिए प्रेरित किया है। ख़लील, आपकी रूह (आत्मा) हमेशा मेरे साथ रही है.’’‎

इस पुस्तक की मुख्यपात्र मोहसिना क़िदवई और उनको बयान करने वाले ‎राशिद क़िदवई का ना केवल बाराबांकी के क़िदवई ख़ानदान हैं बल्कि इन दोनों का ‎‎खानदानी तअल्लुक़ सिद्क़-ए-जदीद वाले मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी से है जिन्हें ‎मोहसिना क़िदवई दादा कहती थीं और वह रशीद क़िदवई के सगे नाना थे.
 
यदि मोहतरमा ‎मोहसिना क़िदवई कांग्रेस की दृढ़निश्चयी और क़द्दावर नेता रही हैं तो रशीद क़िदवई ने एक ‎प्रमुख पत्रकार, लेखक, स्तंभकार और राजनीतिक विश्लेषक के रूप में अपनी पहचान बनाई ‎है.
 
बहरहाल, मोहतरमा मोहसिना क़िदवई को उनके 90 वें जन्मदिन पर भारतीय राजनीति ‎और उनके जीवन के बारे में कुछ बताने का शुभ निर्णय लेने के लिए धन्यवाद, और ‎मोहसिना क़िदवई के साथ साझा की गई बातों को पूरी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के साथ ‎पाठकों के सामने पेश करने के लिए रशीद क़िदवई का शुक्रिया.
 
यह पुस्तक पहले से ही ‎अंग्रेज़ी और उर्दू में उपलब्ध है, अब इसे हिंदी में अनुवाद करके जल्द से जल्द पाठकों तक ‎पहुंचाना चाहिए क्योंकि पूरी ईमानदारी और सादगी से लिखा गया यह वृत्तांत (जीवनी) ‎सिर्फ़ एक राजनेता का वृत्तांत नहीं बल्कि किसी हद तक भारतीय राजनीति के एक पूरे युग ‎का जायज़ा है.‎
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज़) हैं)