महबूबा का महबूब मुल्क पाकिस्तान है, भारत नहीं

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 23-08-2021
महबूबा को क्या पाकिस्तान से वाकई मुहब्बत है!
महबूबा को क्या पाकिस्तान से वाकई मुहब्बत है!

 

देशहित । मंजीत ठाकुर      

महबूबा मुफ्ती फिर से खबरों में हैं और एक बार फिर से उन्हीं वजहों से खबरों में हैं, जिसकी वजह से वह अमूमन में खबरों में बने रहने की कोशिश करती हैं. यानी भारत विरोधी और पाकिस्तानपरस्त बयान बाजी.

पहले तो महबूबा के बयान सियासी वजहों से आते थे और वह कथित ‘कश्मीरियत’के नाम पर पाकिस्तान समर्थकों की तरह बर्ताव करती थीं. पर इस बार उनके बयान के पीछे वजहें निजी हैं. जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार को शनिवार को धमकी दी कि कश्मीर का हाल अफगानिस्तान जैसा हो जाएगा. उन्होंने कहा, “अमेरिका को देखो, अफगानिस्तान से बोरिया-बिस्तर बांधकर मजबूर हो गया, इसलिए हम कश्मीरियों की परीक्षा मत लो.”

बहरहाल, इस बार का उनका बयान खिसियाहट से निकला है, जिसको साफतौर पर समझा जा सकता है. असल में महबूबा मुफ्ती की अम्मी गुलशन नजीर को प्रवर्तन निदेशालय ने पूछताछ के लिए तलब किया था. एजेंसी ने उनसे तीन घंटे तक लगातार पूछताछ की,और उसके बाद महबूबा ने यह उग्र बयान दिया है.

लेकिन, ऐसा नहीं है कि ऐसा बयान उन्होंने पहली दफा दिया हो. महबूबा मुफ्ती का रवैया अमूमन भारतविरोधी रहा है और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 270 निरस्त होने और सूबे के केंद्रशासित प्रदेश में बदनले के बाद ही उनके लिए राजनैतिक भविष्य तकरीबन अंधकारमय हो गया है. कम से कम निकट भविष्य में तो जरूर, जब तक सूबे को वापस राज्य का दर्जा नहीं मिल जाता.

वैसे, इससे पहले भी पीडीपी प्रमुख को ऐसे बयान देकर सुर्खियों में आने का चस्का रहा है. 2020 के 24 अक्तूबर को महबूबा ने राष्ट्रध्वज तिरंगे के खिलाफ बयान दिया था और कहा था, “जम्मू-कश्मीर को लेकर पिछले साल पांच अगस्त को संविधान में किए गए बदलावों को वापस नहीं ले लिया जाता, तब तक उन्हें चुनाव लड़ने और तिरंगा थामने में कोई दिलचस्पी नहीं है.”

असल में, 1996 में राजनीति में कदम रखने के बाद से ही महबूबा मुफ्ती ने अलगाववादियों के साथ खड़े होने में दिलचस्पी दिखाई है. 1996 के चुनावों में वह महबूबा हालांकि, कांग्रेस के टिकट पर बिजबिनहारा से चुनाव जीती थीं, लेकिन अपने राजनैतिक क्षितिज का विस्तार करने के वास्ते उन्होंने बड़ी समझदारी से आतंकवादियों के साथ बातचीत करने की वकालत शुरू कर दी.

घाटी में कोई भी आतंकवादी मुठभेड़ में मारा जाता, महबूबा उसके घर जानीं और अमूमन उस शोक में वह रोने लगती थीं.

इसका बहुत असर हुआ और आतंकवादियों ने महबूबा को अपना समर्थक समझना शुरू कर दिया.

1998में मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) का गठन किया. और तब, महबूबा के जिम्मे नवगठित पीडीपी को कश्मीरियों के बीच लोकप्रिय बनाने की चुनौती थी और इसके लिए उनका आतंकवादियों के प्रति समर्थन या नरमी का रुख अख्तियार करना बहुत काम आया, जिसे 'उदार अलगाववाद' कहा जा सकता है.

महबूबा की पीडीपी ने भारत-विरोधी लाइन पकड़ी और उन्होंने पार्टी के झंडे का रंग हरा और चुनाव चिन्ह कलम और दवात चुना. यह मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट के झंडे की नकल थी.

महबूबा मुफ्ती ने पीडीपी के 22वें स्थापना दिवस के मौके पर  28जुलाई 2021 को भी ऐसा ही बयान दिया था. उन्होंने अनुच्छेद 370 का विरोध, “भारत में एकमात्र मुस्लिम राज्य” का विभाजन बताकर किया.

देशविरोधी गतिविधियों में शामिल जब 11 लोगों को भारत सरकार ने नौकरी से बर्खास्त कर दिया था. तो भी महबूबा इसके विरोध में उतर आई थी. जबकि बर्खास्त किए गए लोग न सिर्फ टेटर फंडिंग में शामिल थे, बल्कि उनमें आतंकी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन के दो बेटे भी थे.

आतंकवादियों के पक्ष में खड़े होकर बयान देने की अपनी आदत से मजबूर महबूबा ने तब इस काम को ‘संविधानविरोधी’बताया था.

इतना ही नहीं, राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में शामिल रहने के साथ पत्थरबाजी गैंग चलाने वाला और आतंकवादियों से हाथ मिलाने वाला पीडीपी नेता वहीद-उर-रहमान पारा भी महबूबा के खासमखास लोगों में शामिल है.

एनआइए द्वारा विशेष अदालत में दायर चार्जशीट में यह दर्ज है कि वहीद ने बुरहान वानी को मार गिराए जाने के बाद कश्मीर घाटी में हिंसा जारी रखने के लिए हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता सैयद अली शाह गिलानी के दामाद अल्ताफ अहमद शाह उर्फ अल्ताफ फंटूश को पांच करोड़ रुपए दिए थे.

इसी तरह 9 नवंबर 2020 को भी महबूबा ने ऐसा ही भड़काऊ बयान देते हुए कहा था कि ‘मरने से बेहतर यही होगा कि वह हथियार उठा ले, जम्मू-कश्मीर के युवाओं के पास और कोई विकल्प नहीं.’

बहरहाल, अलगाववाद की सियासत की आंच अब धीमी पड़ रही है. घाटी के युवाओं को भी देश के बाकी राज्यों के नौजवानों की तरह रोजगार और तालीम की चिंता है, ऐसे में भड़काऊ बयानों के झांसे में वह अब कम ही आएगा. स्वाधीनता दिवस के मौके पर श्रीनगर के लाल चौक का तिरंगे में रंग जाना यही दिखाता है.