साकिब सलीम
अयोध्या में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बन रहे मस्जिद-अस्पताल परिसर का नामकरण इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन (IICF) द्वारा मौलवी अहमदुल्ला शाह फैजाबादी पर किया जा रहा है और इसका भारत में हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर दूरगामी परिणाम होगा. फाउंडेशन ने परिसर का नाम एक ऐसे मौलवी पर रखा है, जिसे भारत में तकरीबन भुलाया जा चुका है. इसके पीछे वैचारिक पूर्वाग्रह से लेकर, सियासी झुकाव और संवेदनशीलता की कमी की वजह से इतिहासकारों और लेखकों ने ऐसे व्यक्ति को नजरअंदाज कर दिया जिसने हिंदू और मुसलमानों को ब्रिटिशों के खिलाफ एकजुट किया था. अयोध्या के बारे में लिखते हुए अधिकतर इतिहासकारों का ध्यान महज बाबरी मस्जिद की तरफ रहा, जो ऐसा मसला रहा है जिसने भारत के दो सबसे बड़े धार्मिक समुदाय को बांट दिया, पर किसी ने मौलवी के बारे में लिखना उचित नहीं समझा, जो दोनों समुदायों के बीत एक पारस्परिक सम्मान का पुल बन सकते थे.
भारत में इतिहासकारों ने खुद को वाम और दक्षिण खेमों में बांट लिया और पिछले सात दशकों के दौरान प्रचलित विमर्श में काफी हद तक वामपंथियों का नियंत्रण रहा. सबसे पहले हिंदुत्व विचारक वीर दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक 'द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस ऑफ 1857' में मौलवी को कई पृष्ठ समर्पित किए.यह भी एक कारण हो सकता है कि मौलवी वामपंथी इतिहासकारों के बीच एक गुमनाम नायक बने रहे. कारण जो भी हो, यह एक कटु सत्य है कि मौलवी को वह पहचान नहीं मिली जिसके वे पात्र थे.
मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी अस्पताल-मस्जिद परिसर
वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में, यह असंभव लगता है लेकिन वीर सावरकर का मानना था कि मौलवी 1857के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख वास्तुकारों, नेताओं और शहीदों में से एक थे. अपनी पुस्तक में, सावरकर लिखते हैं:
“मौलवी अहमद शाह जैसे असाधारण रूप से प्रतिभाशाली नायकों के मामले में, उनकी मृत्यु उनके जीवन के समान ही महान और असाधारण है. कोई व्यक्ति युद्ध में मारे जाने पर मर सकता है, लेकिन जिसकी आत्मा देशभक्ति की ज्वाला के साथ धधकती साथ जलती है और जो "रक्त! रक्त!" के नारे के साथ युद्ध के मैदान में नृत्य कर रही है.ऐसा देशभक्त यदि बदला लेने की प्यास बुझने से पहले युद्ध में गिर भी जाए, तो भी वह नहीं मरता! देखा गया कि सिर काट दिए जाने के बावजूद, वीरों का कबंध युद्ध जारी रखता है, और एक धारणा है कि टुकड़े-टुकड़े कर देने के बाद भी उनकी अचेतन आत्माएं रात में दुश्मनों को परेशान करती हैं”
पुस्तक में मौलवी के लिए एक समर्पित अध्याय है. जबकि अधिकांश अध्याय विद्रोह के केंद्रों के नाम पर हैं, केवल मौलवी अहमदुल्ला, मंगल पांडे, रानी लक्ष्मी बाई, नाना साहिब, तात्या टोपे, कुमार सिंह और अमर सिंह के नाम पर पूरे अध्याय लिखे गए हैं.
मौलवी पर लिखा अध्याय रानी के बाद दूसरा सबसे लंबा है. इस पूरे अध्याय के अलावा सावरकर ने पुस्तक में कई स्थानों पर उकी भूमिका, प्रभाव और नेतृत्व की चर्चा की है.
पुस्तक में, सावरकर मौलवी की सैन्य रणनीति और योजनाओं की व्याख्या करते हैं. मौलवी के खान बहादुर खान, नाना साहिब, बेगम हजरत महल, रानी झांसी और अन्य के साथ गठबंधन था. राजा जगन्नाथ द्वारा 50,000 रुपये के इनाम के लिए विश्वासघात से उनकी हत्या के बाद, वे सभी नए जोश के साथ अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए. पुस्तक में मौलवी को एक महान सैन्य रणनीतिकार के रूप में सम्मानित किया गया है, जो दुश्मन पर हमला करना, गठबंधन करना और खून की आखिरी बूंद तक लड़ना जानता था.
सावरकर मौलवी की प्रशंसा एक ऐसे व्यक्ति के रूप में करते हैं जिन्होंने साबित कर दिया कि इस्लाम और राष्ट्रवाद के सिद्धांत पूरी तरह से सहमत हैं. पुस्तक में वे लिखते हैं:
"इस बहादुर मुसलमान के जीवन से पता चलता है कि इस्लाम के सिद्धांतों में गहरा विश्वास किसी भी तरह से भारतीय धरती के गहरे और सर्वशक्तिमान प्रेम के साथ असंगत या विरोधी नहीं है; कि एक मुसलमान, जो असामान्य रूप से आध्यात्मिक आवेग से शासित है, एक ही समय में, अपने इस तरह के प्रभुत्व के तथ्य से, सर्वोच्च उत्कृष्टता का देशभक्त भी हो सकता है, माता की वेदी पर अपना जीवन-रक्त अर्पित कर सकता है भारत ताकि वह एक स्वतंत्र और स्वतंत्र देश के रूप में अपना सिर ऊंचा कर सके; और यह कि इस्लाम में सच्चा आस्तिक इसे अपनी मातृभूमि के लिए गर्व और अपनी मातृभूमि के लिए मरने का सौभाग्य महसूस करेगा!"
मुझे उम्मीद है कि आइआइसीएफ केवल इस मिट्टी के बेटे के नाम पर मस्जिद-अस्पताल परिसर का नामकरण करके प्रतीकात्मकता पर नहीं रुकेगा और उनकी स्मृति को मनाने के लिए और भी कुछ करेगा. भारत को उन आदर्शों को जानने की सख्त जरूरत है जिनके लिए मौलवी ने अपना जीवन न्यौछावर कर दिया. किसी स्मारक, भवन, पार्क या परिसर का नामकरण उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता है, हमें लोगों को उस व्यक्ति और उसके सिद्धांतों के बारे में बताने की आवश्यकता है.
मुझे उम्मीद है कि लोग मौलवी के आदर्शों के बारे मं जानेंगे और हिंदू-मुस्लिम एकता के बारे में जानेंगे. हमें यह समझने की जरूरत है कि राष्ट्रवाद अन्य वैचारिक बाधाओं से आगे निकल जाता है और तभी हम समृद्ध हो सकते हैं.
(साकिब सलीम इतिहासकार और लेखक हैं)