नजरियाः महामारी के दौर में उदारीकरण के सबक

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 26-06-2021
महामारी के दौर में उदारीकरण के सबक
महामारी के दौर में उदारीकरण के सबक

 

मेहमान का पन्ना । अर्थव्यवस्था

हरजिंदर

महामारी ने सारे जश्न रोक दिए हैं. मेले और तीर्थयात्राएं इस बार नहीं हो रहीं, किसी तरह के समारोह की खबरें अब नहीं आतीं, शादियां भी घर-परिवार के चंद लोगों के बीच चुपचाप हो जाती हैं, ऐसे में यह उम्मीद भला कैसे की जा सकती है कि देश में उदारीकरण के तीन दशक पूरे हो जाने पर कोई आयोजन होगा. इसकी न तो बहुत ज्यादा चर्चा हो रही है और न ही किसी को ऐसी किसी चर्चा की बहुत ज्यादा जरूरत भी महसूस हो रही है. जबकि 1991 में शुरू हुई आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के ऐसे बहुत से सबक हैं जो आगे आने वाले दिनों में हमारे बहुत काम आ सकते हैं, खासकर इस महामारी के दौर में.

महामारी के अचानक आन पड़े संकट में अर्थव्यवस्था की स्थिति काफी खराब हो चुकी है और जीडपी की ग्रोथ रेट माईनस में पहंुच चुकी है. यानी इस समय देश कुछ हासिल नहीं कर रहा बल्कि गंवा ही रहा है. आजाद भारत ने ऐसा संकट कभी नहीं देखा. लेकिन अगर यहीं थोड़ा रुककर सोचें कि इसके पहले देश में बड़ा आर्थिक संकट कब आया था? इतना बड़ा संकट तो खैर कभी नहीं आया, लेकिन अगर ताजा इतिहास में पीछे जाएं तो 1990-91 में देश की अर्थव्यवस्था एक बहुत बड़े संकट में फंसी थीं. विकास दर तीन प्रतिशत से भी नीचे जा रही थी और सबसे बड़ी बात है कि देश के विदेशी मुद्रा कोष में एक सप्ताह के आयात लायक पैसा भी नहीं बचा था. देश का कामकाज ठीक से चल सके इसके लिए सरकार स्वर्ण भंडार से सोना निकाल कर गिरवी रखने को मजबूर थी. और यह काम कईं बार करना पड़ा था.

आज महामारी के कारण जो आर्थिक संकट है उसमें हम यह जानते हैं कि एक बार अगर महामारी खत्म हुई तो अर्थव्यवस्था की हरियाली फिर लौटने लगेगी. लेकिन तीस साल पहले देश के पास ऐसी उम्मीदें भी नहीं थीं. इस लिहाज से वह संकट ज्यादा बड़ा भी माना जा सकता है. वैश्विक संकट के रूप में उस समय पहला खाड़ी युद्ध जरूर चल रहा था, लेकिन उसका हमारे आर्थिक संकट से बहुत ज्यादा लेना-देना नहीं था. और यह तो कहीं भी नहीं था कि अगर खाड़ी युद्ध बंद हो गया तो अर्थव्यवस्था अपने आप पटरी पर लौट आएगी.

तीस साल पहले हुए आर्थिक उदारीकरण का महत्व यही है कि उसने न सिर्फ हमें आर्थिक संकट से बाहर निकाला बल्कि लगातार विकास दर के रास्ते पर भी पहंुचा दिया. पिछले तीन दशक की अर्थ-कथा दरअसल इसी रास्ते पर आगे बढ़ने की कहानी है.

देश को आर्थिक संकट को निकालने के लिए एक साथ तीन स्तरों पर काम हुआ. एक तो कईं तरह के कदमों से वित्तीय घाटे को नीचे लाया गया. यह स्वीकार किया गया कि खर्चों को लेकर सरकार बेपरवाह नहीं हो सकती उसे जिम्मेदार बनना ही होगा. दूसरे स्तर पर कारोबार जगत को लाईसेंस और परमिट वगैरह से छूट दी गई. ऐसे बहुत से कानून-कायदे जो कारोबार विस्तार में बाधा बनते थे उन्हें हटाया गया. दरअसल, आर्थिक उदारीकरण की जड़ में सबसे बड़ी बात इस सच को स्वीकार करना ही था कि जिस तरह नागरिकों को आजादी दिए बगैर देश खुशहाल नहीं हो सकता उसी तरह कारोबार जगत को आजादी दिए बगैर अर्थव्यवस्था भी खुशहाल नहीं हो सकती. तीसरे स्तर पर देश की अर्थव्यवस्था को दुनिया की अर्थव्यवस्था से जोड़ने का काम हुआ. सबसे पहले भारतीय मुद्रा की कीमत तय करने के सरकारी तरीके को हटाकर उसे नियंत्रण से मुक्त किया गया और हर तरह के विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए गए.

इन्हीं सबका नतीजा था कि विकास दर तेजी से और लगातार बढ़ी जिससे देश की गिनती दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में होनी लगी. वह आर्थिक उदारीकरण ही था जिसके कारण भारत बाद में आई विश्वव्यापी आर्थिक मंदी को भी आसानी से झेल सका. उदारीकरण ने देश को सिर्फ विकास दर ही नहीं दी बल्कि अपने पावों पर खड़े होने का एक आत्मविश्वास भी दिया. इसी आत्मविश्वास की वजह से ही हम आज देश को पांच ट्रिलियन डाॅलर की अर्थव्यवस्था बनाने की बात करते हैं.

इस उदारीकरण की एक और सफलता यह भी रही कि इसने अर्थव्यवस्था को लेकर देश में एक राजनैतिक आम सहमति पैदा की. शुरू में हालांकि इसका काफी विरोध हुआ था, जिससे यह डर भी पैदा हुआ था कि राजनैतिक बदलाव के साथ ही यह सिलसिला रुक भी सकता है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बाद के दौर में दिल्ली में लगभग हर तरह की सरकार बनी, लेकिन किसी ने कभी भी उदारीकरण के इस पहिये को कभी उलटा घुमाने की कोशिश नहीं की.

हालांकि इस उदारीकरण में सब कुछ अच्छा ही हुआ हो ऐसा नहीं है. एक तो यह उदारीकरण सारी कोशिशों के बावजूद न तो भारतीय अर्थव्यवस्था को, न कारोबारी जगत को और भारत की व्यापारिक साख को वह चमक दे सका जो इस बीच चीन ने हासिल कर ली. और अब वियतनाम जैसे देश तेजी से इस दिशा में बढ़ रहे हैं. दूसरे जिस तरह से विकास दर बढ़ी उस अनुपात में देश में रोजगार के अवसर पैदा नहीं हुए, इसीलिए इसे जााॅबलैस ग्रोथ भी कहा जाता है. फिर इससे कईं मामलों में गांव और शहर का फासला बढ़ गया. 

तीस साल पहले अपनाए गए आर्थिक उदारीकरण के रास्ते ने देश को आगे बढ़ाने का जो रास्ता तैयार किया उसमें हम अर्थव्यवस्था को संकट से निकालने का ब्लूप्रिंट भी देख सकते हैं. बदलाव को लेकर राजनैतिक सहमति की ओर बढ़ना व साहस के साथ लगातार कोशिश करते रहना उस दौर की कुछ ऐसी चीजें हैं जो महामारी काल में आर्थिक संकट से उबरने में हमारी मदद कर सकती हैं.