आतिर खान
यदि पिछले अनुभवों पर ध्यान दिया जाए, तो जम्मू और कश्मीर अफगानिस्तान से आने वाले प्रभावों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील रहा है. निगहबानी में किसी भी किस्म की चूक के दूरगामी परिणाम हो सकते हैं. जम्मू-कश्मीर के लोगों को ला इकराहा फिदीन और कबीलाई कानूनों के बीच चुनाव करना होगा. उनके कर्म ही उनकी नियति तय करेंगे.
तालिबान के काबुल पर कब्जे के बाद से, खासतौर पर जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय से राजनीतिक वैधता की अपील अभी भी प्रतीक्षित है, एक बड़ी चिंता यह है कि निहित स्वार्थ वाली संस्थाएं और अफगानिस्तान में बड़ी पैठ रखने वाले सरदार जो तालिबान के साथ दूसरों के खिलाफ लड़े थे, अपने कैडर का रुख मोड़ सकते हैं. मुमकिन है कि उनका रुख जम्मू-कश्मीर की ओर हो.
जम्मू-कश्मीर के लोगों को पहले 1990के दशक में अफगान युद्धभूमि के 'महान खेल' का नतीजा भुगतना पड़ा था. अफगानिस्तान से सोवियत वापसी के साथ, पाकिस्तानी एजेंसियों और उसके छद्म संगठनों ने अपने लड़ाकों को जम्मू-कश्मीर की ओर भेज दिया था. नब्बे के दशक की शुरुआत में, जम्मू-कश्मीर मे पकड़े गए कई अफगान लड़ाकों ने राज खोला था कि वे लोग गुलबुद्दीन हिकमतयार के संगटन हिज्ब-ए-इस्लामी के सदस्य थे, जो जम्मू और कश्मीर में पाकिस्तान के छद्म संगठनों हरकत-उल-मुजाहिदीन और अल बर्क के लिए काम करने लगे थे.
असल में, अफगानी लड़ाके रहे अकबर भाई, जो हिकमतयार का अंगरक्षक भी था, वह बीएसफ के साथ मुठभेड़ में अगस्त 1993 में सोपोर में मारा भी गया था. यहां तक कि अल बद्र, जिसको बख्त जमीन ने नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में खड़ा किया था, में ऐसे कैडर थे हिज्ब-ए-इस्लामी के साथ काम करते थे और बाद में जिसे पहाड़ी बोलने वाले स्थानीय लोगों, जो उत्तरी कश्मीर और पुंछ-राजौरी के पहाड़ी इलाके के लोगों से भर दिया गया.
अफगानिस्तान में नब्बे के दशक में तालिबान की बढ़त के साथ, लड़ाई के आदती कैडर्स को अफगानिस्तान से धकेल कर कश्मीर की ओर भेजा गया और यह काम पाकिस्तान के छद्म संगठनों लश्कर-ए-तैय्यबा और हरकत-उल-अंसार (जैश-ए-मोहम्मद का पूर्व संगठन) जैसे संगठनों के तहत किया गया.
जम्मू और कश्मीर पुलिस में महानिदेशक के रूप में सेवा दे चुके गुरबचन जगत कहते हैं 1994 के बाद जम्मू-कश्मीर में मुख्य रूप से पाक प्रायोजित आतंकवाद को ‘जिहादी’या ‘इस्लामी’रंग देने के लिए विदेशी लड़ाकों, विशेष रूप से अफगानिस्तान और पाकिस्तान से, की संख्या में भारी वृद्धि हुई.
इन 'अतिथि' सेनानियों को स्थानीय लोगों के लिए स्वीकार्य बनाने के लिए, जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान के प्रचार तंत्र ने उन्हें बहुत मजहबी रूप में चित्रित किया, स्थानीय लोगों से उनके समर्थन को अच्छी तरह से पुरस्कृत किया गया.
अठारहवीं शताब्दी में कश्मीर के अफगान अनुभव की तरह, कठोर लड़ाके अफगानियों और पाकिस्तानी कैडरों ने स्थानीय लोगों, नागरिकों के साथ-साथ स्थानीय आतंकवादियों, को बेरहमी से अपने अधीन कर लिया. ये विदेशी, जिन्हें विस्तृत रूप से इस्लामी योद्धाओं के रूप में पेश किया गया था, जिन्होंने सोवियत को पराजित किया और इसके पतन का नेतृत्व किया, जल्द ही कश्मीरी लोकाचार और परंपराओं की मुखालफत में उतर आए.
अफगानी लड़ाके हारून खान मस्त गुल के मामले को, जो अफ-पाक सरहदी कबीलाई इलाके का था, इसकी मिसाल माना जा सकता है. वह दिसंबर, 1994 में बडगाम के चरार-ए-शरीफ में आया और इसका ब्योरा एक अन्य पाकिस्तानी आतंकवादी अब्दुल रहमान ने एक उर्दू पत्रिका में मार्च 1998 में दिया.
1995 तक हारून ने स्थानीय लोगों पर अपनी वर्चस्व स्थापित कर लिया था और वह उनका नेतृत्व तक करने लगा लेकिन मई 1995 में चरारे-शरीफ जलाने की घटना के बाद जनता का मिजाज बदल गया. इन विदेशी लड़ाकों और पाकिस्तान स्थित और उनके कब्जे वाले भारतीय इलाकों में स्थित उनके आकाओं का स्थानीय कश्मीरियों के साथ अंतर और बढ़ती दिखी जब हारून का पाक अधिकृत कश्मीर में उसके जाते ही इन कामों के लिए स्वागत किया गया.
4 अगस्त, 1995 को उनसे रावलपिडी, पाकिस्तान में एक सभा को संबोधित किया और कश्मीर में जिहाद को मजबूत करने का आह्वान किया, और उस समय वहां पर जमात-ए-इस्लामी, पाकिस्तान के प्रमुख काजी हुसैन अहमद और हिज्ब-उल-मुजाहिदीन सुप्रीमो यूसुफ शाह उर्फ सैयद सलाहुद्दीन भी था. जनता की यादद्दाश्त कमजोर होती है. चरार में पवित्र दरगाह के जलाए जाने और उस सहर के हजारों बाशिंधों के पलायन, जिनके मकान ध्वस्त कर दिए गए थे, भुला दिए गए.
जम्मू-कश्मीर में अफगान और पाकिस्तानी आतंकवादियों की मनमानी की कहानियां भी जगजाहिर हैं. 1990 के दशक के दौरान जम्मू-कश्मीर में नागरिक घरों में शरण लेने के दौरान उनके क्रूर रवैये और स्थानीय लोगों विशेष रूप से महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार ने 1990 के दशक के मध्य में इन विदेशियों के खिलाफ स्थानीय भावना को बदल दिया था. बिल्कुल वैसा ही जैसा पंजाब में हुआ, जब सिख आतंकवादियों ने पंजाब और यूपी में निर्दोष लोगों का शोषण किया. वे लोग नारकीय जीवन जीते थे क्योंकि वे कहीं शिकायत नहीं कर सकते थे, कहीं ऐसा न हो कि उनका कत्ल कर दिया जाए.
अफगानिस्तान में ताजा घटनाक्रम ने स्थानीय लोगों के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों के बीच आशंकाओं को बढ़ा दिया है. चिंताएं निराधार नहीं हैं क्योंकि अफगानिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा/जेईएम कैडर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के अलावा तालिबान के सांस्कृतिक आतंकवाद से अच्छी तरह वाकिफ हैं. तालिबान ने अफगानिस्तान में अपने शासन के दौरान, अफगानिस्तान के समृद्ध बहुसांस्कृतिक अतीत के चिन्हों को व्यवस्थित रूप से मिटा दिया था, जिसमें बौद्ध धर्म, पारसीवाद और सूफीवाद के प्रतीक शामिल थे. यह सब कुछ जम्मू और कश्मीर के नब्बे के दशक के अफगान लड़ाकों द्वारा चालित विदेशी आतंकवाद के तजुर्बे सरीखा ही है. जिसमें इस सूबे की समेकित संस्कृति को तबाह कर दिया गया था और सूफी प्रतीकों को ‘गैर-इस्लामिक’करार देते हुए छिन्न-भिन्न कर दिया गया था.
अतीत के अनुभवों के बावजूद, कश्मीर के समाज का एक तबका अभी भी अफगानिस्तान में तालिबान की जीत को इस्लाम की जीत कह रहे हैं. उन्हें खुद से एक सवाल करना चाहिए कि क्या इस्लाम की तालिबानी व्याख्या सटीक है और क्या वह अपने बच्चों को तालिबानी तरीके से बड़ा करना चाहेंगे.
अफगानिस्तान और दक्षिण एशिया के अन्य हिस्सों (जम्मू-कश्मीर सहित) में वैचारिक वैधता हासिल करने के लिए तालिबान के अपने देवबंद झुकाव को दोहराना, अफ-पाक के सीमावर्ती क्षेत्रों में मदरसा नेटवर्क से उभरने वाले नेताओं के कारण किया गया है. दिलचस्प बात यह है कि दारुल-उलूम देवबंद के मुख्य संरक्षक अरशद मदनी ने यह कहकर संस्थान को तालिबान से दूर कर दिया है कि इसका संस्थान से कोई लेना-देना नहीं है और वर्तमान संदर्भ में कोई संबंध बनाना अनुचित होगा.
तालिबान की आचार संहिता का कुरान और हदीस से कोई लेना-देना नहीं है, और इसकी धार्मिक विचारधारा एक विकृत व्याख्या भर है. कुरान कहता है ला इकराहा फिदीन- जिसका अर्थ है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह की इच्छा किसी को अपने धर्म को स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं करना है, हालांकि वह लोगों के लिए इस्लाम पसंद करता है. हालांकि,कबीलाई रवैया आदेशों के पूर्ण अनुपालन में विश्वास करता है और कुछ नहीं.
तालिबान अभी भी पख्तूनों के वर्चस्व वाला समूह है और इसकी नीतियां और काम कबीलाई परंपराओं ‘पख्तूनवाली’(कानूनी और नैतिक संहिता जो सामाजिक व्यवस्था और उत्तरदायित्व तय करता है) और टोर (महिलाओं की सुरक्षा) कानूनों पर आधारित हैं, जो इस्लाम के अफगानिस्तान में आने के पहले की परंपराएं हैं जिसका जम्मू और कश्मीर में न तो कोई जगह है और न ही कोई मतलब.
अफगानिस्तान में तालिबान और जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी संगठन, दोनों ही विदेशी शक्तियों के काम हैं. जबकि तालिबान का पोषण अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा अफगानिस्तान में सोवियत संघ को भगाने के लिए किया गया था, जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी तंजीम (यहां तक कि कथित तौर पर कश्मीरी बहुल) भारत के खिलाफ अपने रणनीतिक लाभ के लिए पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित किए गए थे.
दोनों ही मामलों में राजनैतिक हित साधने के लिए मजहबी विचारधारा का इस्तेमाल किया गया. बहुसांस्कृतिकता और समावेशी मूल्यों को खत्म करना इन दोनों ही जगहों पर देखा गया है. अगर, इन आतंकवादी समूहों के राजनैतिक हित सध जाएंगे तब क्या होगा? इसका उत्तर जटिल है क्योंकि यह राजनैतिक हित ही मिथक हैं. आतंकवाद का शिकार युवा होते हैं, कई दफा उकी पूरी पीढ़ी इसमें बरबाद होती है और उनके पास बंदूक छोड़ने का कोई विकल्प ही नहीं बचता. जम्मू-कश्मीर में ही कई मिसालें हैं, जहां पूर्व आतंकवादियों ने स्थानीय प्रशासन और पुलिस के साथ बातचीत में यही बातें बताईं. इसलिए ऐसा कैडर, जो तालिबान के साथ लड़ने वाला कैडर नए मैदान ए जंग में नए लक्ष्यों की तलाश में हैं, ऐसे में आगंतुक लड़ाकों का स्थानीय तजुर्बा और सांस्कृतिक आतंकवाद को कश्मीर अभी भूला नहीं होगा.
(लेखक आवाज- द वॉयस के प्रधान संपादक हैं)