तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफ़ग़ानिस्तान के कई स्थानो मे पाकिस्तान के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो रहे हैं. तालिबान से डरे बिना यह नौजवान और महिलाएं पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगा रहे थे और यह कह रहे थे कि पाकिस्तान को अफगानिस्तान छोड़ देना चाहिए. औरतों से भरे यह जुलूस ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अपने देश की सम्प्रभुता को बचाने के लिए तालिबान की तरफ़ देख रहे हैं. मगर मायूस आम अफ़ग़ानी को अभी तो लगता है कि उसकी उम्मीदें शायद कभी पूरी ना हों लेकिन एकदम नई कथित इस्लामी अमीरात के शुरूआत में ही सबसे भरोसेमंद पड़ोसी देश के ख़िलाफ़ आम अफ़ग़ानियों का यह रुख़ बताता है कि आग से खेलने वाले पाकिस्तान के लिए आने वाले दिन कितनी परेशानी वाले हैं. यही हाल चीन का भी होगा. पाकिस्तान और चीन की तालिबान को भारत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की नीयता का सही जवाब ख़ुद अफ़ग़ानी जनता दे रही है.
तालिबान को लगता है कि वह चीन को निचोड़ पाएगा जबकि चीन इस चक्कर में है कि वह अफगानिस्तान का दोहन - शोषण कैसे कर सके? अमेरिका के अफगानिस्तान से निकलने के बाद एक महाशक्ति के लिए खाली स्थान पर चीन और रूस की नजर है, परंतु चीनी भूल जाता है कि तालिबान हमेशा वादे के ख़िलाफ़ जाते रहे हैं. फिलहाल अफगानिस्तान के अमेरिका के बैंकों में रखें 9.5 अरब डॉलर अमेरिका ने फ्रीज़ कर दिया है.
तालिबान पैसे की भारी कमी से जूझ रहे हैं. अगर चीन को लगता है कि तालिबान दोस्त बनकर उसका साथ देंगे तो उसका यह अंदाजा गलत साबित हो सकता है. हाल ही मे तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने इटली के अखबार ला रिपब्लिका को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि चीन उनका खास भागीदार है और वह विशेष अवसर उपलब्ध कराएगा क्योंकि वह निवेश करने के लिए तैयार है और इससे हमारा देश खड़ा होगा.
मुजाहिद के साक्षात्कार से तो स्पष्ट हो जाता है कि अफगानिस्तान को क्या चाहिए, लेकिन चीन को जो चाहिए उसका मार्ग जरा लंबा है. वह शिनजियांग में शांति और अफगानिस्तान के खनिज उत्पादों का दोहन चाहता है
यह पहला मौक़ा नहीं है जब आम अफ़ग़ानी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ रहा है. तालिबान के सत्ता में आने के बाद ‘संयुक्त राष्ट्र शांति प्रेस संस्थान’ (United States Institute of Peace Press www.usip.org) ने एक रिपोर्ट जारी कर बताया कि अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तनावपूर्ण संबंधों का एक लंबा इतिहास रहा है. इन्हें पाँच प्रमुख बिन्दुओं से समझा जा सकता है. पहला अफ़ग़ानिस्तान पाकिस्तान से अपनी संप्रभुता संबंधी चिंताएं महसूस करता है. दूसरा सुरक्षा हित, तीसरा भू-राजनीतिक गतिशीलता, चौधा सीमा पार संबंध, और अंतिम संपर्क और व्यापार.
हाल के प्रदर्शन बेशक पाकिस्तान के पंजशीर में पाकिस्तानी वायु सेना के बमबारी करने की वजह से हो रहे हैं लेकिन एक बहाने से कई ग़म ज़ाहिर हो जाते हैं. आम अफ़ग़ानी को लगता है कि पाकिस्तान बेवजह उनके देश के हर ज़रूरी- ग़ैर ज़रूरी, अन्दरूनी और बाहरी हर मामले में पँचायत करता है.
‘संयुक्त राष्ट्र शांति प्रेस संस्थान’ के लिए रिपोर्ट बनाने वाले एलिज़ाबेश थ्रेलकैड और ग्रेस ईस्टरली ने तर्क दिया. वह कहती हैं कि यह देखते हुए कि अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय बलों के हटने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में संघर्ष तेज होना लगभग तय है, तो युद्ध के मैदान प्रमुख हो जाएंगे. अफगानिस्तान-पाकिस्तान के संबंध और बिगड़ने की संभावना है, और दोनों पक्षों के बीच बातचीत से समझौता कराने तक के मौक़े विवाद से ख़ाली नहीं रहेंगे. रिपोर्ट बताती है कि दोनों देश के दोतरफ़ा ताल्लुक़ात गतिशीलता को प्रभावित करेंगे.
रिपोर्ट का तर्क है कि अफ़ग़ानिस्तान में स्थिति और इसके साथ अफ़ग़ानिस्तान -पाकिस्तान संबंध- अल्पावधि में खराब होने की संभावना है. थ्रेलकैड को आशंका है कि पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की नई सरकार के बीच कोई भी सहमति लम्बे समय तक चल सकती है. इसके नतीजे में क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर परिणाम की ओर रिपोर्ट इशारा करती है.
रिपोर्ट आगाह करती है कि यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्रिटिश राज और तब के अफ़गानी अमीर के बीच सन् 1893 में सीमा पर एक सहमति बनी थी जिसे ‘डुरंड लाइन’ कहा जाता है लेकिन भारत और पाकिस्तान के बँटवारे के बाद पाकिस्तान से लगती अफ़ग़ानी सीमा पर आज भी दोनों देशों के बीच विवाद है. कुल 1660 मील लम्बी पशतून पठानों की बहुलता वाली इस सीमा का विवाद आज भी दोनों देश नहीं सुलझा पाए हैं.
अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों ही संप्रभुता के वास्तविक और कथित उल्लंघन के प्रति संवेदनशील हैं. काबुल ने औपनिवेशिक युग की डूरंड रेखा को एक अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता देने से सदा इनकार किया है. आज भी वास्तविक नियंत्रण रेखा के तहत पाकिस्तानी पशतून पठानों को अफ़ग़ानिस्तान अपना मुल्क लगता है. पाकिस्तान में रह रहे यह लोग लगभग 1700 मील के इस इलाक़े में पाकिस्तानी सेना की किसी भी कार्रवाई का हमेशा से विरोध करते आए हैं.
समझा जा सकता है कि जिस तरह तालिबान पाकिस्तान की कठपुतली बन रहे हैं, अगर वह इस सीमा विवाद को पाकिस्तान के हक़ में छोड़ देते हैं तो पहले से नाराज़ अफ़ग़ानी जनता अपनी ही कथित अमीरात का क्या हाल करेगी?
यह रिपोर्ट कहती है कि पाकिस्तान अफ़ग़ानिस्तान में कठपुतली सरकार इसलिए चाहता है क्योंकि वह भारत से मुक़ाबला करता है. वह नई दिल्ली की अफ़ग़ानिस्तान में भागीदारी को सीमित करना चाहता है.
मगर हो यह रहा है कि पाकिस्तान की छद्म गतिविधियों के कारण हाल के दशकों में हुई हिंसा का सामना करना पड़ा है. यह रिपोर्ट कहती है “अफ़ग़ानिस्तान में अल-कायदा की मौजूदगी, पाकिस्तान समर्थित तालिबान द्वारा सक्षम, क्षेत्रीय सुरक्षा गणनाओं के वैश्विक प्रभाव को बयां करती है. इसी तरह पाकिस्तान ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ सहयोग करने के अपने फैसले में बाहरी भागीदारी को आकार दिया (यानी बहानेबाज़ी की), फिर भी तालिबान लड़ाकों के साथ संबंध बनाए रखा.“
अमेरिका पर हुए 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद अफ़ग़ानिस्तान में अलक़ायदा के साथ साथ तालिबान के ख़िलाफ़ भी अमेरिका ने जंग छेड़ी. इन 20 सालों में काबुल और वॉशिंगटन लगातार इस्लामाबाद पर आरोप लगाते रहे कि यह अलक़ायदा और तालिबान के लिए सुरक्षित ठिकाना है. आग का दस्तूर है कि वह इससे खेलने वाले को जला डालती है. पाकिस्तान इस बात को जितना जल्दी समझ ले, बेहतर है.
(क़ादरी, मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष तथा भू राजनीति के जानकर हैं)