लंदन में फिल्म पृथ्वीराज पर आयोजित जीवंत विमर्श सान्निध्य संवाद

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 19-06-2022
पृथ्वीराज का पोस्टर
पृथ्वीराज का पोस्टर

 

डॉ. राजीव श्रीवास्तव

समसामयिक विषयों पर जीवन्त परिचर्चा का आयोजन ‘सान्निध्य लन्दन’ और ‘एसएसीएफ़’ (साउथ एशियन सिनेमा फाउंडेशन) के संयुक्त तत्वाधान में विगत उन्नीस वर्षों से होता आ रहा है तथा गत पन्द्रह वर्षों से इसका वैश्विक प्रसारण नेट/ वेबिनार के प्रारूप में हो रहा है.

इस श्रृंखला की तैंतीसवीं कड़ी में हाल ही में आयोजित संवाद में डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी निर्देशित उनकी नवीनतम फ़िल्म ‘पृथ्वीराज’ पर केन्द्रित थी.बीबीसी लन्दन, हिन्दी सेवा के पूर्व प्रसारक, ‘सान्निध्य’ और‘एसएसीएफ़’ के निदेशक एवं सुप्रसिद्ध फ़िल्मकारललित मोहन जोशी के इस सान्निध्य सम्वाद के इस कड़ी के आमन्त्रित अतिथि थे डॉ.चन्द्रप्रकाश द्विवेदी.

डॉ. द्विवेदी स्वयं एक प्रबुद्ध लेखक-चिन्तक-विचारक-शोधकर्ता के साथ ही प्रसिद्ध फ़िल्मकार, पटकथा लेखक एवं अभिनेता हैं जिन्होंने नब्बे के दशकमें अपने टीवी धारावाहिक ‘चाणक्य’ से जन-जन के बीच अपनी अमिट छवि अंकित करके लोकप्रियताके जिस शीर्ष पर स्वयं को विराजित किया था.

भारत फ़िल्म ‘पृथ्वीराज’ को लेकर एक समुदाय-वर्ग-संगठन विशेष द्वारा जिसनकारात्मक वैचारिक विषवमन को मूर्त रूप दिया जाता रहा है उस पर से संशय-भ्रम के कारे मेघ‘सान्निध्य सम्वाद’ की वर्तमान प्रस्तुति से स्वतः ही छंट गए.

इस विशेष प्रस्तुति में फ़िल्म के लेखक-निर्देशक साक्षात विमर्श हेतु उपस्थित थे और उन्होंने फिल्म को लेकर समस्त दुविधा एवंअनर्गल प्रलाप पर पूर्णविराम लगा दिया.

एक फ़िल्मकार जब फ़िल्म व्यवसाय के गणित से परे स्वयं कोशोध-अध्ययन से उपजे परिणामों के प्रति समर्पित भाव से प्रस्तुत करके दृश्य-परिदृश्य के निरूपण कोकलात्मक स्वरूप प्रदान करता है तो फल के रूप में मिलने वाला प्रसाद ‘पृथ्वीराज’ के रूप में रजत पटलपर अवतरित हो उठता है.

महाकवि चन्द बरदाई के महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो’ पर आधारित कई नाट्य एवं चलचित्र पूर्व में भीनिर्मित-चित्रित हुए हैं. पर डॉ. द्विवेदी की इस प्रस्तुति से विरोध, रुदन एवं मिथ्या कुचेष्टा ने जिस प्रकारताण्डव करने का प्रयास किया है. उसे सान्निध्य के प्रस्तुत विमर्श ने एक सुनियोजितषड्यन्त्र का कृत्य सिद्ध कर दिया है.

इस जीवन्त सम्वाद ने यह प्रश्न भी उठाया है कि ‘वामपंथी’ होने मात्रसे किसी समूह-वर्ग-दल को क्या यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह मूल शाश्वत सत्य को ही नष्टकरने में जुट जाए?

आप यह तो आशा करतेहैंकि आपके विचार को अन्य समस्त वर्ग-समुदाय सहज हीस्वीकार लेपरन्तुआप अन्यों के वैचारिक दर्शन को अमान्य करनेपर आक्रामकता के पार चलेजाएं. यहघोर विरोधाभास ‘मतभेद’ के स्थान पर ‘मनभेद’ को प्रश्रय देता है जो सनातन धर्म और परम्परा के विरुद्धएवं मानवता के पोषण के सर्वथा प्रतिकूल है.

कोई धर्म विशेष भी जब अन्य सभी धर्मों और उनकेअनुयायियों को पतित मानने का उपक्रम रचता हो तो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ एवं ‘वैश्विक शान्ति’ का यज्ञकैसे पूर्ण हो सकता है? मैं स्वयं इस कुप्रचार का शिकार हो गया था कि ‘पृथ्वीराज’ को देखने के लिए दर्शक समुचित मात्रा मेंछविगृहों में नहीं पहुंच रहे हैं.

परंतु ‘सान्निध्य सम्वाद’ के इस अंक ने जिस परस्पर विश्वास को जन्मदिया है और फिल्म की निर्माण प्रक्रिया को लेकर भी काफी स्पष्टता आई है.

 

(यह लेखक के निजी विचार हैं. आवाज- द वॉयस की इससे सहमति आवश्यक नहीं है)