क्या मुस्लिम बुद्धिजीवी भरोसे की कमी को पाट सकते हैं

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] • 1 Years ago
मोहन भागवत (फाइल)
मोहन भागवत (फाइल)

 

आतिर खान

सरसंघचालक मोहन भागवत के साथ पांच मुस्लिम बुद्धिजीवियों की हालिया बैठक एक ऐसे वक्त में हुई है, जब भारतीय मुसलमान खुद को हाशिए पर पड़ा महसूस कर रहा है. इस बैठक से हमें इस उम्मीद की किरणे दिखी हैं कि इससे दोनों समुदायों के बीच सुविचारित संवाद की शुरुआत होगी.

ऐसी कोई भी मुस्लिम पहल स्वागत योग्य है. एस.वाई.कुरैशी, नजीब जंग, जमीरुद्दीन शाह, शाहिद सिद्दीकी और सईद शेरवानी की आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के साथ बैठक को नियमित आधार पर मुस्लिम समुदाय को शामिल करने की आवश्यकता के मद्देनजर एक व्यक्तिगत पहल के रूप में देखा जा सकता है. यह पहल नूपुर शर्मा विवाद के मद्देनजर की गई थी.

जाहिरा तौर पर, चर्चा पहचान की राजनीति के इर्द-गिर्द टिकी हुई थी, क्योंकि दोनों समुदायों के बीच विवादित बिंदुओं पर चर्चा हुई थी. दोनों पक्षों की चिंताएं पहचान की राजनीति से जुड़ी थीं. मुसलमानों को आतंकवादी या पाकिस्तानी के रूप में वर्णित किया जाना पसंद नहीं है, जबकि हिंदुओं को काफिरों (गैर-विश्वासियों) के रूप में चित्रित किए जाने में एक बड़ी समस्या है.

मुस्लिम समूह द्वारा जारी प्रेस बयानों से ऐसा प्रतीत हुआ था कि हालांकि वे अपनी व्यक्तिगत क्षमता में प्रमुख से मिलने गए होंगे, वे इस संवाद को सुगठित तरीके से आगे ले जाने के इच्छुक हैं. संभवत: बैठक उनकी अपेक्षा से अधिक उत्साहजनक थी. आरएसएस प्रमुख ने आरएसएस के चार वरिष्ठ नेताओं को भी इस उद्देश्य के लिए उनसे बातचीत करने का काम सौंपा.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुसलमान भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं और उनकी चिंताओं को छुपाया नहीं जा सकता. यदि भारत को तेजी से विकास पथ पर ले जाना है, तो इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाना सभी के हित में होगा.

दिलचस्प है कि हालिया घटनाओं में ऐसे संवाद की जरूरत जोरों से महसूस होने लगी थी क्योंकि भारतीय मुसलमान समुदाय में डर और चिंता का माहौल बढ़ रहा था. इस अवसर को गंवाना ठीक नहीं होगा. ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि कोई सरसंघचालक मुस्लिमों से मिल हैं. इससे पहले वह जमीयत-उलेमा-हिंद के अध्यक्ष अरशद मदनी से मिल चुके हैं. उन्होंने एक मुस्लिम बौद्धिक ख्वाजा इफ्तिखार की किताब का विमोचन भी किया है.

उन्होंने मौलाना उमर इलियासी के नई दिल्ली कार्यालय का भी दौरा किया, जो अखिल भारतीय इमाम परिषद के अध्यक्ष हैं. इसके बाद उन्होंने उस दिन दिल्ली के एक मदरसे का दौरा किया. यह स्पष्ट रूप से दिखाता है कि मुसलमानों के साथ जुड़ने के लिए आरएसएस की ओर से कोई रोक नहीं है. कई मुस्लिम विद्वान मुसलमानों के प्रति आरएसएस के बदलते रवैये को दिलचस्पी से देख रहे हैं.

आरएसएस प्रमुख को बुलाने वाले पांचों लोग गैर-राजनीतिक हैं, उनमें से कम से कम दो को लोक प्रशासन का लंबा अनुभव है. वे जानते हैं कि इस देश में राजनीतिक और सरकारी व्यवस्था कैसे काम करती है. हालांकि कई मुसलमानों ने इस समूह के समर्थन पर सवाल उठाया है. समूह को न तो कोई राजनैतिक समर्थन है और न ही किसी प्रभावशाली धार्मिक नेताओं का समर्थन. संवाद स्पष्ट रूप से तभी सार्थक होंगे जब मुस्लिम विचारकों को सरकारों, राजनीतिक दलों और मुस्लिम समुदाय का समर्थन मिले. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है.

हालांकि, भारतीय मुसलमान इस वास्तविकता को स्वीकार कर चुके हैं कि संसद और राज्य विधानसभाओं में उनका प्रतिनिधित्व बहुत कम है. और कुछ हलकों में अपने ही देश में पीड़ित होने की प्रबल भावना है. स्थिति इस तरह लंबे समय तक नहीं चल सकती है और दोनों समुदायों के बीच विश्वास की कमी को जल्द से जल्द कम करने की जरूरत है.

 

समकालीन राजनैतिक विज्ञानियो का मानना है कि विश्व उदार लोकतांत्रिक संस्थाएं समय के साथ कमजोर हुई हैं, क्योंकि वे लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रही हैं. लोकतांत्रिक देशों को मजबूत करने की जरूरत है.

वैश्वीकरण ने भी कोई उद्देश्य पूरा नहीं किया है; इसने लोगों को विभिन्न संस्कृतियों से अवगत कराया है और संचार के क्रांतिकारी साधनों के कारण केवल धार्मिक पहचान की एक मजबूत भावना पैदा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. भारतीय मुसलमान कोई अपवाद नहीं हैं.

देश अपने गिरेबान में झांकने लगे हैं, भारत भी उस दिशा में आगे बढ़ने लगा है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने हालिया लाल किले के भाषण में विकास के अपने मॉडल को व्यक्त किया, जो लोगों से मांगे गए पांच वादों पर आधारित है. 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए, औपनिवेशिक बोझ के किसी भी निशान को दूर करने, अपनी विरासत पर गर्व, एकता और अपने कर्तव्यों पर ध्यान देने की आवश्यकता होगी.

प्रधानमंत्री मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत दोनों ने भारत के संविधान में निहित मूल्यों के प्रति अपनी मजबूत प्रतिबद्धता व्यक्त की है. ये सकारात्मक संकेत हैं, जो एक राष्ट्र के रूप में भारत की अंतर्निहित शक्तियों को मजबूत करने में मदद कर सकते हैं. इसकी मिश्रित और अनूठी संस्कृति को कायाकल्प की जरूरत है.

राजनीतिक वैज्ञानिक फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी पुस्तक आइडेंटिटी: द डिमांड फॉर डिग्निटी एंड द पॉलिटिक्स ऑफ रिसेंटमेंट में मजबूत राष्ट्र निर्माण में 'पहचान' की बढ़ती भूमिका को रेखांकित किया है. संक्षेप में वे कहते हैं कि आधुनिक समाज में किसी राष्ट्र की ताकत इस बात पर निर्भर करती है कि वह अपने लोगों की पहचान की कितनी अच्छी तरह रक्षा करता है.

मुस्लिम बुद्धिजीवियों के समूह के सामने सबसे कठिन कार्य है कि क्या वे समुदायों, सरकार और आरएसएस के बीच की कड़ी के रूप में आगे बढ़ना चाहते हैं.भारतीय मुस्लिम पहचान की रक्षा करनी होगी, जिसपर खतरा बताया जा रहा है. समस्या का हल इसी पहलू से निपटने और समुदाय में सुकून की भावना लाने में निहित है.

यह बहुसंख्यकवादी सुदृढ़ीकरण की लहर पर सवार वर्तमान हिंदू पहचान की राजनीति के साथ निरंतर टकराव के माहौल में नहीं हो सकता. सभी भारतीयों के बीच आपसी सम्मान और विश्वास की भावनाओं के आधार पर फॉर्मूला तैयार किया जाना चाहिए.

आज मुसलमानों को हिंदुओं की भावनाओं को ठेस न पहुँचाने के लिए अतिरिक्त सावधान और चौकस रहने की आवश्यकता है और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए एक अधिक सक्रिय एजेंडा तैयार करते हुए, पिछली गलतियों के नाम पर संघर्ष से बचने के लिए सब कुछ करना चाहिए. बड़े भाई होने की अपनी जिम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए यह हिंदू समुदाय पर भी समान रूप से लागू होता है. दोनों समुदायों के एक-दूसरे के प्रति दृष्टिकोण को समायोजित करने की आवश्यकता है.

मुस्लिम प्रतिनिधियों के लिए दूसरा सबसे कठिन कार्य, मुसलमानों के विकास के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को दिशा देना होगा. आजादी के बाद से यह पूरे दिल से नहीं हुआ है और बड़े समुदाय को विकास की पृष्ठभूमि में धकेल दिया है.

न्यायमूर्ति सच्चर ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुसलमानों के पास एक समुदाय का दोहरा बोझ है-यानी वह जिसका तुष्टीकरण किया जा रहा है और साथ ही जो आतंकवाद जैसी हिंसक गतिविधियों में लिप्त हैं. भारतीय मुसलमानों की दुर्दशा का अध्ययन करने में जस्टिस सच्चर के प्रयास सराहनीय थे लेकिन उनके कार्यों का उचित उपयोग नहीं हुआ.

सच्चर समिति की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के अद्यतन जानकारी (2018) के अनुसार समिति द्वारा की गई 76 सिफारिशों में से 72 को स्वीकार कर लिया गया है, तीन सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया गया था और एक सिफारिश को स्थगित कर दिया गया था. मतलब मुसलमानों का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है लेकिन उनकी स्थिति में सुधार के प्रयासों का क्रियान्वयन ईमानदारी से नहीं किया गया है.

मुसलमानों के प्रति आरएसएस के रुख में नरमी भारतीय मुसलमानों को राष्ट्र निर्माण के प्रयासों में फिर से संगठित करने का अवसर देती है. इस दिशा में एक निवेश न केवल आत्मविश्वास को प्रेरित करेगा बल्कि हाशिए के समुदाय के आत्म-सम्मान को भी बढ़ाएगा.

 

बीजेपी ने भी भारतीय मुसलमानों के साथ जुड़ने की ओर झुकाव दिखाया है. हालांकि मुस्लिम मामलों में पार्टी की दिलचस्पी को मुसलमानों के कुछ हिस्सों में कुछ संदेह की नजर से देखा जा रहा है. हकीकत यह है कि यह दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है जिसके पास मजबूत बहुमत है. तो, एक सुनहरा अवसर है.

मुस्लिम बौद्धिकों के सामने एक बड़ी चुनौती अपने साथ पूरे समुदाय को साथ लेकर चलने की होगी. उन्हें न सिर्फ विभिन्न राजनैतिक दलों के नेताओं का भरोसा जीतना होगा बल्कि उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उलेमाओं को भी साथ में लेकर चला जाए. इन एहतियात के बगैर उनकी कोशिशें बेकार साबित होंगी.

भारतीय मुसलमान सुन्नी, शिया, बोहरा, खोजा, देवबंदी, बरेली आदि विभिन्न समूहों में बंटे हुए हैं. मसलकों का मुद्दा बहुत गहरा है और इसकी ऐतिहासिक मान्यताएं दृढ़ हैं. इस समस्या का समाधान शायद एक शूरा बनाकर किया जा सकता था, जिसमें सभी मसलकों (संप्रदायों) के धार्मिक प्रतिनिधि हो सकते थे.

जब भी विकास और धर्म के बीच संघर्ष हो तो शूरा (धार्मिक सलाहकारों की एक परिषद) मुस्लिम बुद्धिजीवियों को सलाह दे सकती है. शूरा से परिषद लेना बुद्धिजीवियों का निकाय सरकारों को वांछित नीतिगत परिवर्तनों का सुझाव देने में एक महान सेवा करेगा.

ऐसा करना मुश्किल लेकिन कहना आसान है. कारण यह है कि उलेमाओं की ओर से नजरिया बदलने में झिझक होती है. साथ ही, इन सभी प्रयासों के लिए निकाय के कामकाज को स्वतंत्र और भरोसेमंद बनाए रखने के लिए धन की आवश्यकता होगी.

इस काल्पनिक स्थिति में यदि पदाधिकारी सार्वजनिक धन के माध्यम से धन जुटाने में सफल होते हैं, तो उन्हें शिक्षा, रोजगार, कौशल विकास, सामाजिक, कानूनी और धार्मिक और अंतर-धार्मिक मामलों के क्षेत्र में विशेषज्ञों की अध्यक्षता में शाखाएं बनाने की आवश्यकता होगी.

यह एक दूर की कौड़ी प्रतीत होती है, लेकिन अगर किसी दिन यह वास्तविकता बन जाती है, तो यह उन सरकारों के लिए चीजों को आसान बना देगा, जो अब तक भारतीय मुस्लिम समुदाय में किसी भी बड़े सुधार को शुरू करने में हिचकिचाती हैं, क्योंकि इससे उत्पन्न होने वाली जटिलताओं के कारण समुदाय के भीतर आंतरिक मतभेद पैदा होता है. अतीत में किए गए ऐसे कुछ प्रयासों में निराशा मिली है.

मुस्लिम प्रतिनिधियों के रूप में उनके राज्यवार शाखाओं के साथ बुद्धिजीवियों का एक निकाय बनाना संभव है. लेकिन इस तरह के किसी भी उद्यम की सफलता पूरी तरह से विश्वास और ईमानदारी पर निर्भर करेगी, निहित स्वार्थ संभावनाओं को प्रभावित कर सकते हैं.

यह एक ज्ञात तथ्य है कि जो राष्ट्र बहुलवाद को बढ़ावा देते हैं और अपने सभी नागरिकों की पहचान की रक्षा करते हैं, वे उन राष्ट्रों की तुलना में अधिक सफल होते हैं जो केवल धर्म के आधार पर अपने लोगों के किसी एक विशेष समूह की देखभाल करते हैं. पड़ोस में, पाकिस्तान एक आंख खोलने वाला उदाहरण है. अस्मिताओं के टकराव के अपने जुनून के परिणामस्वरूप यह एक असफल राज्य बन गया है.