तालिबान की जीत का जश्न भारतीय मुसलमानों के लिए खतरनाक

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] • 2 Years ago
तालिबान की जीत का जश्न भारतीय मुसलमानों के लिए खतरनाक
तालिबान की जीत का जश्न भारतीय मुसलमानों के लिए खतरनाक

 

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आतिर खान  

जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया, तो मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग ने पाया कि मुस्लिम उग्रवादियों ने वैश्विक महाशक्तियों की संयुक्त शक्ति पर कब्जा कर लिया है.मुस्लिम समाज में खुशी के ये पल न सिर्फ गलत हैं, बल्कि विकृत भी.

तालिबान की जीत पर खुशी जाहिर करने का मतलब होगा कि मुसलमान हिंसक जीवन शैली के हामी हैं. आइए इसे इस तरह समझने की कोशिश करते हैं.क्या कोई मुसलमान अपने बच्चों को तालिबान के पास भेजना चाहेगा ? सभी समझदार लोग एक स्वर में ‘‘नहीं‘‘ कहेंगे.

 इस प्रकार, यह अहसास कि तालिबान ने विश्व महाशक्तियों को सबक सिखाया है, न केवल भारतीय मुसलमानों के लिए हानिकारक है, बेहद गलत भी है.इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अमेरिका ने इराक और अफगानिस्तान में अत्याचार किए हैं, लेकिन जिसे उनकी हार के रूप में देखा जा रहा है, उसका जश्न मनाने का मतलब यह होगा कि मुसलमान तालिबान के जीवन के तरीके को अपना रहे हैं. 1990के दशक की तालिबानी हिंसा की यादें अविस्मरणीय और भयावह हैं.

आज हम अफगानिस्तान में जो देख रहे हैं, वे तालिबान हैं जो दावा करते हैं कि 90के वे दशक के तालिबान नहीं हैं. हालांकि, वे एक नए रूप में सामने आए हैं. उन्होंने अपनी सोच में थोड़ी व्यापकता और प्रगतिशील लाने की कोशिश की है.

इसलिए किसी गलतफहमी की जरूरत नहीं है. या तो तालिबान नहीं बदल सकता या उन्हें अपने तरीके ठीक करने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए. हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि वे बदलेंगे और सभ्य बनेंगे.

इसलिए जब तालिबान दूसरी बार आया, तो अमेरिकी विरोधी भावना इतनी प्रबल थी कि मुसलमान भूल गए कि अफगान मुसलमानों की एक बड़ी आबादी गंभीर संकट में है. अगर वे अफगानिस्तान में अधिक समय तक रहे तो अफगान का जीवन खतरे में पड़ सकता है.

कोई यह समझ सकता है कि यह मुख्य रूप से 9-11के हमलों के बाद पैदा हुई भावनाओं के कारण था.उस समय, संयुक्त राज्य अमेरिका इस्लाम विरोधी प्रचार फैला रहा था. इराक और अफगानिस्तान पर आक्रमण कर रहा था. सैनिकों की कार्रवाई से दोनों देशों को भारी नुकसान हुआ.

संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक इस्लाम विरोधी बयानबाजी विकसित की जो नियंत्रण से बाहर हो गई और अंततः सामान्य रूप से मुसलमानों को लक्षित करना शुरू कर दिया.

अमेरिका और नाटो बलों ने इराक और अफगानिस्तान पर आक्रमण किया.इस्लाम विरोधी प्रचार ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया. मुस्लिम विरोधी प्रचार बन गया और पूरे मुस्लिम समुदाय को बुरी तरह प्रभावित करना शुरू कर दिया.

यह इस्लामोफोबिया में बदल गया, जिसने और अधिक आतंकवाद को जन्म दिया.अमेरिकी प्रचार का उद्देश्य सामान्य रूप से मुसलमानों को निशाना बनाना नहीं था, बल्कि इसका परिणाम यह हुआ कि अधिकांश मुसलमानों को किसी न किसी तरह से नुकसान उठाना पड़ा.

उन्हें हवाई अड्डों या अन्य जगहों पर संदेह की नजर से देखा गया. इसलिए तालिबान की जीत के बाद जश्न मनाना वास्तव में अतीत की सभी पीड़ाओं की अभिव्यक्ति है.यद्यपि संयुक्त राज्य अमेरिका की उसके पिछले कार्यों के लिए आलोचना की गई है. मुस्लिम समुदाय को अमेरिकी अनुभव से सीखना चाहिए.

तालिबान की हिंसक कार्रवाइयों की तारीफ करके मुसलमान अनजाने में एक और खतरनाक बयान दे रहे हैं जिससे उनकी छवि और खराब हो सकती है.तालिबान की जीत की खुशी कट्टरपंथी समूह को एक जवाबी बयान देने की अनुमति देगी कि मुसलमान तालिबान समर्थक हैं. अफगानिस्तान में मानवीय पीड़ा से अनजान हैं. या अनदेखी कर रहे हैं.

इसका मतलब यह होगा कि मुसलमान हिंसा को स्वीकार करते हैं.शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर भरोसा नहीं करते.भारत अफगान शरणार्थियों के प्रति दयालु रहा है, क्योंकि वे ई-वीजा सुविधाओं का उपयोग करके यहां पहुंच रहे हैं. उनका धर्म चाहे जो हो, उन्हें भारत में शरण दी जा रही है.

तालिबान के बारे में भारत के दृष्टिकोण को विदेश नीति निर्माताओं पर छोड़ देना चाहिए.यह सड़कों, ड्राइंग रूम या टीवी न्यूज चैनलों पर तय करने वाली बात नहीं है.भारतीय मुसलमानों को स्पष्ट रूप से कहना चाहिए कि तालिबान पर उनकी स्थिति भारत सरकार की स्थिति के अलावा और कुछ नहीं.

नई तालिबान सरकार के चंगुल से निकलने की बेताबी से कोशिश कर रहे बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों के हैरान कर देने वाले दृश्यों ने यहां के मुसलमानों को ही नहीं, सभी भारतीयों को परेशान किया है.

इतनी बड़ी मानवीय पीड़ा के प्रति कोई भी उदासीन नहीं रह सकता. अपनी जुबान पर लगाम लगाना बेहतर है.

 

लेखक आवाज द वाॅयस के प्रधान संपादक हैं