समी अहमद
हम अपनी आम जिंदगी में खून के रिश्ते की बातें बहुत करते हैं लेकिन वह रिश्ता पारिवारिक होता है. लेकिन खून का एक रिश्ता बिना किसी पारिवारिक रिश्ते के होता है, यह सामाजिक रिश्ता होता है. लेकिन इस रिश्ते में अक्सर न तो खून देने वाले को पता होता है कि उसका खून किसे मिलेगा, और न ही खून लेने वाले को पता होता है कि उसे किसका खून मिल रहा.
भारत की लगभग 130 करोड़ की आबादी में करीब-करीब एक प्रतिशत जाना-अनजाना सामाजिक रिश्ता खून देकर बनाया जाता है. असल में भारत को हर साल एक करोड़ 35 लाख यूनिट खून की जरूरत होती है- जरूरतमंदों को दान करने के लिए. मगर कोरोना महामारी के दौरान रक्तदान का आयोजन एक चुनौती के रूप में सामने आयी. इस चुनौती का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार को बार-बार रक्तदान के लिए अपील करनी पड़ रही है.
भारत में रक्तदान से करीब एक करोड़ दस लाख यूनिट खून मिलता है जो कि जरूरत से कम से कम बीस लाख यूनिट कम है. इस समय देश में तीन हजार से अधिक ब्लड बैंक काम कर रहे हैं. रक्तदान से जुड़े लोगों का कहना है कि इसे और बढ़ाये जाने की जरूरत है.
यह भी स्पष्ट है कि कोरोना काल में संक्रमण से बचने के लिए सामाजिक दूरी बनाये रखने की अनिवार्यता से रक्तदान शिविर कम लगे. रक्तदान से जुड़े सूत्रों के अनुसार भारत में तीन चैथाई खून रक्तदान शिविरों के माध्यम से मिलता है.
कोरोना की पहली लहर में भी जरूरतमंदों को खून के लिए काफी भटकना पड़ा था. हालांकि उस समय अधिकतर उन लोगों को खून की जरूरत थी जो कोरोना से पीड़ित नहीं थे. मगर पहली लहर के बाद के दिनों में रक्त-अवयव प्लाज्मा की जरूरत सामने आयी तो इसमें एक शर्त थी. वह शर्त थी कि जो व्यक्ति कोरोना से ठीक हो चुका है, उसी का प्लाज्मा होना चाहिए. कोरोना की दूसरी लहर में प्लाज्मा की मांग काफी बढ़ गयी क्योंकि इस बार न सिर्फ संक्रमण दर अधिक थी बल्कि यह पहले से कहीं अधिक घातक थी.
कोरोना की दोनों लहरों के दौरान कैंसर, थैलीसीमिया और अन्य जरूरतों के लिए रक्त की प्राप्ति में काफी दिक्कत हुई. अलबत्ता लाॅकडाउन के कारण दो कारणों से खून की जरूरत कम पड़ी. पहली बात तो यह कि अक्सर सर्जरी कैंसिल कर दी गयी थी, इसलिए ब्लड की जरूरत कम हुई. दूसरी बात कि लाॅकडाउन के कारण गाड़ियां कम चलने और कल-कारखाने बंद रहने से दुर्घटनाएं कम हुईं तो खून चढ़ाने के मामले भी कम आये.
कोरोना की दोनों लहरों के दौरान ऐसे मामले भी सामने आये जब बेहद विकट परिस्थिति में कुछ लोगों ने रक्तदान किया या रक्त उपलब्ध कराने में मदद की. पटना के मुकेश हिसारिया को इस काम के लिए काफी नाम मिला है और इसे डिटाॅल साबुन बनाने वाली कंपनी ने सम्मान देते हुए उनकी तस्वीर साबुन के रैपर लगायी. यह सम्मान देश के 100 लोगों को मिला.
हिसारिया कहते हैं कि एक बार जब हर तरफ अनलाॅक होगा, अस्पताल खुलेंगे तो रक्त की मांग बहुत बढ़ेगी. जिनकी सर्जरी रुकी हुई है, जिन्हें कैंसर का इलाज कराना है और जो थैलीसीमिया के मरीज हैं, जब वे खून लेने की स्थिति में होंगे तो बड़े पैमाने पर इसकी जरूरत होगी. श्री हिसारिया को उम्मीद है कि 14 जून को विश्व रक्तदाता दिवस के अवसर पर लोग बड़े पैमाने पर इसमें हिस्सा लेंगे.
कोरोना काल में रक्त प्राप्त करने मे ंतो दिक्कत हुई ही, साथ ही इस बात पर भी काफी सोच विचार करना पड़ा कि जो लोग कोरोना से बचने का टीका ले रह हैं, वे कितने दिनों के बाद रक्तदान कर सकते हैं. शुरू में इसके लिए 28 दिन का अंतराल तय किया गया लेकिन बाद में इसे कम करके 14 दिन किया गया. इससे ब्लड बैंक में रक्त की कमी कम करने में काफी मदद मिलेगी.
रक्तदान के लिए सबसे सही उम्र 18 वर्ष से 44 वर्ष वर्ग के समूह में आने वाले लोगों को माना जाता है. भारत में इस वर्ग आयु के लोगों की संख्या काफी बड़ी होने के बावजूद रक्तदान में इसकी हिस्सेदारी अभी पर्याप्त नहीं मानी जाती. कहा जाता है कि खून को मरीज का इंतजार करना चाहिए, न कि मरीज को खून का इंतजार करना चाहिए क्योंकि कई बार रक्तदाता ढूंढ़ने में काफी समय लग जाता है. खासकर दुर्घटना के शिकार व्यक्ति की अक्सर समय पर खून न मिलने के कारण मौत हो जाती है. इसी तरह एनीमिया की शिकार महिलाओं की प्रसव के दौरान अत्यधिक रक्तस्राव के बावजूद रक्त नहीं मिलने के कारण उनकी मौत हो जाती है.
नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल-एनबीटीसी
देश में खून प्राप्त करने और चढ़ाने की प्रक्रिया की निगरानी नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल करती है. 1966 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुरूप बने एनबीटीसी यानी राष्ट्रीय रक्त संचरण परिषद को यह सुनिश्चित करना होता है कि रक्त अथवा इसके अवयव जैसे लाल रक्त कण, प्लाज्मा और प्लेटलेट्स पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों, जरूरतमंदों की पहुंच में हों और उचित दर पर मिले. स्वैच्छिक रक्तदान को बढ़ावा देना , सुरक्षित रक्त संचरण और रक्त केन्द्रों के लिए आधारभूत ढांचा और मानव संसाधन उपलब्ध कराना इसकी जिम्मेदारियों में शामिल है.
रक्त और रक्त अवयव के सुरक्षित होने और इसका स्तर मानक हो, यह जिम्मेदारी भी इसी की है. अर्थात रक्त से किसी तरह का संक्रमण न हो और इसके चिकित्सकीय प्रभाव में कोई कमी न हो. डब्लयूएचओ- विश्व स्वास्थ्य संगठन राष्ट्रीय रक्त व्यवस्था की सिफारिश करता है जिसके लि एक राष्ट्रीय रक्त नीति हो. इसके लिए एक कानूनी ढांचा बने जिससे रक्त और रक्त अवयव की गुणवत्ता और सुरक्षा के लिए एक समान मानक को अपनाया जाए.
भारत में 2002 में राष्ट्रीय रक्त नीति बनी थी जिसके कई उद्देश्य निर्धारित किये गये थे. इनमें सरकार का यह संकल्प शामिल था कि सुरक्षित और पर्याप्त मात्रा में रक्त, रक्त और रक्त उपलब्ध कराया जाएगा. साथ ही रक्त संचरण व्यवस्था को विकसित करने के लिए पर्याप्त स्रोत उपलब्ध कराया जाएगा. इसके लिए तकनीक उपलब्ध कराना भी इसके उद्देश्यों में शामिल था.
(समी अहमद वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक हिंदुस्तान के गया संस्करण के संपादकीय प्रभारी रहे हैं.)