साहित्यः मुकेश कुमार सिन्हा की कविता 'प्रेम का अपवर्तनांक'

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 22-04-2022
प्रतीकात्मक तस्वीर (मुकेश सिन्हा का फेसबुक वॉल)
प्रतीकात्मक तस्वीर (मुकेश सिन्हा का फेसबुक वॉल)

 

साहित्य/ कविता

मुकेश कुमार सिन्हा/ प्रेम का अपवर्तनांक

 

नजरें सीधी रेखा में कर रही थी गमन

कुछ ऐसा जैसे घोड़े की नजरों को रखा जाता हो सामने

जिंदगी बस यूं ही चल रही थी हमारे समानान्तर

नहीं था आकर्षण

नहीं थी कोई फिकर

शायद तभी थे थोड़े निडर

विज्ञान की शिक्षिका ने भी बताया था

पारदर्शी माध्यम में प्रकाश का गमन

होता है सीधी रेखा में

कुछ ही तो बदला था समय, जब

गणित के छात्र को रसायन विज्ञान की छात्रा में दिखा आकर्षण

शिक्षिका की बातें फिर से आई याद कि

माध्यम के बदलते ही

प्रकाश की किरणें झुकती हैं अभिलम्ब की ओर

चाहते न चाहते

रास्ते बदलने लगे, यहां तक की कक्षा की सीट भी बदली

दूरियां नजदीकियां बन गई, अजब इत्तफाक है

ऐसे में,

जब प्रकाश अपने पथ से विचलित हो सकता है

तो मैं क्यों नहीं,

मेधावी छात्र ने स्वयं को तथाकथित रूप से समझाया !

आपतित किरण, अपवर्तित किरण और अभिलम्ब

सभी होते हैं एक तल में

वैज्ञानिक सूत्र की व्याख्या

की जा रही थी ब्लैक बोर्ड पर

और नजर थम गई, दरवाजे पर

नजर गई, मुड़ी और फिर खिलखिलाई, गुलाबी आभा के साथ

वो बस आई ही तो थी ......

मुसकुराते हुए दिल ने भी कह दिया

विज्ञान का दिल धड़कता ही नहीं धधकता भी है

महाविद्यालय परिसर का अपवर्तनांक

रहा हर समय नियत

प्रेम धड़कता रहा

क्लासेज चलती रहीं,

बरगद के पेड़ ने सहेजे कुछ दिल के चिन्ह, ब्लेड से बने हुए

और फिर एक सुबह, आई खबर, कल है उसका ब्याह!

चन्द्र यान की तरह

प्रेम यान की लैंडिंग भी अंतिम पलों में लड़खड़ाई

छात्र ने अंतिम पन्ने में शुभ विदा लिखा

विज्ञान की शिक्षिका ने त्याग पत्र दिया !