साहित्यः मौसमी चंद्रा की लघुकथा धुरी

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 19-04-2022
फोटो सौजन्यः सोशल मीडिया
फोटो सौजन्यः सोशल मीडिया

 

साहित्य/ लघुकथा

कहानीः धुरी

कथाकारः मौसमी चन्द्रा

चलती बस अचानक ‘चीं’की तेज आवाज से रुक गई. मैंने गर्दन उचकाकर देखा, सामने कोई महिला थी.बस दोबारा तेजी से चल पड़ी.

"अरे रे... रे, संभालकर बेटा. अभी गिर जाती न!" उसने अपनी बच्ची को पकड़ते हुए कहा,जो बस के अचानक चलने से लड़खड़ा गई थी.करीब 6-7 साल की होगी रही होगी वह बच्ची. उससे थोड़ी छोटी एक और बच्ची थी, जिसने अपनी मां की कमर जोर से पकड़ रखी थी.

महिला ने नजर दौड़ाई लेकिन एक भी सीट खाली नहीं थी. सोमवार को वैसे भी भीड़ ज्यादा रहती है. छोटी बच्ची को बार-बार संभलते देखकर मुझसे रहा नहीं गया.

मैंने कहा, "आओ बेटा यहां बैठ जाओ."

मेरी बात सुनकर बच्ची अपनी मां की ओर देखने लगी थी. महिला ने एक नजर मेरी सीट पर डाली. सिटी बस की सीट, उसपर मैं भी दुबले-पतले लोगों की श्रेणी से ऊपर आ चुका था.

मेरी सीट पर बिठाना मतलब बच्ची को एक तरह से मेरी गोद में बिठाने के बराबर था.

महिला ने ना में सर हिलाकर कहा, "थैंक यू, पर रहने दीजिए. ज्यादा दूर नहीं जाना है."

उस महिला ने क्यों मना किया था, इसकी वजह मेरी समझ में आ गई थी.मैं झेंप गया पर शायद वह अपनी जगह सही ही थी.कुछ मर्दों ने सम्पूर्ण पुरुष जाति को चरित्रहीन बनाकर छोड़ दिया है.

मुश्किल से एकाध मिनट बीते होंगे. बगल की सीट पर बैठे दो लड़कों की फुसफुसाहट से मेरा  ध्यान उधर गया. वे लोग उंगलियों को, हथेलियों को गोल-गोल कर ठिठिया रहे थे.उनकी आंखें बार-बार एक ही तरफ लगी थीं. देखा तो उसी महिला को लेकर वे अभद्र इशारेबाजी कर रहे थे.

इन ओछी हरकतों से अनभिज्ञ वह महिला बिस्किट का डब्बा निकालकर अपनी बच्चियों को खिलाने लगी. उसका आंचल सरक गया था और ब्लाउज का कुछ हिस्सा बेपर्दा-सा हो गया था!

मैंने शर्म से नजरें झुकानी चाही. तभी! मेरी निगाह उसकी छातियों पर पड़ी. एकतरफ से उभरे हुए, तो दूसरी तरफ बिल्कुल सपाट.

एक ही छाती? ये क्या! शायद गांठ की वजह से निकालना पड़ा होगा. कैंसर के अंश को पनपने कैसे दे सकते हैं? निकालना तो पड़ेगा ही. पर यह तो अनर्थ हो गया! समाज स्त्री की सुंदरता को जिस चश्मे से देखता है उसमें ये अंग तो बेहद महत्वपूर्ण हैं न! हर मर्द के आकर्षण का केंद्रबिंदु! है न! पर मेरी सोच थोड़ी अलग है.

ही, ही, ही, दोनों लौंडे अब भी हंस रहे थे. मुझे उस समय वे दोनों निहायत ही जलील इंसान लग रहे थे. पर उस मां के उमड़े वात्सल्य के बीच मैं कोई विघ्न नहीं आने देना चाहता था.

मैंने फिर कहा, "आप यहां बैठ जाइए." लेकिन तुरंत मुझे ध्यान आया तो इस बार का प्रस्ताव मैंने खड़े होते हुए दिया था. इस बार वह आकर मेरी सीट पर बैठ गई.

उन शोहदों पर नजर जाते ही उसने अपने आंचल को फैलाकर छाती ढंक ली और खिड़की के उस पार देखने लगी, लेकिन उस सपाट छाती ने मेरे मस्तिष्क को पांच साल पीछे फेंक दिया था. मां के शरीर में उपजी वह छोटी-सी गांठ!डॉक्टर ने दो विकल्प दिए,या तो इसे निकलवा लें या स्तन. केवल गांठ निकालने से ये फिर से पनप सकते हैं.

मेरी मां ने स्तनों को निकालने का फैसला किया था. उनके लिए उनके बच्चे, उनका परिवार, इस मांस के लोथड़े से कहीं ऊपर था पर मेरे पिता. इन धुरियों से उनके अत्यधिक मोह ने उन्हें कमजोर कर दिया.

उन्होंने निर्णय सुनाया, "एक बार पहले गांठ निकालकर देखते हैं अगर फिर हुआ तो अगली बार..."

कहते हैं कैंसर ओल की तरह होता है कितना भी निकाल दो कोई-न-कोई हिस्सा अंदर रह ही जाता है. ऑपरेशन के बाद भी कैंसर रुका नहीं, दोबारा लौटा और फिर शुरू हुआ अंतहीन यातनाओं का सिलसिला...! अस्पताल का बेड, दवाइयों के ढेर, कीमोथेरेपी... मां के झड़े हुए केश...और फिर... एक सन्नाटा!

एक ठंडी सांस लेकर मैं भी उसी खिड़की के पार देखने लगा.