पुस्तक समीक्षाः त्रिपुरदमन सिंह की किताब वो सोलह दिन पं. नेहरू की उदारवादी छवि पर सवाल खड़े करती है

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 29-05-2022
किताब वो सोलह दिन... नेहरू की उदारवादी छवि पर चोट करती है
किताब वो सोलह दिन... नेहरू की उदारवादी छवि पर चोट करती है

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

पुस्तक समीक्षा

भारत के संविधान के बारे में जब हम भी हम सोचते हैं तो उसके प्रति गौरवपूर्ण और कई बार अतिशयोक्तिपूर्ण भावनाएं रखते हैं. ऐसा ही भाव कमोबेश भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के बारे में भी है. सोशल मीडिया पर मौजूद आबादी में एक तबका भारत की पूरी दुर्दशा के लिए पंडित नेहरू को जिम्मेदार ठहराता है, दूसरा तबका पंडित नेहरू पर सवाल करने वालों को पूरी ताकत से ट्रोल करता है.

लेकिन, सवाल करना लोकतंत्र की पहली शर्त है. पंडित नेहरू के बारे में एक व्यापक राय यही है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों वाले उदारवादी किस्म के व्यक्ति थे. लेकिन त्रिपुरदमन सिंह की किताब ‘वे सोलह दिनः नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन’पंडित नेहरू के उदारवादी या बेहद लोकतांत्रिक इमेज पर चोट करती है.

लेखक त्रिपुरदमन सिंह ऐसे लेखक नहीं हैं जिनकी बात को आप हल्के में ले सकते हैं. त्रिपुरदमन सिंह इंस्टिट्यूट ऑफ कॉमनवेल्थ स्टडीज़, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में ब्रिटिश अकेडेमी पोस्ट-डॉक्टोरल फेलो हैं. उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में जन्मे त्रिपुरदमन ने यूनिवर्सिटी ऑफ वॉरविक में राजनीति एवं अंतरराष्ट्रीय अध्ययन की पढ़ाई की और यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज से मॉर्डन साउथ एशियन स्टडीज़ में एमफिल तथा इतिहास में पीएचडी की डिग्री हासिल की.

वह नीदरलैंड्स के यूनिवर्सिटी ऑफ लाइडेन में विजिटिंग फेलो और और इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च फेलो रहे हैं. त्रिपुरदमन रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के फेलो भी हैं. इससे पहले उनकी इम्पेरियल सोवर्निटी, लोकल पॉलिटिक्स और नेहरू नाम की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.

उनकी किताब के बारे में भारतीय मूल के अर्थशास्त्री मेघनाद देसाई लिखते हैं, “यह किताब डायनामाइट है. यह उन लोगों को बड़ा झटका देगी, जो संविधान और उसके द्वारा नागरिकों को दी गई स्वतंत्रताओं को बड़े सुहाने ढंग से देखते हैं.”

देसाई आगे कहते हैं, “अब तक अनकही रही इस कहानी से इतिहास और संविधान की विषयवस्तु के गंभीर पुनर्निरीक्षण की शुरुआत होनी चाहिए. इसे एक ऐसे आंदोलन को प्रेरित करना चाहिए, जो मूल संविधान की ओर ले जाए और उसमें बाद में लाई गई विकृतियों का तिरस्कार कर दे.”

यह तय है कि ‘वे सोलह दिन; नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन’ भारतीय संविधानमें किए गए पहले संशोधन, उसके पीछे के उद्देश्य या एजेंडे और राजनैतिक जंग की दिलचस्प कहानी है.

यह संशोधन देश के पहले आम चुनाव से ठीक पहले हुआ. कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में जिन सामाजिक-आर्थिक योजनाओं का उल्लेख था, उन्हें उदार संविधान और स्वतंत्र प्रेस से चुनौतियां मिल रही थीं. इसका सामना करने के लिए प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कार्यपालिका की सर्वोच्चता को फिर से स्थापित करते हुए संवैधानिक नियंत्रण और दवाब का एक कड़ा ढांचा खड़ा कर दिया.

आजकल सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह पर बहस चल रही है, यह किताब स्थापित करती है कि राजद्रोह वाला कानून पिछली तारीख से फिर से लागू करने का काम नेहरू ने किया था, जबकि देश में संविधान लागू किए जाने के समय उस कानून को निष्क्रिय कर दिया गया था.

यह बेहद सामान्य ज्ञान की बात है कि देश का संविधान कड़ी मेहनत से तैयार किया गया था और फिर 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था. 26 जनवरी, 1950 को संविधान सभा के सदस्यों ने नए संविधान पर अपने हस्ताक्षर किए और भारत एक गणतंत्र बन गया.

लेकिन ऐसी क्या जरूरत पड़ गई कि संविधान के उन्हीं निर्माताओं ने,जो स्वतंत्रता के बड़े पैरोकार थे, अपनी कृति में ये कहकर संशोधन कर दिया कि इसमें अत्यधिक स्वतंत्रता है.

राज्यसभा सांसद स्वपन दासगुप्ता कहते हैं- ‘स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों के मनोहर चित्रण और राजनीति के असहज यथार्थ के बीच की खाई को त्रिपुरदमन सिंह ने इस किताब में बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है. यह संशोधनवादी इतिहास नहीं है, बल्कि संवैधानिक मूल्यों एवं राजनीतिक प्राथमिकताओं के बीच के पहले तनावों की स्पष्ट छवि है. इस किताब में नेहरू एक खलनायक की तरह नहीं, बल्कि एक मँझे हुए राजनेता की तरह उभरकर सामने आते हैं. इसे अवश्य पढ़ा जाना चाहिए.’

बहरहाल, जोरदार संसदीय बहसों और विरोधों के बीच जून, 1951 में पहला संविधान संशोधन किया गया. इस संशोधन ने कुछ नागरिक स्वतंत्रताओं और संपत्ति के अधिकारों को सीमित कर दिया और कानूनों की एक विशेष अनुसूची तैयार की, जो न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर थी.

आखिर संविधान लागू होने के महज़ एक ही साल बाद ऐसी कौन-सी चुनौती देश के सामने आ खड़ी हुई थी? संसदीय बहसों, न्यायिक दस्तावेजों और विद्वानों की राय के आधार पर यह किताब पंडित नेहरू, आंबेडकर, पटेल, राजेंद्र प्रसाद और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे दिग्गजों के बारे में हमारी पारंपरिक समझ को एक चुनौती देती है. साथ ही यह पुस्तक, भारतीय संविधान के उदारवादी स्वरूप और उसकी पहली यानी अंतरिम सरकार में आ चुके अधिनायकवादी पुट का जिक्र भी कर करती है.

त्रिपुरदमन सिंह इस किताब में विस्तार से बताते हैं कि संविधान लागू होने के महज पंद्रह महीनों के बाद संविधान निर्माताओं को ऐसी कौन सी मजबूरी का सामना करना पड़ा था कि संविधान में बदलाव लाए गए?आखिर भारत सरकार और कांग्रेस पार्टी को उन असाधारण कदमों को उठाकर संविधान में ऐसे क्रांतिकारी बदलाव की क्या ज़रूरत महसूस हुई थी जिसे उन्होंने खुद ही 1950 में मान्यता दी थी? जून 1951 में हुए संविधान के पहले संशोधन पर हुए उस घनघोर बहस का क्या नतीजा निकला जिसका संसद के अंदर और बाहर भारी विरोध हुआ था?

त्रिपुरदमन सिंह आमुख में ही लिखते हैं, “चुनाव सिर पर आने और संवैधानिक प्रावधानों के कारण सरकार के बड़े कदमों के नाकाम रहने से 1951 के आरंभ तक प्रधानमंत्री नेहरू की हताशा बढ़ने लगी थी और उनकी योजनाएं निष्फल हो रही थीं. सामान्य रूप से बेसब्र और अड़ियल रवैए वाले नेहरू उस समय अपने रास्ते में टांग अड़ाने वाले लोगों की गुस्ताखी से बहुत नाराज हो रहे थे. उनके शब्दों में यह स्थिति असहनीय थी.”

हालांकि कहीं-कहीं किताब में लेखक बेशक नेहरू को लेकर अतिशय आलोचनात्मक दृष्टि अपनाते नजर आते हैं, लेकिन उसे हटाकर देखा जाए तो किताब पठनीय है.

वरिष्ठ अधिवक्ता फली एस नरीमन पुस्तक के बारे में लिखते हैं- ‘गहन शोध के बाद लिखी इस पुस्तक को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि यह भारत के संवैधानिक इतिहास को लेकर मौजूद गौरवान्वित और अतिशयोक्तिपूर्ण अवधारणाओं को बदल कर रख देगी. इसके पन्नों को पलटते हुए हमें केंद्र में अत्यधिक बहुसंख्यकवादी सरकारों के फायदों को (और उसके कुछ ख़तरों को भी) बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलती है.’

मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब को हिंदी में नीलम भट्ट और सुबोध मिश्र ने अनूदित किया है. अनुवाद सहज और सुंदर है. त्रिपुरदमन सिंह की यह किताब आधुनिक भारत इतिहास के अध्येताओं के लिए जरूरी किताब है.

किताबः वे सोलह दिनः नेहरू, मुखर्जी और संविधान का पहला संशोधन

लेखकः त्रिपुरदमन सिंह

प्रकाशनः पेंगुइन-हिंद पॉकेट बुक्स

कीमतः 299 रुपए