जब कलीम आजिज को बचाने आगे आए बद्री नारायण गुप्ता

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  [email protected] | Date 15-02-2022
मुशायरे में कलीम आजिज नज्म पढ़ते हुए
मुशायरे में कलीम आजिज नज्म पढ़ते हुए

 

साकिब सलीम

आजादी के बाद के भारत में लिखने और प्रकाशित करने वाले सभी उर्दू शायरों में से कलीम आजिज सबसे प्रमुख हैं. पद्म श्री से सम्मानित आजिज ने 1949 में मुशायरे में भाग लेना शुरू किया.

शुरुआत से ही उनकी कविता ने विभाजन के इर्द-गिर्द सांप्रदायिक हिंसा के दर्द को दर्शाया. 1946 में तेलहारा, नालंदा (बिहार) में विभाजन की हिंसा के दौरान, उन्होंने मां और बहन सहित अपने परिवार के 22 सदस्यों को खो दिया.

परिवार के सदस्यों को खोने वाले अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन मातृभूमि के लिए उनका प्यार अटूट रहा. आजिज भारत में रहे, राजनीतिक आंदोलनों में भाग लिया और शिक्षा के प्रसार के लिए काम किया. उनकी शायरी ने लोगों को विभाजन के आसपास सांप्रदायिक हिंसा के तांडव की याद दिला दी.

आजिज ने एक ऐसे शायर के रूप में ख्याति अर्जित की, जो शक्तिशाली लोगों के सामने निडर होकर बात कर सकता था. 1957 में, लोगों ने उन्हें स्वतंत्रता दिवस मनाते हुए बिहार के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. जाकिर हुसैन की उपस्थिति में सुनाई जाने वाली एक नज्म लिखने के लिए कहा.

https://www.hindi.awazthevoice.in/upload/news/164486376018_When_Badri_Narain_Gupta_came_to_save_Kalim_Aajiz_2.jpg

कलीम आजिज फोन सुनते हुए 


सभी का मानना था कि वह खुशी से कुछ लिखेंगे, लेकिन उन्होंने लोगों को देश की आजादी के साथ हुई हिंसा की याद दिला दी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आजादी के साथ-साथ विभाजन की हिंसा के पीड़ितों को याद करने के लिए एक दिन समर्पित किया है. आजिज जब से नज्म लिखना शुरू किया, तब से वही संदेश दे रहे थे. 15 अगस्त, 1957 को हुसैन की उपस्थिति में उन्होंने पाठ कियाः

याद है आपको वो हर रवीश-ए-गुलशन पर

फूल रौंदे हुए मसली हुई कलियां न कहिये

(बताओ, क्या तुम्हें बाग के हर रास्ते पर रौंदे गए फूल और कुचली हुई कलियां याद हैं?)

आजिज आशावान व्यक्ति थे, जो मानते थे कि स्वार्थी राजनेताओं ने देश को धोखा दिया है. उन्होंने भारत से वह उम्मीद कभी नहीं खोई, जो विदेशी शासकों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ा था. अपनी आत्मकथा में अजीज लिखते हैंः

"स्वतंत्रता से पहले भारतीय राजनीति का एक महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ आध्यात्मिक लक्ष्य था. इस लक्ष्य ने भारत को हार के मोतियों की तरह एक कर दिया. इन सभी लोगों की अलग-अलग पहचान थी, लेकिन भारतीय होने का एक सामान्य रिश्ता था. इस एकता और राष्ट्रीय लक्ष्य ने दिखाया कि स्वतंत्रता के असंभव कार्य को प्राप्त किया जा सकता है. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और इसने जो एकता दिखाई थी, वह एक ऐतिहासिक घटना थी."

जिस क्षेत्र में वे रहते थे, नालंदा में, 1946 में सांप्रदायिक हिंसा के दौरान सैकड़ों मुसलमान मारे गए थे. मुसलमानों के अधिकांश घरों और संपत्तियों को बाद में उन लोगों ने अपने कब्जे में ले लिया, जिन्होंने उन्हें नष्ट कर दिया.

आजिज  के घर को अस्थाई थाने में तब्दील कर दिया गया था. उनका मानना था कि हिंसा के दौरान नष्ट की गई संपत्ति हिंसा के अपराधियों के पास नहीं जानी चाहिए, क्योंकि इससे उनका हौसला बढ़ता है.

आजादी के तुरंत बाद, उन्होंने सरकार को प्रस्ताव दिया कि पुलिस स्टेशन को वहां से स्थानांतरित नहीं किया जाना चाहिए औरघर अछूता रहा, वेसरकार को जमीन दान करने के लिए तैयार थे.

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यूनीवर्सिटी में युवा कलीम आजिज 


आपातकाल के बाद जब कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने थाने को शिफ्ट करने का आदेश पारित किया. दिलचस्प बात यह है कि कुछ दिन पहले ठाकुर ने वादा किया था कि उनके पुश्तैनी घर को बचा लिया जाएगा. तीन दशकों की कानूनी लड़ाई के बाद, आजिज एक पराजित व्यक्ति थे.

लेकिन फिर भी, सब खो नहीं गया था. भारत ने अपनी आत्मा नहीं खोई थी. अजीज ने याद किया कि जब सरकार बेबस थी, तब ईश्वर की अलग-अलग योजनाएं थीं. जिस दिन सरकार ने थाने को स्थानांतरित करने का आदेश दिया, तेलहारा का एक धनी व्यक्ति उनसे मिलने आया और सम्मानपूर्वक कहा, ‘मुझे आपका घर चाहिए. मैं उस घर में कभी कोई परिवर्तन नहीं करूंगा. आप जब चाहें अपने पुश्तैनी घर जा सकते हैं और रह सकते हैं.’ वह शख्स था बद्री नारायण गुप्ता, एक हिंदू.

गुप्ता ने घर खरीदने के लिए 32,500 रुपये का भुगतान किया, जो 1979 में एक बड़ी राशि थी. अपनी मृत्यु तक, जब भी आजिज घर जाते थे, गुप्ता एक विशेष अतिथि के रूप में उनकी मेजबानी करते थे.

उसके लिए एक विशेष बिस्तर, भोजन और पेय तैयार किया जाता था. यदि यह पर्याप्त नहीं भी था, तो गौर करें कि गुप्ता ने उस क्षेत्र के ईदगाह (मुसलमानों की प्रार्थना स्थल) के कार्यवाहक की भूमिका निभाई, जहां मुसलमान अब नहीं रहते थे.

आजिज लिखते हैं, ‘मूर्तिपूजकों में काबा को एक केयरटेकर मिल गया.’ लेकिन क्या यह वह भारतीय समाज नहीं है, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने संघर्ष किया था?