ट्यूशन फैशन और ट्यूशन टीचर की फीस स्टेटस सिंबल बन गए, यह बहुत बुरा हुआ: एस वाई कुरैशी

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 19-02-2021
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी

 

देश के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी चुनाव प्रक्रिया पर अपनी गहरी पकड़ और उनके निष्पक्ष संचालन को लेकर अपनी प्रतिबद्धता के लिए जाने जाते हैं. लेकिन, 1971बैच के आइएएस अधिकारी कुरैशी के नाम कुछेक और भी बातें दर्ज हैं. मसलन, उस वक्त जब मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों में मुख्यधारा की पढ़ाई-लिखाई को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं होता था और सरकारी सेवा में चयन को लेकर उनके मन में संशय बना रहता था, कुरैशी आइएएस के लिए चयनित हुए थे. वह उस बात के लिए नौजवानों के आदर्श भी बने. अब, सेवानिवृत्त होने के बाद भी उनकी इच्छा है कि वह अपने अगले जन्म में भी लोकसेवक ही बनें. नौजवान प्रतिभागियों से उनका कहना है कि परीक्षा या इंटरव्यू में नाकामियों से परेशान न हों और हिम्मत बनाए रखें. यूपीएससी परीक्षा के मद्देनजर छात्रों के लिए उन्होंने आवाज (अंग्रेजी) की संपादक आशा खोसा से अपने तजुर्बे बांटे. पेश हैं उसके मुख्य अंशः

सवालः आपने सब सिविल सर्विसेज जॉइन करने का इरादा कैसे किया और इस रास्ते में कैसी मुश्किलात पेश हुईं.

एस वाई कुरैशीः मेरी बात तो बहुत पुरानी हो गई. 1968में जब मैं स्कूल में था तो मेरे घर में पढ़ाई-लिखाई का मौहाल था. स्कूल में मैंने अच्छा प्रदर्शन किया तो घरवालों ने कहा कि इस लड़के को फॉरेन सर्विस में जाना चाहिए. उस समय तो पता नहीं था कि यह सर्विस क्या होती है लेकिन उसका जिक्र छठी-सातवीं क्लास से ही होना शुरू हो गया था. उसके बाद मेरे अंक अच्छे आए तो मेरा दाखिला सेंट स्टीफंस कॉलेज में हिस्ट्री ऑनर्स में हो गया. जबकि स्कूल में मेरा इकोनॉमिक्स और कॉमर्स था. हिस्ट्री इसलिए चुना क्योंकि सेंट स्टीफंस की हिस्ट्री ऑनर्स की क्लास आइएएस की नर्सरी मानी जाती थी. तो इस क्लास में से 90फीसद लड़के सब सिविल सर्विसेज में ही जाते थे. फर्स्ट इयर से ही मुझे सिविल सर्विसेज का माहौल मिल गया क्योंकि ज्यादातर लोग उसी की तैयारी कर रहे थे, क्योंकि उनके अभिभावक आइएएस-आइएफएस वगैरह थे. मैं ही नॉन-सिविल सर्वेट बैकग्राउंड से था और मेरे माता-पिता टीचर थे. तो उस माहौल से मैंने बहुत कुछ सीखा.

दूसरी चीज यह हुई कि जब मेरा रिजल्ट आया तो हिंदुस्तान टाइम्स में एडिटोरियल आया कि मैं उसमें कामयाब होने वाला एकमात्र मुस्लिम था. बंटवारे के बाद पुरानी दिल्ली में रहने वाला और यूपीएससी में चुना जाने वाला मैं पहला मुस्लिम था. यह दोनों ही अफसोसनाक बात थी क्योंकि हमारे बैच में सौ के करीब लोग थे और उसमें मुस्लिम एक अकेला मैं. बजाए उससे कि यह फील करूं कि कितना एक्सक्लूसिव हूं मैं, मुझे अहसास हुआ कि बाकी लोग क्यों नहीं आते? उस वक्त यह माहौल था मुसलमान आपस में कहा करते मुसलमान कंपीटिशन देकर क्या करेगा? लिया तो जाएगा नहीं वह. तो टाइम बरबाद क्यों करे? तो पढ़ने-लिखने या क्वॉलिटी एजुकेशन की तरफ ध्यान नहीं था. लेकिन अब तो हालात बिल्कुल ही बदल गए हैं. अब तो बच्चे बहुत उत्साह से तैयारियां कर रहे हैं और हर बैच में पांच-छह बच्चे चुने जाते हैं यह बहुत अच्छी बात है. मेरे से पहले वाले बैच में भी एक ही मुस्लिम था और 1971 मेरा बैच है उसमें भी एक ही मुस्लिम था. या शायद दो थे एक शायद मुस्लिम लड़की भी थी. पर माहौल बदला और बच्चों में हिम्मत आई. कुछ को तो मुझे देखकर भी आनी चाहिए थी, क्योंकि एक साधारण परिवार का लड़का अगर चुनकर आता है तो वह भी आ सकता है. इसके बाद तीन-चार साल के अंदर, पुरानी दिल्ली से कई आईपीएस चुनकर आए.

सवालः आजकल के बच्चों के पास साधन है, सारी सूचनाएं फटाफट मिल जाती हैं. तो उनको मेंटल लेवल पर कैसी तैयारी करनी चाहिए या अपना लक्ष्य हासिल करने के स्तर पर तैयारी कैसी होनी चाहिए?

एस वाई कुरैशीः आजकल अवसर ज्यादा हैं. नेट की वजह से अप टू डेट नॉलेज उपलब्ध हैं. मेहनत करनेवाले लोग चुने जाते हैं सर्विसेज में और आइएएस में. यह सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिए नहीं, बल्कि और भी जो हैं जनरल क्लासेज के, वह भी मिडिल लोअर और लोअर क्लासेसज से आ रहे हैं यह तो गर्व की बात है. सबके लिए समान अवसर है और यह बहुत अच्छी बात है. कोचिंग सेंटर बने हैं जो उपयोगी तो हैं पर उनके हित व्यावसायिक हैं. कई विश्वविद्यालय हैं जैसे कि जामिया मिल्लिया और जामिया हमदर्द ने भी कोचिंग सेंटर बनाए हैं. सत्तर के दशक में अलीग़ढ़ विश्वविद्यालय ने किया था तो इससे कई मुस्लिम बच्चे सिविल सेवा में आए. यहां कैसे बात करें, अंदाज कैसा होना चाहिए और मैनरिज्म सिखाया जाता है. वहां आत्मविश्वास बढ़ाया जाता है कि अगर सवाल का जवाब नहीं आता हो तो ईमानदारी से मान लिया जाए, हवा मे तीर न मारें.

सवालः क्या कोचिंग सेंटर के बिना भी यूपीएससी की तैयारी की जा सकती है या वहां जाना जरूरी है? और कोई कोचिंग लेना चाहे तो मोटे तौर पर किन बातों का ख्याल रखना चाहिए.

एस वाई कुरैशीः हमारे जमाने में साठ या सत्तर के दशक में किसी किस्म का ट्यूशन लेना बुरा माना जाता था. जो नालायक और फिसड्डी बच्चे थे, वह छुप-छुपकर ट्यूशन लेते थे. फिर जमाना बदला और ट्यूशन फैशन सिंबल हो गया और ट्यूशन टीचर की कीमत स्टेटस सिंबल बन गया. यह बहुत खराब हुआ शिक्षा के लिए क्योंकि स्कूल में पढ़ाई तो होती नहीं और वही टीचर घर जाकर ट्यूशन देते हैं. हमारे वक्त में भी एकाध टीचर के बारे में पता लगा था कि वे ट्यूशन देते हैं. एक तो बड़ा अजीब केस था कि एक साहब ट्यूशन लेते थे. छठी-सातवीं तक तो वह फर्स्ट आते रहे. तो बीए ऑनर्स और एमके करके मैं लेक्चरर लगा दिल्ली कॉलेज इवनिंग में, जो अब जाकिर हुसैन कॉलेज कहलाता है, तो वहां मुझे यह देखकर सदमा लगा कि मेरी एमए की क्लास में वह साहब बैठे हुए हैं जो आठवीं कलास तक टॉप किया करते थे. क्योंकि उनके ट्यूटर साहब उनकी हेल्प किया करते थे. तो इंस्टीट्यशन की एक जो बेईमानी थी उसका नमूना मेरे दिल पर नक्श हो गया था. बहरहाल, बाद में जब आइएएस की तैयारी की और रिटन एक्जाम था, तो उस वक्त मैं लेक्चरर था. मेरे कई साथी कहते थे कि अब किस चक्कर में पड़े हो, यह भी अच्छी नौकरी है बने रहो. पहले साल तो मुझे भी अच्छा लगा. असल में, मैं फर्स्ट इयर वालों की दिलचस्पी जगाने के लिए एमए के लेबल का पढ़ाता था.  मैंने पानीपत की लड़ाई तीन दिन में पढ़ाया तो स्टाफ रूम में सब मुझ पर हंस रहे थे कि साहब तीन दिन में आपने सिर्फ एक लड़ाई पढ़ाई, जबकि आपको तो तीन दिन में पूरा मध्यकालीन इतिहास पढ़ाना था.  तो तुरंत मैंने खुद को ठीक किया.

आठवीं क्लास में इतिहास की एक किताब होती थी एल मुखर्जी की. बहुत अच्छे से लिखी गई थी और स्टाइल भी बहुत अच्छा था. उसको तो पढ़कर कई नॉन हिस्ट्री स्टूडेंट, साइंस के लड़के भी आइएएस के लिए एल मुखर्जी पढ़कर हिस्ट्री में अच्छे मार्क्स ले आते थे. तो हमने एमल मुखर्जी से पढ़ाया तो ठीक टाइम पर कोर्स पूरा हो गया लेकिन हमें डिसएल्यूजनमेंट हो गई कि जिंदगी ऐसे ही काटनी है कि दिन भर में दो घंटे के दो लेक्चर लेने हैं और उसके बाद मौज कीजिए. तो फिर मैंने सोचा कि तैयारी करते हैं. तो मेरे एक साथी थे विनोद राय, जो सीएजी बने और एक थे विश्वनाथन, तो हम तीनों बैठे. किस्मत से मैं पहले प्रयास में ही पास हो गया. दोनों केंद्रीय सेवाओं में आए, दोनो मुझसे अधिक प्रतिभावान थे, मेहनती थे और अगले साल दोनों आइएएस में आए और उनका 1972 का बैच हो गया.

आशा स्वरूप जो हिमाचल की मुख्य सचिव के तौर पर रिटायर हुई हैं, लेक्चरर के पोस्ट पर मेरी वेकैंसी पर उन्होंने जॉइन किया. वह भी बाद में आइएएस में आ गईं. बल्कि मुझसे भी इंटरव्यू में सवाल किया गया कि आपको हम ले लेंगे तो आप तो भाग जाओगे. क्योंकि मुझसे पहले भी दो-तीन लोग भाग गए थे. पर मैंने कहने की कोशिश की कि भई, मेरे परिवार में तो सभी एजुकेशन से हैं. और आइएएस तो मेरा बिल्कुल आखिरी विकल्प है. अब यह बात उन्होंने मानी या नहीं मानी, बहरहाल उन्होंने मुझे ले लिया था.

लोग मुझसे पूछते हैं कि अगर आप दोबारा जन्म लेते हैं और आपके पास फिर से विकल्प हो तो आप क्या चुनेंगे, मैं कहता हूं कि मैं फिर से सिविल सेवा ही चुनूंगा क्योंकि इसमें जो काम करने के अवसर हैं और आप ग्रास रूट लेवल से ग्लोबल लेवल तक काम कीजिए, यह मौका किसी और सेवा में नही हो सकता. और विविधता बहुत है आज आप एग्रीकल्चर में है, कल आईटी में हैं, इंडस्ट्री में हैं. आप चूंकि विभाग के अध्यक्ष होते हैं तो अनपढ़ता दिखा देंगे तो क्या इज्जत रहेगी और कौन अधीनस्थ आपकी बात मानेगा? तो आपको जल्द से जल्द सीखना होता है और इतना अच्छा सीखना होता है कि आप फिर नेतृत्व कर सकें. तो जिंदगी भर आप सीखते ही रहते हैं. पढ़ते ही रहते हैं. यही इस सेवा की सबसे बड़ी खूबी है.

इसलिए मै युवाओं को यह कहूंगा कि इस सर्विस को आप जरूर ट्राई करें. मेरी किताब है, द अनडॉक्यूमेंटेड वंडरः मेकिंग ऑफ द ग्रेच इंडियन इलेक्शन्स यह पूरे चुनाव प्रक्रिया का ब्योरा देता है और वह भी किस्से कहानियों के अंदाज में. तो यह बच्चों ने पढ़ी होती है. उससे जुड़े जो सवाल होते हैं वह मुझसे पूछते हैं, उनमें से कई बच्चे होते हैं जो पूछते है कि मैं इंटरव्यू तक पहुंचा, पर मेरा पांच नंबर से रह गया तीन नंबर रह गया. तो मैं उनको राय देता हूं कि हिम्मत न हारना क्योंकि हर साल ऐसे मामले आते हैं कि चार कोशिशों में फेल होने के बाद पांचवे में वह आइएएस में टॉप कर गया, तीसरे-चौथे रैंक तक पहुंच गया. तो बुनियादी तौर पर सलाह यही होती है कि हिम्मत न हारो, पढ़ते रहो. तो आज नहीं तो कल चांस यही होता है कि सर्विस आपका पीछा करेगी बजाए इसके कि आप सर्विस का पीछा करें.

सवालः आपके समय में एकाध मुसलमान ही सिविल सेवा में आते थे. अब चार-पांच आते हैं तो आबादी के लिहाज से उनका प्रतिनिधित्व अखिल भारतीय सेवाओं में अभी भी कम है तो आप मुस्लिम नौजवानों को टिप्स दें कि आखिर उनकी भागीदारी कैसे बढ़े इसमें?

एस वाइ कुरैशीः जो ट्रेंड है वह अच्छा है क्योंकि संख्या बढ़ती जा रही है. कभी कम कभी ज्यादा हो सकता है लेकिन कंबाइंड सर्विसेज में देखिए, अगर हजार लोग लिए जाते है तो चालीस-पचास बच्चे मुस्लिम होते हैं. ये तो तीन साल का औसत है. और यह इतना है कि कुछ लोगों ने इसे नोटिस करना शुरू कर दिया कि इतने मुसलमान क्यों आ रहे हैं भाई. किसी ने सवाल किया कि क्या इनके पक्ष में कोई पक्षपात हो रहा है. वह एक अलग ही पॉलिटिक्स हो गई. मेहनत कर रहे हैं तो उसका फल मिल रहा है, नतीजे आ रहे हैं. लेकिन सबक यह है कि थोड़ी और मेहनत करें. और यूनिवर्सिटीज की कोचिंग है उसे करें. प्राइवेट अफोर्ड कर सकते हैं तो जरूर करें. मैंने भी पहले कोचिंग की थी. राव स्टडी सर्किल उस जमाने में बड़ा यूनीक था क्योंकि अकेला ही था सिर्फ इंटरव्यू के लिए. वहां मैंने बहुत कुछ सीखा. मेरी पर्सनैलिटी में, मेरे रिफ्लैक्सेस में, सीखा, राव का जो स्टाइल था कि वो आपको कस्टमाइज एडवाइस देते थे. उन्होंने दी और उसका मैंने बहुत फायदा उठाया.