होली का त्योहार मूलतः मुहब्बत और भाईचारे का है. ऐसा नहीं है कि होली महज हिंदुओं का उत्सव है. इसके इंद्रधनुषी रंगों में सूफी मत का असर भी दिखता है. उर्दू के बहुत सारे शायरों ने अपनी नज्मों में होली के खूब रंग बिखेरे हैं. सूफी कलामों में होली का रंग अलहदा ही नजर आता है. सूफी मत से जुड़े कलामों को पढ़ें तो वही भाव मिलते हैं जो भक्ति काल की प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई के पदों में मिलता है. अपने आराध्य संग होली खेलने की अप्रतिम मनोकामना लिए अनेक मुस्लिम कवियों ने अविस्मरणीय पंक्तियां रचीं.
असल बात यह है कि हिंदुस्तान की उत्सवधर्मिता ही देश के सौहार्द्र का मूल है और खासतौर पर होली ऐसा त्योहार है जिसमें लोग अपने दुश्मनों से भी गले लगा जाता है और सारे शिकवे मिटा दिए जाते हैं. किसी ने क्या ख़ूब कहा है
'आ मिटा दें दिलों पे जो स्याही आ गई है,
तेरी होली मैं मनाऊं, मेरी ईद तू मना ले!'
असल में सूफी संत अपना पैगाम देने जहां भी गए उन्होंने वहां के रीति-रिवाजों, रस्मों, त्योहारों और भाषा को भी अपनाया. हिन्दुस्तान में सूफीमत पर खासतौर पर हिन्दुओं के वेदांत से प्रभावित है.
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चिश्ती सूफी संप्रदाय के सूफी संतों ने तो इस परंपरा को और भी विस्तार दिया. दिल्ली के सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया कहा करते थे, ‘हर कौम रास्त राहे दीने व किब्ल गाहे’ यानी दूसरे मजहब के अवतारों और संतों को हरगिज बुरा न कहना.
हजरत निजामुद्दीन औलिया के मुरीद सूफी कवि और संगीतकार अमीर खुसरो ने दिल्ली में वसंत और होली मनाने का रिवाज शुरू किया.
इस मौके पर दरगाहों पर अमीर खुसरो के फारसी और हिन्दवी के होली और रंगों से जुड़े गीत गाए जाते हैं. अभी कुछ दिन पहले ही दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह और अजमेर में ख्वाजा गरीबनवाज की दरगाह में फाग उत्सव मनाया गया था और हर साल की तरह इस बार भी वहां हर मजहब के लोगों ने शिरकत की थी.अमीर खुसरो अपने अधिकांश होली गीतों में अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया के साथ होली खेल रहे हैं.
‘गंज शकर के लाल निजामुद्दीन चिश्त नगर में फाग रचायो,
ख्वाजा मुईनुद्दीन, ख्वाजा कुतबुद्दीन प्रेम के रंग में मोहे रंग डारो
सीस मुकुट हाथन पिचकारी, मोरे अंगना होरी खेलन आयो,
खेलो रे चिश्तियों होरी खेलो, ख्वाजा निजाम के भेस में आयो.
अपने रंगीले पे हूं मतवारी, जिनने मोहे लाल गुलाल लगायो
ख्वाजा निजामुद्दीन चतुर खिलाड़ी बईयां पकर मोपे रंग डारो,
धन धन भाग वाके मोरी सजनी, जिनोने ऐसो सुन्दर प्रीतम पायो.’
अमीर खुसरो जिस दिन निजामुद्दीन औलिया के मुरीद बने उस दिन होली का त्योहार था. वे खानकाह से सीधे अपनी मां के पास आशीर्वाद लेने घर पहुंचे. वे गहरे भागवेग में डूबे हुए थे. अपनी प्रिय माताजी के समक्ष जा कर उन्होंने यह गीत गाया-
‘आज रंग है ए मां रंग है री
मोरे महबूब के घर रंग है री
सजन गिलावरा इस ऑगन में
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया,
गंज शकर मोरे संग है री.’
निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया.
अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया,
फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया.
कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया,
मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया.
आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया.
वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री
अमीर खुसरो के अलावा बहुत सारे सूफी संत हुए हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं में होली को जगह दी है. सूफी शाह नियाज ने लिखा हैः
होरी होए रही है अहमद जियो के द्वार
हज़रत अली का रंग बना है हसन हुसैन खिलार
ऐसो होरी की धूम मची है चहुँ ओर पड़ी है पुकार
ऐसो अनोखो चतुर खिलाडी रंग दीन्हो संसार
नियाज़ पियारा भर भर छिड़के एक ही रंग सहस पिचकार
पंजाबी सूफी संत बुल्ले शाह ने भी होली की रंगत पर अपने कलाम लिखे हैं.
नाम नबी की रतन चढी, बूँद पडी इल्लल्लाह
रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फ़ना-फी-अल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियाँ ने घूंघट खोले
क़ालू बला ही यूँ कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह
होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह
जाहिर है, होली का त्योहार सिर्फ रंगों का त्योहार नहीं. यह हिंदुस्तानियत का त्योहार है, जिसमें हरा भी मौजूद है, लाल भी, सफेद, नीला और भगवा तो खैर है ही.