प्रो. अख़्तरुल वासे
हमारी आजादी की हर कहानी तब तक अधूरी है, जब तक हम अपने उन महान विद्वानों और बुद्धिजीवियों को याद नहीं करते जिन्होंने अपनी कुर्बानी दे दी, लेकिन अंग्रेजों के आगे सिर नहीं झुकाया.
इन लोगों के साहस, सम्मान और दृढ़ संकल्प के इतिहास की छाप आज भी दिल्ली, मेरठ, शामली, लखनऊ और कुछ अन्य शहरों और कस्बों में देखी जा सकती है. हमारे विद्वानों ने सोचा कि वे अंग्रेजों को अपनी प्यारी मातृभूमि भारत को गुलाम बनाने से नहीं रोक पाए हैं,
लेकिन उन्हें कम से कम अपने धर्म की रक्षा के लिए उपाय करने चाहिए, ताकि उनकी नई पीढ़ी ईसाई धर्म के बढ़ते संकट से बचाया जा सके. इसी भावना से दारुल उलूम देवबंद की स्थापना 30 मई 1866 को देवबंद में हुई थी.
देवबंद में इस पहल के बाद, सहारनपुर से लगभग 36 किमी की दूरी पर, केवल छह महीने बाद, वर्ष 1866 में ही एक नई संस्था की स्थापना हुई, जिसे जामिया मजाहिर उलूम के नाम से जाना जाता है.
उसने सबसे पहले हजरत मौलाना अहमद अली मुहद्दिस सहारनपुरी और उसके बाद मौलाना खलील अहमद सहारनपुरी और फिर उनके बाद शेखुल हदीस मौलाना मुहम्मद जकरिया साहब के नेतृत्व में ऐसा प्रकाश फैलाया कि 150 साल से अधिक समय से आज वहां से फजीलत (मदरसा की एक उच्च शिक्षा की उपाधि) के प्रमाण-पत्र लेकर निकलने वाले फाजिलीन (मदरसा की एक उच्च शिक्षा के उपाधि धारक) इस्लाम की सार्वभौमिक शिक्षाओं के प्रचार व प्रसार में लगे हुए हैं.
जामिया मजाहिर उलूम का शानदार इतिहास असाधारण महत्व का परिचायक है. दारुल उलूम देवबंद से जुड़े सभी गणमान्य व्यक्तियों का संरक्षण उसे सदैव प्राप्त रहा है एवं शेखुल हदीस (हदीस पढ़ाने वाले) मौलाना मुहम्मद जकरिया साहब का जिस परिवार से संबंध था.
उसके अधिकांश विद्वानों का संबंध कांधले से ही रहा है. तब्लीगी जमात के संस्थापक और उनके बाद उनके उत्तराधिकारी इसी संस्था से पढे़ हुए हैं जिनकी जिंदगी उस आपाधापी के जमाने में निःस्वार्थता, परहित, मुसलमानों को सच्चा मुसलमान बनाने और खुदा से उनके संबंधों को मजबूत करने के लिए समर्पित थी.
उनमें आजकल बड़ा नाम अपनी विद्वतापूर्ण, धार्मिक कौशल और सदाचारी चरित्र की पहचान रखने वाले जामिया मजहिर उलूम के महासचिव मौलाना सैयद मोहम्मद शाहिद सहारनपुरी का है जो कि हजरत शेखुल हदीस मौलाना मोहम्मद जकरिया साहब के पोते हैं.
मौलाना मोहम्मद शाहिद सहारनपुरी का वक्त या तो इबादत में बीतता है या फिर लिखने-पढ़ने में. धर्म के हर संभव विषय पर उनके लेखन हमारे दिल और दिमाग को प्रबुद्ध करते हैं और हमें सीधे रास्ते पर चलने में मदद करते हैं.
अभी कोविड-19 के प्रकोप से कुछ पहले मौलाना शाहिद साहब की एक नहीं बल्कि चार खण्डों में ‘तहरीक-ए-आजादी-ए-हिंद और जामिया मजाहिर उलूम सहारनपुर’ शीर्षक से पुस्तकें प्रकाशित हुईं.
उनका विमोचन भी एक बड़े प्रोग्राम में जामिया मजाहिर उलूम में ही हुआ जिसमें मौलाना सैयद अरशद मदनी सहित कई विद्वान और बुद्धिजीवी शामिल हुए. सभी ने यह स्वीकार किया कि मौलाना सैयद मोहम्मद शाहिद साहब ने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन पर इन चार खण्डों में जो कुछ संग्रह किया है,
उससे अभी तक हम पूरी तरह से परिचित थे. इन चार खण्डों में लगभग 122 स्वतंत्रता सेनानियों और हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए किए गए उनके संघर्षों का वर्णन मौलाना सैयद मुहम्मद शाहिद सहारनपुरी की कलम से हमें पढ़ने को तो मिलता ही है, साथ ही साथ उन्होंने शाह वलीउल्लाह देहलवी रह. के खानदान की कुर्बानियों एवं अन्य उल्मा के पराक्रम पर भी प्रकाश डाला है.
जिससे हमें अपने पूर्वजों की उपलब्धियों, संस्थानों की शैक्षिक गतिविधियों के साथ-साथ देशभक्ति, परोपकार और स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए शुरू किए गए आंदोलन का पता चलता है.
यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि 1896 में सर सैयद के करीबी सहयोगी और बाद में उनके उत्तराधिकारी नवाब मोहसिन-उल-मुल्क ने जामिया मजाहिर उलूम के प्रभारी लोगों के निमंत्रण पर संस्थान का दौरा किया और शेखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन रह.,
शेखुल हदीस मौलाना खलील अहमद महाजिर मदनी, मौलाना हाफिज मोहम्मद अहमद, अधीक्षक दारुल उलूम देवबंद और मौलाना हकीम सैयद मोहम्मद इसहाक सहारनपुरी की उपस्थिति में जो स्वागत संबोधन प्रस्तुत किया गया उसमें इस धारणा का जोरदार खंडन किया गया कि मदरसे वाले अंग्रेजी शिक्षा को बुरा मानते हैं.
निःसंदेह, उनके यहां वरीयता में उलटफेर हो सकता है. धार्मिक और आधुनिक शिक्षा में किसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए, इस पर उनकी राय सर सैयद और उनके साथियों से भिन्न हो सकती है, लेकिन यह कहना कि सभी विद्वान समग्र रूप से अंग्रेजी भाषा और आधुनिक शिक्षा के विरोधी थे, ये सही नहीं होगा.
जामिया मजाहिर उलूम के महासचिव की जिम्मेदारियों के साथ मौलाना सैयद मोहम्मद शाहिद साहिब सहारनपुरी द्वारा किया गया कार्य निःसंदेह मूल्यवान है, लेकिन चार खण्डों में प्रकाशित उनका यह प्रयास ‘तहरीक-ए-आजादी-ए-हिन्द और जामिया मजाहिर उलूम सहारनपुर’ इस अर्थ में सर्वोपरि है कि इसमें उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के अत्यंत विद्वतापूर्ण ईमानदारी के साथ शाह वलीउल्लाह के परिवार के प्रयासों और उसके बाद दारुल उलूम देवबंद और मजाहिर उलूम से जुड़े बुजुर्गों का जो किरदार रहा है
उसको ज्यों का त्यों वर्णित किया है और उन सभी पराक्रमी स्वतंत्रता सेनानियों से हमें परिचित कराया है जो कि यदि चार खण्डों में प्रकाशित यह किताब हमारे सामने ना होती तो हम उनमें से ज्यादातर लोगों के नामों से अनभिज्ञ रहते. अंत में यह कहना गलत नहीं होगा कि जो काम विश्वविद्यालयों को करना चाहिए था,
वह एक मदरसे वाले ने कर दिखाया. खुदा इसके लिए मौलाना शाहिद साहब को जजा-ए-खैर (अच्छा इनाम) अता फरमाए(प्रदान करे).
लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया के प्रोफेसर एमेरिटस (इस्लामिक स्टडीज) हैं.