पुनर्पाठः उपन्यास ‘एक गधा नेफा में’ सरहदें खींचना आसान, मिटाना मुश्किल

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 06-11-2021
एक गधा नेफा में उपन्यास का कवर
एक गधा नेफा में उपन्यास का कवर

 

ज़ाहिद खान

कृश्न चंदर एक बेहतरीन अफसानानिगार के अलावा एक बेदार दानिश्वर भी थे. मुल्क के हालात-ए-हाजरा पर हमेशा उनकी गहरी नजर रहती थी. यही वजह है कि उनके अदब में मुल्क के अहम वाकये और घटनाक्रम भी जाने-अनजाने आ जाते थे. साल 1962 में भारत-चीन के बीच हुई जंग के पसमंजर में लिखा, उनका छोटा सा उपन्यास ‘एक गधा नेफा में’ हिंदी-उर्दू अदब में संगे मील की हैसियत रखता है.

अकेले अदबी ऐतबार से ही नहीं, बल्कि प्रमाणिक इतिहास के तौर पर भी इसकी काफी अहमियत है. तंजो-मिजाह (हास्य-व्यंग्य) की शैली में लिखा गया, यह उपन्यास कभी पाठकों के दिल को आहिस्तगी से गुदगुदाता है, तो कभी उसे सोचने को मजबूर कर देता है. चीन की साम्राज्यवादी और धोखा देने वाली फितरत को कृश्न चंदर ने बड़े ही खूबसूरती से उजागर किया है.

आज जब भारत-चीन के बीच एक बार फिर सीमा विवाद है, दोनों मुल्कों के बीच तनाव घटने का नाम नहीं ले रहा, चीन हमारी सीमा में रोज-ब-रोज नए-नए दावे कर रहा है, इस पसमंज़र में ‘एक गधा नेफा में’ की प्रासंगिकता और भी ज्यादा बढ़ जाती है. साल 1964 में लिखे गए इस उपन्यास की सारी बातें, छप्पन साल बाद भी चीन की फितरत पर सटीक बैठती हैं.

इस उपन्यास को पढ़ने के बाद, चीन और उसके हुक्मरानों के असली किरदार को अच्छी तरह से जाना-समझा जा सकता है. और यह किरदार है, मक्कारी-दगाबाजी का. साल 1962 की बात करें, तो एक तरफ हमारे प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अंतरराष्ट्रीय मंचों पर चीन की वकालत करते रहे. उसके साथ पंचशील का समझौता किया और बदले में चीन ने भारत के साथ क्या किया ?, धोखा दिया और भारत के खिलाफ जबरन जंग छेड़ दी.

कृश्न चंदर ने अपने इस उपन्यास ‘एक गधा नेफा में’ की शुरूआत उसी चुटीले और व्यंग्यात्मक अंदाज में की है, जिस तरह से उनके इस श्रंखला के दो और उपन्यास ‘एक गधे की आत्मकथा’ और ‘एक गधे की वापसी’ में की थी. लेकिन चालीस पन्नों के बाद, उपन्यास का मिजाज बदलता है और वह अपने मूल विषय पर आ जाता है. चीन आज भले ही इस जंग पर जो कुछ भी बयानबाजी करे, लेकिन इतिहास में दर्ज है कि साल 1962 में चीन ने ही भारत पर हमला किया था.

जंग की शुरुआत हमने नहीं की थी. जंग की शुरूआत तिब्बत सीमा के नेफा क्षेत्र में गुप-चुप तरीके से चीनी सैनिकों की घुसपैठ से हुई और उसके बाद 8 सितम्बर, 1962 को चीन ने अचानक हमला कर दिया. अचानक हुए इस हमले के लिए, भारतीय सेनाएं बिल्कुल तैयार नहीं थी. लिहाजा उस वक्त हमारा बहुत ज्यादा नुकसान हुआ. ना सिर्फ बड़े पैमाने पर जनहानि हुई, हमारे सैंकड़ों सैनिक दुश्मन से लड़ते-लड़ते शहीद हो गए, बल्कि अपनी सरजमीं का बहुत बड़ा क्षेत्र भी हमने गवां दिया था.

बहरहाल, बात अब दोबारा उपन्यास की. कृश्न चंदर ने उस पूरे हंगामाखेज घटनाक्रम को बड़े ही रोचक तरीके से उपन्यास में पेश किया है. वह भी एक जानवर, गधे के मार्फत. नेफा में चीनी सेनाओं ने किस तरह से हमारे मुल्क की सीमाओं में घुसपैठ की, भारतीय सैनिकों ने अपने से कई गुना चीनी सैनिकों का किस बहादुरी से मुकाबला किया,यह सब कुछ उपन्यास में सिलसिलेवार आता है. लेखक ने तथ्यों के जरिए एक आख्यान रचा है, जो हमारा इतिहास भी है. एक ऐसा यथार्थ, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता. भविष्य के लिए एक सबक, जिसे हमेशा याद रखना जरूरी है. 

भारत-चीन के बीच सीमाई विवाद की जड़ क्या है,कृश्न चंदर ने उपन्यास में इस सवाल का भी गंभीरता से अनुसंधान किया है. वह भी चीन के उस वक्त के हुक्मरान चाऊ एन-लाई से उपन्यास के मुख्य किरदार गधे की बातचीत करवा कर. गधा अपने सवालों और दलीलों दोनों से चाऊ एन-लाई को लाजवाब कर देता है. मसलन‘‘जब चीन ने अप्रेल, 1953 में हिंदुस्तान के साथ पंचशील का समझौता किया. सह-अस्तित्व के सिद्धांतों को मानते हुए शांतिमय पड़ौसियों की तरह रहने का संकल्प लिया. तो फिर उसने हिंदुस्तान के खिलाफ लड़ाई क्यों छेड़ी ?’’, (‘एक गधा नेफा में’, पेज-78)

‘‘अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक साल 1684 और 1842 में हुई ऐतिहासिक संधियों में जब लद्दाख, तिब्बत और चीन की सीमाएं तय कर दी गईं थीं, तो चीन उन्हें क्यों नहीं मानता ?’’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-82-83)

इस दिलचस्प बातचीत में जब चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाई ब्रिटिश हुकूमत के समय तय हुई, मैकमोहन रेखा को मानने से भी इंकार कर देता है, तो गधा चीनी शहनशाह खा-हू के उस रेकार्ड का हवाला देता है, जिसमें इस चीनी शहनशाह ने साल 1711 में रेकार्ड और नक्शों के जरिए हिंदुस्तान और चीन के नेफा वाले क्षेत्रों की हदबंदी की थी. (‘एक गधा नेफा में’,पेज-86)

कृश्न चंदर वामपंथी विचारधारा में रचे-पगे रचनाकार थे. साम्यवाद के नाम पर चीन का जब साम्राज्यवादी चेहरा उजागर होता है, तो वे चुप नहीं बैठते. उपन्यास में गधा इसी बातचीत में चाऊ एन-लाई से कहता है, ‘‘चीन ने हिंदुस्तान पर हमला करके कम्युनिज्म की अंतर्राष्ट्रीय एकता को तोड़ दिया है............चीन अपने हाथों से समाजवाद की बुनियादें खोखली कर रहा है.’’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-88)

मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति आलोचनात्मक रवैया इख्तियार करते हुए, कृश्न चंदर अपने किरदार के मार्फत आगे यह तक कहलावा देते हैं कि‘‘आखिर मार्क्स की ‘दास कैपिटल’ कोई वेद, कुरान या बाइबल तो है नहीं. वह एक आदमी की लिखी हुई किताब है. खुदा की बही तो है नहीं कि उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की गुंजाइश ही न हो. दुनिया के सारे फलसफे पुराने और बेकार हो जाते हैं, जब उनका गूदा इंसान खा लेता है.’’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-90)

कृश्न चंदर यहीं नहीं रूक जाते, चीनी सैनिकों द्वारा नेफा और त्वांग क्षेत्र में मचाई गई तबाही और जुल्म-ओ-सितम पर वे तंकीद करते हुए कहते हैं कि ‘‘क्या ये देशभक्त सिपाही हैं ?...कम्युनिस्ट ?....इतिहास और विज्ञान का ज्ञान रखने वाले ?.......मनुष्य के भविष्य के निर्माता ?......एशियाई स्वतंत्रता, सभ्यता और कल्चर के दावेदार ?.......या वही बेचारे पुराने कफनचोर !........बातें करते हो लंबी-लंबी, दुनिया में सोशलिस्ट परिवर्तन लाने की और हालत यह है कि कहीं से जमीन का एक गज मिले या एक पुराना-सा सड़ा गलीचा मिले तो फौरन उसे कंधे पर डाल के घर की तरफ भागना शुरू कर देते हो.’’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-107)

उपन्यास में युद्ध के समानांतर त्वांग घाटी के आदिवासी तबके की यामिंग और मातेन की प्रेम कहानी भी चलती रहती है. गधा, बंबई से एक फिल्म यूनिट के साथ फिल्म की शूटिंग के लिए नेफा पहुंचा था. शूटिंग शुरू ही होती है कि सारी यूनिट मुसीबत में फंस जाती है. इस मुसीबत से पूरी फिल्म यूनिट तो बच के निकल जाती है, लेकिन गधे को त्वांग घाटी में ही छोड़ देती है. यहीं से उपन्यास का असल कथानक शुरू होता है.

कृश्न चंदर ने अपने मुख्य किरदार गधे के जरिए पूरे उपन्यास मेंं जगह-जगह मानीखेज टिप्पणियां की हैं. हास्य-व्यंग्य में डूबी हुई ये टिप्पणियां, पाठकों को कभी मुस्कराने के लिए मजबूर करती हैं, तो कभी उसे गुदगुदाती हैं. खास तौर से गधे को रूपक बनाकर, उन्होंने जो टिप्पणियां की हैं, उनका जवाब नहीं.

 ‘एक गधा नेफा में’ ना सिर्फ अपने कथानक से पाठकों को प्रभावित करता है, बल्कि शिल्प और भाषा-शैली की दृष्टि से भी इसमें एक अलग ताजगी है. नेफा के दुर्गम क्षेत्र की जिस तरह से कृश्न चंदर ने बारीक डिटेलिंग की है, उससे ऐसा एहसास होता है, मानो लेखक ने यह सारा क्षेत्र अच्छी तरह से घूमा-फिरा हुआ हो. पूरे दृश्य आंखों के सामने जीवित हो उठते हैं. बीच-बीच में कृश्न चंदर पाठकों को इस क्षेत्र के इतिहास, भौगोलिक ज्ञान और यहां रहने वाली जनजातियों से भी वाकिफ कराते चले जाते हैं. खास तौर पर चाऊ एन-लाई से हुए गधे के संवाद में वे इतिहास की ऐसी-ऐसी जानकारी देते हैं, जिससे हम अभी तलक अंजान थे.

तिब्बत के जिन क्षेत्रों कैलाश मानसरोवर, अक्षताल, शमचौक की चौकी, डमचौक, मनसर आदि पर चीन आज अपना अधिकार जमाए बैठा है, वे कभी हमारा हिस्सा थे. जिनके ऊपर चीन ने धोखेबाजी और मक्कारी से अपना कब्जा कर लिया है. कृश्न चंदर, उपन्यास में इस बात की भी शिनाख्त करते हैं कि चीन इस तरह की हरकतें क्यों बार-बार करता है ? उनके मुताबिक, इसलिए कि एशिया के सभी देश डर कर, इस क्षेत्र में चीन की बादशाहत तस्लीम कर लें. 1962 के युद्ध में चीनी सैनिकों और भारतीय सैनिकों के बीच बुनियादी तौर पर क्या बड़ा फर्क थाजिसकी वजह से चीन ने युद्ध में अपनी बढ़त बनाई ? लेखक ने उपन्यास में इसकी भी पड़ताल की है.

उनके मुताबिक एक तो चीन का नेफा के सारे भौगोलिक क्षेत्र का विस्तृत ज्ञान, उस क्षेत्र में पक्की सड़कें तक बना लेना, तो दूसरी महत्वपूर्ण बात, चीनियों का गुरिल्ला पद्धति से जंग लड़ने में महारत. कमोबेश आज भी ऐसे ही हालात हैं, चीन भारत के जिन क्षेत्रों गलवान, डेपसांग और पैंगोंग त्सो एरिया पर कब्जा किए हुए है, उन क्षेत्रों तक वह अपनी सड़क ले आया है. जिसके चलते उसे अपनी सेना और रसद पहुंचाने से लेकर भारत से मोर्चा लेने तक में आसानी होती है. यही नहीं उसने वहां कई स्थाई निर्माण भी कर लिए हैं.

1962 की जंग के बाद, आकाशवाणी से मुल्क को खिताब करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘‘हमें एक ताकतवर और बेईमान दुश्मन का मुकाबला करना है. इसलिए हमें इस स्थिति का सही ढंग से और विश्वास के साथ सामना करने के लिए अपनी ताकत और शक्ति बढ़ानी है.’’ (किताब-‘जवाहरलाल नेहरू के भाषण भाग-2’, प्रकाशक-प्रकाशन विभाग नई दिल्ली, पेज-111)

अफसोस ! परवर्ती सरकारों ने नेहरू की इस नसीहत और हिदायत पर अमल नहीं किया. यदि अमल किया होता, तो देश के सामने आज यह हालात पेश नहीं आते.   

 ‘एक गधा नेफा में’, पूरा उपन्यास छोटे-छोटे अध्यायों में विभक्त है. एक अध्याय पढ़ने के बाद, दूसरा अध्याय पढ़ने की उत्सुकता और भी ज्यादा बढ़ जाती है. यही कृश्न चंदर का सिग्नेचर स्टाइल है. एक बार पाठक उनकी रचना को पढ़ना शुरू करता है, तो उसका अंत करके ही दम छोड़ता है. उपन्यास का अंत युद्ध की निरर्थकता पर लेखक की टिप्पणी से होता है. जिसमें वे चीनी गधे और भारतीय गधे के बीच हुई बातचीत के जरिए पाठकों के सामने कई सवाल छोड़ जाते हैं. उसने मुझसे कहा, ‘‘अब कहां जाओगे ?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं यामिंग के गांव जाऊंगा.’’

‘‘यामिंग का गांव किधर है ?’’ उसने मुझसे पूछा.

‘‘वह उधर है जहां सारी दुनिया की सरहदें आके मिलती हैं. यामिंग के गांव में कोई सिपाही नहीं रहता, वहां कोई जला हुआ चेहरा नहीं मिलता, वहां जुल्फों की बड़ी घनेरी छांव है, जहां धीरे-धीरे मीठे-मीठे ख्वाबों के चश्मे उबलते हैं और प्यासों का इंतजार करते हैं. मैं यामिंग के गांव जाता हूं, क्योंकि अभी मातेन की आंखें जिंदा हैं और जब तक आंखें जिंदा हैं, उम्मीद बाकी है.’’

यह कहकर मैंने उसकी तरफ से मुंह फेर लिया और अपनी राह पर चलने लगा. ‘‘रुको मेरे भाई !’’

वह कहने लगा, ‘‘एक बात मेरी भी सुनते जाओ, क्योंकि मुझे भी वहीं जाना है, जहां तुम्हें जाना है. शायद तुम अपने रास्ते से जाओंगे और मैं अपने रास्ते से जाऊंगा, मगर हम दोनों एक न एक दिन उस लाशों से पटी हुई घाटी के परे क्षितिज के उस पार बेछोर फासले के किसी अंत पर जरूर मिलेंगे, जहां लोग कहते हैं कि यामिंग का गांव है......’’ (‘एक गधा नेफा में’, पेज-127-28)

सवाल, उन हुक्मरानों से भी पूछे जाने चाहिएं, जो दुनिया भर में सत्ता, पैसे और ताकत की हवस में इंसान को इंसान से लड़ाने में मुब्तिला हैं. सरहदें खींचना, सरहदें बढ़ाना उनके लिए आसान है लेकिन सरहदें मिटाना-मिलाना सबसे मुश्किल.