नौनिहाल: भारतीय बच्चों के चाचा नेहरू का सिनेमाई उत्सव

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 13-11-2021
पंडित नेहरू
पंडित नेहरू

 

साकिब सलीम

समाज का हिस्सा होने के नाते, फिल्म निर्माता उन लोगों के मूड को पकड़ने की कोशिश करते हैं जिनसे वह संबंधित है. हाल के दशकों में, हमने भारतीय सिनेमा में आतंकवाद, एलजीबीटीक्यू और भ्रष्टाचार से जुड़ी कहानियों में वृद्धि देखी है. सिनेमा ने हमेशा उस समाज के प्रतिनिधि के रूप में काम किया है, जिससे वह संबंधित है.

आज, एक मित्र ने मुझे जवाहरलाल नेहरू के बच्चों के साथ साझा किए गए बंधन के बारे में विस्तार से बताने के लिए कहा. मेरा तुरंत जवाब था, "1967की फिल्म देखें, नौनिहाल".

इस बंधन की सबसे बड़ी बात कि नेहरू की मृत्यु के बाद निर्मित फिल्म उनके एक बच्चे के 'चाचा'होने की थीम के इर्द-गिर्द घूमती है. सावन कुमार द्वारा लिखित यह फिल्म उस उम्मीद का प्रतीक है जिसे नेहरू आम भारतीयों के दिलों में ला सकते थे. जहां एक ओर यह नेहरू को भविष्य के भारत की आशा के रूप में देखता है, वहीं दूसरी ओर नौनिहाल उस समस्या को सामने लाता है जिसका सामना भारत ने 1960 के दशक में किया था.  

फिल्म की शुरुआत एक स्कूली बच्चे राजू (बबलू) से होती है, जो स्कूल की संपत्ति को नष्ट कर देता है. स्कूल प्रबंधन, इस कदाचार की शिकायत पर, प्रिंसिपल (बलराज साहनी) से राजू के माता-पिता को सूचित करने के लिए कहता है. इस पर प्रिंसिपल ने जवाब दिया कि राजू अनाथ है. प्रबंधन सवाल करता है कि वह 'गैर-अनाथों' के लिए एक बोर्डिंग स्कूल में कैसे पढ़ सकता है और उसे निष्कासित कर दिया जाना चाहिए.

प्रिंसिपल इसकी मुखालफत करता है और अपनी स्थिति की पुष्टि करता है कि अनाथों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए. राजू को स्कूल में रहने दिया जाता है लेकिन नियमित रूप से सहपाठियों के साथ विवाद होता रहता है जो उसे 'अनाथ' कहते हैं.

एक दिन, प्रिंसिपल उसे नेहरू के चित्र के सामने ले जाते हैं, जिसमें कहा गया है कि राजू बिना अभिभावक के नहीं है और नेहरू उनके 'चाचा' हैं. बच्चे का मन इसे गंभीरता से लेता है और यह मानने लगता है कि नेहरू उनके 'चाचा' हैं.

वह उसे पत्र लिखना शुरू करता है, जिसमें से एक का उसे उत्तर भी मिलता है. इसी बीच उसे पता चलता है कि उसका 'चाचा' मुंबई आ रहा है. जब सभी अपने माता-पिता के साथ बोर्डिंग हाउस छोड़ रहे थे तो वह मुंबई भाग गया.

फिर फिल्म एक गिरोह द्वारा पकड़े जाने की कहानी थी, जो उसे अन्य बच्चों के साथ भीख मांगने के लिए मजबूर करते हैं,  और वह वहां से भागकर दिल्ली पहुंचता है. और तब उसे पता चलता है कि जिस दिन वह अपने चाचा से मिलने जाने वाला था उसके चाचा कि मौत हो जाती है.

फिल्म नेहरू के भारत के लिए एक प्रशंसागीत नहीं है. यह देश के भीतर की समस्याओं को सामने लाता है, अपने प्रधान मंत्री से अपने लोगों की शिकायतें और फिर भी उन्होंने जो आशा जगाई है. मुंबई में जब राजू अपने चाचा से नहीं मिल सका, तो वह सरोजिनी नायडू के भाई हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय द्वारा अभिनीत एक विक्षिप्त व्यक्ति से मिलता है, जो राजू से कहता है कि उसका 'चाचा' केवल भाषण देता है और लोगों को उसकी बात सुनता है लेकिन अन्य भारतीयों की कभी नहीं सुनता है.

चट्टोपाध्याय कहते हैं कि उनके पास नेहरू को बताने के लिए बहुत कुछ है और उनसे लाखों भारतीयों को ऐसी ही शिकायतें हैं. उसके बाद, एक गिरोह राजू को पकड़ लेता है, जो उसे भीख मांगने के लिए मजबूर करता है. गिरोह में कई बंदी लड़कियां और लड़के थे, जिन्हें भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता था.

यहां जगदीप द्वारा अभिनीत एक कवि इस गिरोह के लिए गीत लिखता है, जिसे बच्चे गा सकते हैं. वह इस बात पर अफसोस करते हैं कि उस समाज और राष्ट्र का क्या होगा, जहां एक कवि को एक गीत लिखने के लिए कहा जाता है, जिसे देश के बच्चे भीख मांगने के लिए गा सकते हैं.

राजू दिल्ली पहुंचता है और प्रिंसिपल को पता चलता है कि उसे मुंबई में भीख मांगने के लिए कहा गया था. प्रिंसिपल का कहना है कि शुरू में उन्होंने सोचा था कि नेहरू से मिलना राजू का एक अवास्तविक सपना था, लेकिन अब उनका मानना ​​है कि उन्हें नेहरू से मिलना चाहिए. प्रिंसिपल के अनुसार राजू बच्चा नहीं है, बल्कि देश के सभी हाशिए की आवाजों का प्रतिनिधि है. नेहरू गरीब भारत की आवाज नहीं सुन रहे हैं और राजू को अपने जरिए उन आवाजों को सुनाना है.  

जिस दिन राजू अपने 'चाचा' नेहरू से मिलने वाले थे, उसी दिन उनकी मृत्यु की खबर फैल गई. राजू असहनीय था और फिल्म एक यादगार गीत के रूप में भारत के पहले पीएम को श्रद्धांजलि देती है, मेरी आवाज सुनो, प्यार का राग सुनो. इस गीत को कैफी आजमी ने लिखा था जिसे मोहम्मद रफ़ी ने गाया था.

फिल्म में एक बिंदु पर, राजू अपने शिक्षक से पूछता है कि नेहरू अपनी जेब में गुलाब क्यों रखते हैं, जिसका जवाब इस गीत में दिया गया था जब कैफी लिखते हैं, मैंने एक फूल जो देखे पे सजा रखा था, उसके परदे में तुम्हारे दिल से लगा रखा था. यह गीत यह आशा देता है कि इस देश के छोटे बच्चे भारत को नेहरू से कहीं आगे ले जाएंगे.

यह फिल्म नेहरू के भारतीय समाज पर पड़ने वाले प्रभाव और भारतीयों ने उन्हें कैसे महसूस किया, इसकी एक कोमल याद दिलाती है.