कोई चराग़ तो सेहरा में छोड़ते जाओ

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 19-08-2021
 कोई चराग़ तो सेहरा में छोड़ते जाओ
कोई चराग़ तो सेहरा में छोड़ते जाओ

 

संदर्भ : 19अगस्त, शायर जां निसार अख़्तर की पुण्यतिथि

-ज़ाहिद ख़ान

जां निसार अख़्तर, तरक़्क़ीपसंद तहरीक से निकले वे हरफ़नमौला शायर हैं, जिन्होंने न सिर्फ शानदार ग़ज़लें लिखीं, बल्कि नज़्में, रुबाइयां, कितआ और फिल्मी नग़्में भी उसी दस्तरस के साथ लिखे.सरल और आसान ज़बान में बड़ी बात कहने का हुनर उनमें था.आम आदमी को भी उनकी शायरी समझ में आ जाती थी.

 तमाम तरक़्क़ीपसंद शायरों के साथ जां निसार अख़्तर ने भी शायरी को रिवायती रूमानी दायरे से बाहर निकालकर, ज़िंदगी की तल्ख़ हकीकतों से जोड़ा.उनकी शायरी में इंक़लाबी अनासिर तो हैं ही, साम्राज्यवाद और सरमायेदारी की भी मुखालफ़त है.

वतनपरस्ती और क़ौमी-यकजेहती पर भी उन्होंने कई बेहतरीन नज़्में लिखी.‘‘मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं/जो शाने बग़ावत का अलम लेकर निकलते हैं/किसी ज़ालिम हुकूमत के धड़कते दिल पे चलते हैं/.....वो मेहनतकश जो अपने बाजुओं पर नाज़ करते हैं/वो जिनकी कूवतों से देवे इस्तिबदाद डरते हैं/कुचल सकते हैं जो मज़दूर जर के आस्तानों को जो जलकर आग दे देते हैं जंगी कारखानों को/मैं उनके गीत गाता हूं, मैं उनके गीत गाता हूं.’’

दूसरी आलमी जंग, देश की आर्थिक दुर्दशा और तमाम तात्कालिक घटनाक्रमों पर भी उन्होंने नज़्में, ग़ज़लें कहीं.जां निसार अख़्तर साम्प्रदायिक सौहार्द के कट्टर हिमायती थे.उनकी कई नज़्में इस मौज़ू पर हैं.

‘‘एक है अपना जहाँ/एक है अपना वतन/अपने सभी सुख एक हैं/अपने सभी ग़म एक हैं/आवाज दो हम एक हैं/ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं/संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है/गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट गोकुल का मन/गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं/कह दो कोई दुश्मन नज़र उट्ठे न भूले से इधर/कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं/आवाज़ दो हम एक हैं.’’

जां निसार अख़्तर तरक़्क़ीपसंद शायरी के सुतून थे, लेकिन उनकी शायरी में सिर्फ एहतिजाज या बग़ावत के ही जज़्बात नहीं है, इश्क-मुहब्बत के नर्म, नाजुक एहसास भी शामिल हैं.गर उनकी वो शायरी देखें, तो वे एक रूमानी लहज़े के शायर नज़र आते हैं.इस शायरी को पढ़ने के बाद कोई कह ही नहीं सकता कि उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जैसे नीरस विषय पर भी नज़्में कही होंगी.

 ‘‘अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं/कुछ शेर फ़कत उनको सुनाने के लिए हैं/ जब ज़ख़्म लगे तो क़ातिल को दुआ दी जाए/है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए/हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या/चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए.’’ 

‘ख़ाक-ए-दिल’, ‘ख़ामोश आवाज़’, ‘तनहा सफ़र की रात’, ‘जां निसार अख़्तर-एक जवान मौत’, ‘नजर-ए-बुतां’, ‘सलासिल’, ‘तार-ए-गरेबां’, ‘पिछले पहर’, ‘घर-आंगन’ (रुबाईयां) जां निसार अख्तर की ग़ज़लों, नज़्मों की अहम किताबें हैं.

जबकि ‘आवाज़ दो हम एक हैं’ उर्दू में प्रकाशित उनकी सभी किताबों से ली गई चुनिंदा रचनाओं को संपादित की हुई किताब है.जां निसार अख़्तर का एक अहम कारनामा ‘हिंदुस्तान हमारा’ है.दो वॉल्यूम में शाया हुई इस किताब पर उन्होंने प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कहने पर काम किया था.

किताब तीन सौ सालों की हिंदुस्तानी शायरी का अनमोल सरमाया है.वतनपरस्ती, क़ौमी यकजेहती के साथ-साथ इस किताब में मुल्क की कुदरत, रिवायत और उसके अज़ीम माज़ी को उजागर करने वाली ग़ज़लें, नज़्में हैं.

हिंदोस्तानी त्यौहार, तहज़ीब, दुनिया भर में मशहूर मुल्क के ऐतिहासिक स्थल, मुख़्तलिफ शहरों, आजादी के रहनुमाओं, देवी-देवताओं यानी हिंदुस्तान की वे सब बातें, वाकियात या किरदार जो हमारे मुल्क को अज़ीम बनाती हैं, से संबंधित शायरी सब एक जगह मौज़ूद है.

वाकई यह एक अहमतरीन काम है.जिसे कोई दृष्टिसंपन्न लेखक, संपादक ही मुमकिन कर सकता था। इस किताब के जरिए उर्दू शायरी का एक ऐसा चेहरा सामने आता है, जो अभी तक छिपा हुआ था.

भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब को बनाने-बढ़ाने में उर्दू शायरी ने जो योगदान दिया है, यह किताब सामने लाती है। उर्दू अदब और फिल्मी दुनिया में जां निसार अख़्तर के बेमिसाल काम के लिए उन्हें कई पुरस्कार और सम्मान से सम्मानित किया गया.

 साल 1976में ‘ख़ाक-ए-दिल’ के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला.महाराष्ट्र अकादमी पुरस्कार के अलावा सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किए गए.

जां निसार अख़्तर को अच्छी तरह से जानना-समझना है, तो उनकी शरीक-ए-हयात सफ़िया अख़्तर के ख़त पढ़िए, जो उन्होंने जां निसार को लिखे हैं.वे भले ही उनसे दूर रहे, लेकिन सफ़िया की उनके जानिब मुहब्बत जरा सी भी कम नहीं हुई.सफ़िया अख़्तर की कैंसर से बेवक्त हुई मौत ने जां निसार अख़्तर पर गहरा असर डाला.

दिल को झिंझोड़ देने वाली अख़्तर की नज़्में ‘ख़ामोश आवाज़’ और ‘ख़ाके-दिल’ सफिया अख़्तर की मौत के बाद ही लिखी गई हैं.नज़्म ’ख़ाके दिल’ में उनका अंदाज़ बिल्कुल जुदा है,‘‘आहट मेरे क़दमों की सुन पाई है/इक बिजली सी तनबन में लहराई है/दौड़ी है हरेक बात की/सुध बिसरा के रोटी जलती तवे पर छोड़ आई है/डाली की तरह चाल लचक उठती है/खुशबू हर इक सांस छलक उठती है/जूड़े में जो वो फूल लगा देते हैं/अन्दर से मेरी रूह महक उठती है/हर एक घड़ी शाक (कठिन) गुज़रती होगी/सौ तरह के वहम करके मरती होगी/घर जाने की जल्दी तो नहीं मुझको मगर.../वो चाय पर इंतज़ार करती होगी.’’

मशहूर अफसानानिगार कृश्न चंदर ने जां निसार अख़्तर की शायरी पर लिखा है, ‘‘जां निसार वो अलबेला शायर है, जिसको अपनी शायरी में चीख़ते रंग पसंद नहीं हैं, बल्कि उसकी शायरी घर में सालन की तरह धीमी-धीमी आंच पर पकती है.’’ जां निसार अख़्तर बहुत ही मिलनसार, महफ़िलबाज़ और ख़ुशमिज़ाज इंसान थे.

अपने वालिद जां निसार अख़्तर को याद करते हुए, उनके बेटे शायर-गीतकार जावेद अख़्तर ने एक इंटरव्यू में कहा है, ‘‘उन्होंने हमेशा मुझे यह सीख दी कि मुश्किल ज़बान को लिखना आसान है, मगर आसान ज़बान कहना मुश्किल है.’’ जावेद अख़्तर की इस बात से शायद ही कोई नाइत्तेफ़ाकी जतलाए.

यकीन न हो तो जां निसार अख़्तर की ग़ज़लों के कुछ अश्आरों पर नजर-ए-सानी कीजिए, ख़ुद ही समझ में आ जाएगा.‘‘ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें/इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं.’’, ‘‘इश्क़ में क्या नुक़सान नफ़अ है हम को क्या समझाते हो/हम ने सारी उम्र ही यारों दिल का कारोबार किया.’’, ‘‘सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है/हर ज़मीं मुझको मेरे ख़ून से तर लगती है.’’

जां निसार अख़्तर एक बोहेमियन थे.किसी भी तरह की रूढ़ि और धार्मिक कर्मकांड से आज़ाद। सही मायने में तरक़्क़ीपसंद, आज़ादख़्याल ! उन्हें ज़िंदगी में कई रंज-ओ-ग़म मिले.मगर इतने रंज-ओ-ग़म झेलने के बाद भी उनके दिल में किसी के भी जानिब कड़वाहट नहीं थी.

वे हमेशा सबसे दिल खोलकर मिलते थे। नौजवान शायर उन्हें हर दम घेरे रहते थे.जां निसार ने अपने एक ख़त में लिखा है, ’‘आदमी जिस्म से नहीं, दिल-ओ-दिमाग से बूढ़ा होता है.’’ यह बात उन पर भी अमल होती थी.ज़िंदगी के आखिरी वक्त तक उन्होंने अपने ऊपर कभी बुढ़ापा हावी नहीं होने दिया.

रात में देर तक चलने वाली महफ़िलों और मुशायरों में वे अपने आपको मशगूल रखते थे। ‘‘फ़िक़्रों फ़न की सजी है नयी अंजुमन/हम भी बैठे हैं कुछ नौजवानों के बीच.’’ अपनी ज़िंदगी में उन्होंने कभी किसी से कोई शिकवा नहीं किया.

‘‘ज़िंदगी ये तो नहीं, तुझ को संवारा ही न हो/कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो.’’ 19 अगस्त, 1976 को ज़िंदगी का क़र्ज़ उतारकर, जां निसार अख़्तर इस जहां से उस जहां के लिए रुख़सत हो गए, जहां से लौटकर फिर कभी कोई वापस नहीं आता.

 जां निसार अख़्तर भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन ज़िंदगी के सेहरा में वे ऐसा चराग़ छोड़ गए हैं, जो हमेशा हमें रौशनी देता रहेगा.‘‘लहू की बूंद भी कांटों पे कम नहीं होती/कोई चराग़ तो सेहरा में छोड़ते जाओ.’