जलियांवाला बागः देश की एकता का प्रतीक

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 12-04-2021
जलियांवाला बाग नरसंहार
जलियांवाला बाग नरसंहार

 

साकिब सलीम

ऐतिहासिक आख्यान के प्रति मौन, उपेक्षा, उदासीनता के कारण जन मानस में इतिहास और कथा के बीच की रेखा बहुत महीन हो जाती है. लोगों की स्मृति, वैचारिक या राजनीतिक उपयुक्तता के अनुसार चुनिंदा घ्टनाओं को याद रख पाती है, जबकि इसके संदर्भ में संपूर्ण कथा अक्सर भुला दी जाती है.

जलियांवाला बाग नरसंहार एक ऐसी घटना है, जो इकलौती घटना के रूप में सार्वजनिक स्मृति में मौजूद है. 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर में सैकड़ों भारतीयों की हत्या को एक घटना के रूप में देखा जाता है, जो समय और स्थान से पूरी तरह अलग हो गई है. जबकि यह आवश्यक है कि नरसंहार को समय और स्थान के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए.

जलियांवाला बाग में लोग क्यों इकट्ठा हुए?

सामान्य रूप से भारतीय नेतृत्व ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के युद्ध प्रयासों का समर्थन किया. इस वादे के साथ कि  युद्ध के बाद देश को स्वशासन या किसी तरह की राजनीतिक स्वायत्तता दी जाएगी. लेकिन युद्ध के बाद अंग्रेज वादे से पीछे हट गए. राष्ट्रवादी आवाजों को सुने जाने के बजाय रौलट एक्ट लाया गया, जिसने पुलिस को बिना सबूत के भारतीयों को कैद करने में सक्षम बनाया.

कई भारतीय मुसलमान तुर्की के अपमान पर व्यथित थे और अंग्रेज मानते थे कि यह उनकी एकमात्र चुनौती थी. रौलट एक्ट लागू करके इन प्रो-खिलाफत आवाजों को आसानी से दबाया जा सकता था. वे हिंदुओं और मुसलमानों के साथ हाथ मिलाने की संभावना का पूर्वानुमान नहीं लगा पाए और उनके औपनिवेशिक शासन के लिए एक समस्या पैदा हो गई.

18 मार्च, 1919 को रौलट एक्ट पारित किया गया. महात्मा गांधी ने अन्य राष्ट्रवादी नेताओं के साथ इसे एक काला कानून करार दिया और इसके खिलाफ आंदोलन का आह्वान किया. 30 मार्च को सामान्य हड़ताल और विरोध बैठकों के दिन के रूप में चुना गया, जिसे बाद में 6 अप्रैल को बदल दिया गया. दिल्ली में सूचना की कमी के कारण 30 तारीख को ही एक विरोध प्रदर्शन किया गया था. तब पुलिस निहत्थे लोगों पर गोलीबारी से संकोच नहीं करती थी. दिल्ली में 50 से अधिक प्रदर्शनकारी मारे गए. अंग्रेजों ने अहिंसक प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा का उपयोग करने के अपने इरादे को साफ कर दिए.  

6 अप्रैल, 1919 को देश भर में विरोध और हड़ताल की गई, लेकिन पंजाब ने राष्ट्रवाद का एक अनुकरणीय उत्साह प्रदर्शित किया. अंग्रेजों को इस चीज ने सबसे ज्यादा परेशान किया कि आर्य समाज के रूढ़िवादी हिंदुओं और विभिन्न वहाबी और पैन-इस्लामी संगठनों के रूढ़िवादी मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ हाथ मिला लिया. उस समय पंजाब के सबसे लोकप्रिय नेता डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल को सार्वजनिक बयान देने से प्रतिबंधित किया गया था, लेकिन फिर भी एकता नहीं टूटी. विभिन्न स्थानों पर लोगों पर गोलीबारी की गई, लेकिन राष्ट्रवादी भावनाओं को नहीं मारा जा सका.

9 अप्रैल, 1919 को पंजाब भर में राम नवमी मनाने के लिए मुसलमान निकल पड़े. यह अंग्रेजों को बहुत नागवार गुजरा. अमृतसर में सैफुद्दीन और सत्यपाल ने एक भव्य रामनवमी जुलूस निकाला, जहां मुसलमान उतने ही जोश में थे, जितने हिंदू थे. इसलिए अंग्रेजों ने दोनों नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें अज्ञात स्थान पर भेज दिया. जब लोग विरोध दर्ज करने के लिए उपायुक्त कार्यालय में एकत्र हुए, तो उन पर भी गोलीबारी की गई. कई मारे गए.

हिंदू-मुस्लिम एकता का डर अंग्रेजों के लिए इतना भयावह था कि जलियांवाला नरसंहार के बाद भी उन्होंने रामनवमी समारोह में भाग लेने के लिए मुसलमानों को गिरफ्तार किया और मार दिया. एक मस्जिद के इमाम गुलाम जिलानी को 16 अप्रैल को राम नवमी के जुलूस का नेतृत्व करने के लिए खैर दीन के साथ गिरफ्तार किया गया था. पुलिस ने उन्हें सबसे भयावह और अमानवीय अंदाज में प्रताड़ित किया. उनके मलद्वार में डंडा घुसाया गया, जब तक उनका मल और मूत्र बाहर नहीं आ गए. खैर दीन की यातना से मृत्यु हो गई, जबकि जिलानी अंग्रेजों का तांडव का वर्णन करने के लिए बच गए थे. तब राम नवमी मनाने के लिए 100 से अधिक मुसलमानों को इस तरह से प्रताड़ित किया गया था.

दूसरी ओर लाहौर में इन समाचारों के पहुंचने पर अभूतपूर्व तरीके से 25,000 से अधिक हिंदू और मुसलमान बादशाही मस्जिद में एकत्रित हुए और हिंदू नेताओं जैसे रामभज दत्त आदि ने मस्जिद के मंच से लोगों को संबोधित किया. लाहौर में न केवल अंग्रेजों ने गोलियों का इस्तेमाल किया, बल्कि उनके वफादारों को भी सताया. मुस्लिम लीग जैसे कुछ बिके हुए भारतीयों ने बयान जारी किए कि हिंदुओं को मस्जिद में मंच संबोधित करने की अनुमति देकर मस्जिद को अपवित्र किया गया. फिर भी संयुक्त पंजाब के अधिकांश मुसलमान प्रदर्शनकारियों ने युद्ध घोष किया ‘हिंदू-मुसल्मान की जय’.

ब्रिटिश संसद में पेश की गई एक सरकारी रिपोर्ट में इसका उल्लेख किया गया था, ‘(हिंदू मुस्लिम) एकता में केवल एक व्यक्ति था, यह सरकार पर एक संयुक्त हमला था.’

इसी बीच, 13 अप्रैल को बैसाखी के अवसर पर सैफुद्दीन और सत्यपाल की गिरफ्तारी के विरोध में स्वर्ण मंदिर के पास जलियांवाला बाग में एक बैठक का आयोजन किया गया था. सभी हिंदू, मुस्लिम और सिख बाग में एकत्रित हुए. जनरल डायर अपने सैनिकों के साथ सभा स्थल में घुस गया और निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी की. एक रक्तरंजित कहानी, जो हर भारतीय के दिल में है. सैकड़ों भारतीय मारे गए. इस नरसंहार की कहानी लोकगीत बनी और उसने भगत सिंह, राम, मोहम्मद, सिंह, आजाद जैसे क्रांतिकारियों की पीढ़ियों को प्रेरित किया. लेकिन, जो बात हमें याद आती है, वह यह कि अंग्रेज इस पर नहीं रुके. पंजाब ब्रिटिश अत्याचारों की प्रयोगशाला बना रहा.

अगले दिन 14 अप्रैल को गुजरांवाला में लोगों ने एक सार्वजनिक स्थान पर एक सिर-कटे बछड़े को देखा. एक भयावह साजिश को समझने के लिए रॉकेट साइंस नहीं चाहिए कि हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दुश्मनी पैदा करने के लिए यह सब किया गया था. लोगों ने इकट्ठा होकर शांति भंग करने वाले सरकार के कुत्सित प्रयासों का विरोध किया. अंग्रजों ने देखा कि इसके बाद एकता और भी मजबूत हुई है. अपने असफल प्रयासों से निराश होकर अंग्रेजों ने शहर को बम से उड़ाने के लिए सेना के हवाई जहाज बुलाए गए. हां, आप इसे सही पढ़ रहे हैं. हवाई जहाज के आविष्कार के दो दशकों के भीतर और विश्व युद्ध में पहले सैन्य उपयोग के एक दशक से भी कम समय में, जब यह तकनीक सेनाओं के लिए आदर्श थी, तब ब्रिटिशों ने पंजाब के निर्दोष नागरिकों पर इसका इस्तेमाल किया था. तीन विमानों के एक बेड़े ने शहर और आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों पर बम और मशीन गन से गोलियां दागीं. स्कूलों, छात्रावासों, मस्जिदों, विवाह समारोहों आदि में बम गिराए गए. सरकारी रिपोर्ट में विशेष रूप से उल्लेख किया गया है कि यह जिला खतरनाक है, क्योंकि आर्य समाजवादी और रूढ़िवादी मुस्लिम वहाबी जैसे कि फजल इलाही और जफर अली खान ने हाथ मिलाया है. गुजरांवाला में रेलवे की पटरियों के किनारे खड़े लोगों को मारने के लिए मशीन गन से जड़ी एक बख्तरबंद ट्रेन का भी इस्तेमाल किया गया था.

अत्याचार, दमन और हत्याओं की कहानियों को पूरे पंजाब में दोहराया गया था. जलियांवाला बाग का ठीक-ठीक उल्लेख हमारी किताबों में मिलता है और जनता की स्मृतियों में सुरक्षित है. जबकि हिंसा की लंबी श्रंखला को भुला दिया गया. यह तथ्य कि हिंदू-मुस्लिम एकता का मुकाबला करने के लिए अंग्रेजों ने अपनी हिंसा की सबसे खराब सूरत इस्तेमाल की. किया, इस एकता की शक्ति के बारे में खुद बोलते हैं. हमें उस कारण को याद करने की आवश्यकता है? जिसके लिए हमारे पुरखे और पुरखियों ने अपने जीवन को लुटा दिया था.