जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 26-03-2021
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के बाजार में मुस्लिम महिलाएं अपने बच्चों के लिए पिचकारी खरीदती हुईं
उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर के बाजार में मुस्लिम महिलाएं अपने बच्चों के लिए पिचकारी खरीदती हुईं

 

- जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की, और ढफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की.

- नजीर अकबाराबादी के नजरिए से होली की कई नजीरें कविताओं में ढली हैं, देखें उनकी नजर में होली कैसी होती है

फैजान खान / आगरा

ब्रज क्षेत्र का साहित्यिक तथा सांस्कृतिक जगत में जितना योगदान है, उतना संभवतः किसी अन्य क्षेत्र मिलना मुश्किल है. भगवान श्रीकृष्ण का परम पावन चरित्र और उनके द्वारा प्रसारित संदेश विगत शताब्दियों से समस्त भारत की सांस्कृतिक निधि का अभिन्न अंग है. आगरा की धरती पर मीर, नजीर और गालिब जैसे मशहूर शायर पैदा हुए. नजीर को सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल के तौर पर देखा जाता है. उन्होंने होली से लेकर हिंदू-मुस्लिम त्योहारों पर खूब लिखा. नजीर की कविताओं में होली का पूरा रंग चढ़ा नजर आता है. उनकी कलम कविताएं लिखते-लिखते होली के रंगों में सराबोर नजर आती है.

ब्रज के प्राचीन और ऐतिहासिक नगर आगरा का स्थापत्य और संगीत की भांति भारतीय साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है. आगरा में मीर तकी मीर और मिर्जा गालिब जैसे उर्दू के शायरों ने आगरा को गौरवान्वित कराया, तो जनकवि मियां नजीर अकबराबादी ने अपनी वाणी और रचनाओं से जन-जन को प्रभावित किया है.

नजीर की रचनाओं में आम आदमी के जीवन से लेकर त्योहार, मौसम, खेल, तमाशा और मेला आदि विषय मिलते हैं, तो नजीर अकबराबादी की रचनाओं में होली का हुल्लड़ भी दिखाई पड़ता है. ब्रज के कण-कण में नजीर की रचनाएं आज भी गूंजती हैं.

 

उनका मशहूर कवित्तः

 

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की.

और ढफ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की.

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की.

खम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की.

महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की..


हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे.

कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज-ओ-अदा के ढंग भरे.

दिल फूले देख बहारों को, और कानों में अहंग भरे.

कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे.

कुछ घुंघरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की..


गुलजार खिले हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो.

कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो.

मुंह लाल, गुलाबी आंखें हों और हाथों में पिचकारी हो.

उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तककर मारी हो.

सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की..


और एक तरफ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के.

हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट-घट के, कुछ बढ़-बढ़ के.

कुछ नाज जतावें लड़-लड़ के, कुछ होली गावें अड़-अड़ के.

कुछ लचके शोख कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के.

कुछ काफिर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की..


ये धूम मची हो होली की, ऐश मजे का झक्कड़ हो.

उस खींचा-खींची घसीटी पर, भड़वे खन्दी का फक्कड़ हो.

माजून, रबें, नाच, मजा और टिकियां, सुलफा कक्कड़ हो.

लड़-भिड़ के -नजीर7भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो.

जब ऐसे ऐश महकते हों, तब देख बहारें होली की..


उनकी यह गजल भी बड़ी मकबूल हुईः

 

हिन्द के गुलशन में जब आती है होली की बहार.

जांफिशानी चाही कर जाती है होली की बहार..


एक तरफ से रंग पड़ता, इक तरफ उड़ता गुलाल.

जिन्दगी की लज्जतें लाती हैं, होली की बहार..


जाफरानी सजके चीरा आ मेरे शाकी शिताब.

मुझको तुम बिन यार तरसाती है होली की बहार.