हमारे देश में पर्यावरण की खातिर लॉकडाउन संभव है?

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 04-06-2021
सहारनपुर से दिखतीं हिमालय की चोटियां
सहारनपुर से दिखतीं हिमालय की चोटियां

 

राकेश चौरासिया / नई दिल्ली

सोशल मीडिया पर कई चित्र वायरल हो रहे हैं. शौकिया फोटोग्राफरों के इन चित्रों में सहारनपुर से हिमालय की दुग्ध-धवल उत्तुंग चोटियां स्पष्ट दिखाई पड़ रही है, जिन्हें गैर-लॉकडाउन दिनों में देखना तो दूर, सहारनपुर के आस-पास का इलाका भी कई बार दिखना मुश्किल हो जाता है. सहारनपुर के आईटी इंस्पेक्टर दुष्यंत कुमार ने ये तस्वीरें खींचीं हैं और भारतीय वन सेवा के अधिकारी रमेश पांडेय ने अपनी ट्विटर हेंडल पर शेयर किया है. कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर ऐसे भी फोटो शेयर किए हैं, जिनमें शहरी क्षेत्रों का आसमान ग्रामीण क्षेत्रों की तरह महाकाय नीलाभ छत्र की तरह स्पष्ट और निर्मल दिख रहा है. आसमान में उड़ते वायुयानों के पीछे बनती धुएं की लकीरें सुस्पष्ट देखी जा सकती हैं. ऐसी अनुभूतियां शहरी जीवन जीने वाले लोगों के लिए विस्मयकारी हैं, क्योंकि उन्हें इतने भव्य और नयनाभिराम आकाशीय दृश्य देखे बिना जमाना गुजर चुका है.

कोरोना महामारी ने लाखों को अपने से बिछुड़ जाने का गम दिया. चिकित्सकीय संसाधनों और व्यवस्था की खामियों को उजागर करके उन पर पुनर्विचार का वातातरण बनाया है. कुछ लोगों के स्वार्थी चेहरे उजागर हुए, तो कुछ लोगों ने त्वरित सेवा और सहायता पहुंचाकर मानवता के ऊंचे मानदण्ड स्थापित किए. इसी दौर में लागू हुए लॉकडाउन ने वायु प्रदूषण को न्यूनतम स्तर पर लाकर लोगों और विशेषज्ञों को यह सोचने पर विवश कर दिया है कि पर्यावरण सरोकारों के लिए आखिर कितना और किस तरह का काम किए जाने की जरूरत है.

तेज औद्योगिकीकरण की आवश्यकताओं और जिद ने धरती को जल, वायु, ध्वनि और प्रकाश आदि प्रदूषणों की अंधी सुरंग में धकेल दिया है. प्रदूषण को जीने की लत लग जाने के बाद लॉकडाउन ने हमें जो स्वस्थ पर्यावरण की सुखद अनुभूति करवाई है, उससे प्रदूषण फिर से लोगों के एजेंडे पर आता दिख रहा है.

उस बार और इस बार

लॉकडाउन से पर्यावरण पर जो अनुकूल प्रभाव दिखे, उसके दो अनुभव अब विशेषज्ञों को अनायास ही मिल गए हैं. लॉकडाउन-2020 और लॉकडाउन-2021 के अनुभव. हालांकि दोनों के आंकड़े भी चौंकाने वाले हैं. आंकड़ों के आलोक में लॉकडाउन-2020 अधिक सफल रहा. जबकि लॉकडाउन-2021 उतना कारगर नहीं साबित हुआ. लॉकडाउन-2020 में एक्यआई का स्तर न्यूनतम 32 तक पहुंच गया था, जबकि लॉकडाउन-2021 के दौरान एक्यूआई 88 तक ही पहुंच पाया और एक सप्ताह बाद फिर 201 के स्तर पर तन गया.

इन आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि लॉकडाउन-2020 के दौरान केंद्र सरकार ने अपने स्तर पर पहल की थी. लोगों ने पूरी शिद्दत से कोरोना प्रोटोकॉल का पालन किया और अनावश्यक आवाजाही सीमित कर दी थी, क्योंकि लॉकडाउन का मौन, अक्रियता और अगतिविधिता ने अद्भुत उत्सवधर्मिता का स्वरूप ग्रहण कर लिया था, जिसका लोगों ने पहली बार स्वाद चखा था. क्योंकि इससे पहले इतनी भीषण महामारी प्लेग ही आई थी, जो पहली बार 1894 में हांगकांग में नमूदार हुई और जिसने 1918 तक भारत और खासकर बंगाल में भीषण तबाही मचाई और लगभग एक करोड़ लोगों को प्राण गंवाने पड़े.

जबकि लॉकडाउन-2021 को लागू करने का विषय विपक्षी राजनीति के कारण राज्य सरकारों के पास आ गया. इसका नतीजा यह हुआ कि विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न स्तर का लॉकडाउन लागू हुआ. लॉकडाउन-2020 के दौरान बाजार पूरी तरह बंद थे. वाहनों के भी सीमित परिवहन की अनुमति थी, जो धीरे-धीरे खोली गई थी. कारखाने और उनके जेनरेटर पूरी तरह बंद हो गए थे.

किंतु लॉकडाउन-2021 को राज्य सरकारों ने लागू किया, तो अर्थव्यवस्था के नुकसान और गत वर्ष के अनुभवों को देखते हुए सप्लाई चेन बनाए रखने के लिए माल परिवहन की पूरी इजाजत दी गई. इसके अलावा लगभग सभी राज्यों में आवश्यक वस्तुओं के लिए बाजारों खुलने की भिन्न-भिन्न समयसारिणी भी लागू की गई थी. इस बार कई स्थानों पर पुलिस प्रशासन की चुस्ती के साथ ढील भी दिखी, जिस कारण बाजार बंद हो जाने के बावजूद लोग अत्यावश्यक कार्यों के अलावा भी वाहनों को लेकर सड़कों पर सक्रिय रहे. इस वर्ष गतिविधियां सीमित तो रहीं, लेकिन गत वर्ष के मुकाबले जितनी नहीं. इसलिए प्रदूषण स्तर गिरा जरूर, लेकिन गत वर्ष की तरह नहीं.

फेफड़ों के मजे आ गए

पिछले वर्ष की भांति इस बार भी लॉकडाउन के दौरान शहरों में ऑक्सीजन स्तर ज्यादा बेहतर हुआ और फेफड़ों को राहत मिली, क्योंकि फोर्स्ड रेसपिरेटरी वॉल्यूम (एफआरवी) और पीक एक्सपीरेटरी फ्लो रेट (पीईएफआर) के स्तर में सुधार देखा गया.

नेशनल कॉलेेज आफ चेस्ट फिजिशियन इंडिया के सेंट्रल जोन चेयरमैन प्रोफेसर एसके कटियार का कहना है कि प्रदूषण फैलाने वाले तत्व कम होंगे, तो डैमेज रुक जाएगा. फेफड़ों मेें जो बदलाव आए होंगे, वे रिवर्ट होने लगते हैं. 

लॉकडाउन अब इसलिए

लॉकडाउन की अवधारणा लगभग शत-प्रतिशत भारतीयों के जीवन में कोरोना वायरस के कारण आई. लॉकडाउन से रोग संचार कम हुआ, लेकिन अर्थव्यवस्था भी थम गई. किंतु लॉकडाउन ने पर्यावरण सुधार में अपने महत्व को रेखांकित भी किया. विशेषज्ञों के लिए यह विचार गवेषणीय है कि अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाए बिना लॉकडाउन का कोई ऐसा मॉडल हो सकता है, जिससे पर्यावरण के लिए आम सहमति से कार्यान्वित किया जाए, जो पर्यावरण और देश की श्रमशक्ति को स्वास्थ्यप्रद विश्राम के लिए लाभकारी हो. 

इसके अलावा पर्यावरण को सुधारने के लिए निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक वाहनों, स्कूल के लिए स्कूल बसों और कार्यालय के लिए सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल किया जाए. कार पूलिंग भी की जा सकती है. छोटी दूरी के लिए साईकिल का इस्तेमाल आपके स्वास्थ्य संरक्षण के साथ पर्यावरण को नुकसान भी नहीं पहुंचाएगा. ऊर्जा जरूरतों के लिए जीवाश्म ईंधन के बजाय सौर ऊर्जा का इस्तेमाल हो, ताकि धुएं का उत्सर्जन कम हो. घरों में सोलर पैनल के साथ सौर ऊर्जा आधारित वाहनों के उत्पादन और उपयोग में तीव्रता लाई जाए. क्योंकि लॉकडाउन में हमने देखा कि जेनरेटरों के धुएं का स्तर गिरने और वाहनों की आवाजाही सीमित होने से प्रदूषण स्तर तेजी से गिरा है.