75 का भारतः आजादी के पहले देशभक्ति फिल्म बनाना भी हिम्मत का काम था

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 02-08-2022
फिल्म किस्मत का पोस्टर
फिल्म किस्मत का पोस्टर

 

मंजीत ठाकुर/ नई दिल्ली

आज जबकि भारत की आजादी के 75 साल पूरे होने के जश्न में पूरा देश डूबा है, पीछे पलटकर यह देखने की आवश्यकता है कि स्वतंत्रता संग्राम के इस महायज्ञ में किसने कैसी और कितनी आहुति दी थी.

बेशक, भारत में सिनेमा बेहद लोकप्रिय विधा रही है. फिल्म स्टार घर-घर में पहचाने जाते रहे हैं और अपनी आम जिंदगी में भी लोग उनकी नकलें उतारते हैं, चाहे कपड़ों का ढब हो या फिर बालों का, बोलने का अंदाज हो या चलने का तरीका.

ऐसे में यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि देशप्रेम, स्वतंत्रता आंदोलन वगैरह से सिनेमा उस वक्त कितना जुड़ा हुआ था जब देश आजादी के लिए ब्रिटिश सरकार से जूझ रहा था. आखिर सिनेमा साहित्य की तरह ही समाज का दर्पण होता है. आजादी के इस आंदोलन में आखिर सिनेमा का योगदान कितना रहा था?

भारत में मौलिक रूप से फीचर फिल्मों की शुरुआत 1913 से मानी जाती है जब दादा साहेब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चंद्र’नाम की फिल्म बनाई और इतिहास रच दिया. फिर 1931 में आर्देशिर ईरानी ने सिनेमा को आवाज दी और भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलमआरा’का निर्माण किया. आवाज आने के बाद ही सिनेमा में समाज के मकसदों को भी आवाज मिलने लगी थी.

तीस के दशक में एक फिल्म बनाई गई थी ‘महात्मा विदुर’. लेकिन अंग्रेजों ने इस फिल्म पर बंदिश लगा दी क्योंकि एक तो इसके टाइटिल में महात्मा शब्द जुड़ा था, दूसरा महाभारत का पात्र विदुर इस फिल्म में गांधी जी की तरह दिखता था. अंग्रेजों को ऐसे में यह पौराणिक फिल्म भी आजादी के आंदोलन को समर्थन देने वाला लगा.

लेकिन सामाजिक मसलों पर फिल्में बनती रहीं, जैसे कि बॉम्बे टॉकीज की 1936 की फिल्म ‘अछूत कन्या’अशोक कुमार और देविका रानी की फिल्म थी और इसने छुआछूत जैसे विषय को केंद्र में रखा.

कुछ फिल्मों में सीधे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जनता के जगाने की बात कही गई थी, तो कुछ फिल्मों में सोए हुए भारतीयों के आत्मविश्वास को जगाने का प्रयत्न किया गया था.

देशभक्ति पर आधारित फिल्‍मों के निर्माण की शुरुआत 1940 से मानी जाती है. ब्रिटिश शासन के कड़े सेंसरशिप के दौर में देशभक्ति फिल्‍म बनाने का साहस किया फिल्‍मकार ज्ञान मुखर्जी ने और 'बंधन' का निर्माण किया.

अपने जमाने के मशहूर अभिनेता अशोक कुमार, लीला चिटनिस और सुरेश कुमार जैसे सितारों से सजी फिल्‍म 'बंधन' ही देशभक्ति पर आधारित संभवत: पहली फिल्म थी. श्‍वेत-श्‍याम इस फिल्‍म के सभी गीत एक से बढ़ कर एक थे. 'बंधन' के सभी गाने कवि प्रदीप ने लिखे थे.

फिल्‍म का एक गीत, ‘चल-चल रे नौजवान’बहुत मशहूर हुआ. कवि प्रदीप की इस कालजयी रचना को आजादी के मतवालों ने अपना नारा बना लिया था.

बेशक, आजादी के पहले स्वतंत्रता आंदोलन पर आधारित या देशभक्ति से भरी फिल्में बनाने पर बंदिश थी. फिर भी कुमार मोहन की '1857' (1947) जैसी फिल्म किसी तरह प्रदर्शित हो गई थी. फिल्म 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि पर बनी एक लव स्टोरी थी, जिसमें सुरैय्या और सुरेंद्र थे.

इसी तरह ज्ञान मुखर्जी ने देश को केंद्र में रखने कर एक और फिल्म 1943 में बनाई थी. बॉम्बे टॉकीज की इस फिल्म का नाम था ‘किस्मत’. यह फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में पहली ब्लॉकबस्टर मानी जाती है और यह मुंबई में लगातार पांच साल चलने वाली पहली फिल्म थी.

फिल्म 'किस्मत' (1943) का गाना ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालों, हिंदुस्तान हमारा है’ सेंसर की कैंचीं से बच निकला था. इसी फिल्म के लिए कवि प्रदीप ने गीत में लिखा था, ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है.’

इसी गाने में आगे लिखा गया है ‘शुरू हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठो हिन्दुस्तानी, तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी.’

दूसरे विश्व युद्ध के दौरान में भारत मित्र राष्ट्रों की ओर था और वास्तविक रूप में जर्मनी और जापान का शत्रु था. 1942 में सिंगापुर और बर्मा के लड़खड़ाने के बाद भारत में जापानी आक्रमण की चिंता वास्तविक होने लगी. लेकिन अंग्रेज चालाक थे और इस महीन बात को समझते थे कि जंग का मतलब स्वतंत्रता संघर्ष है और विदेशी का जिक्र गाने में अंग्रेजों के लिए किया गया है. बहरहाल, गिरफ्तारी से बचने के लिए कवि प्रदीप भूमिगत हो गए.

फिल्म में अशोक कुमार चोर बने थे. यह फिल्म गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन के छह महीने बाद रिलीज हुई थी.

1946में चेतन आनंद की फिल्म 'नीचा नगर' में ब्रिटिश शासन के दौरान अमीरों और गरीबों के बीच की खाई को दर्शाया गया था. यह फिल्म मैक्सिम गोर्की के नाटक द लोएस्ट डेप्थ्स पर आधारित थी. यह कांस फिल्म समारोह में प्रतिष्ठित पाम डी'ओर पुरस्कार पाने वाली एकमात्र भारतीय प्रविष्टि बनी हुई है.

इससे पहले वी. शांताराम की 'स्वतंत्रयाचा तोरन' (आजादी का ध्वज, 1931) में मराठा सम्राट शिवाजी को दर्शाया गया था और फिल्म में दिखाया गया था कि किस तरह उन्होंने सिंहगढ़ किले में जीत की पताका लहराई थी. लेकिन यह फिल्म सेंसर में उलझ गई. ब्रिटिश सेंसर को ‘आजादी’ जैसे शब्द से समस्या थी. फिर फिल्म के टाइटिल को बदलकर ‘उद्याकल’किया गया. कई बदलाव किए गए. तब जाकर फिल्म को प्रदर्शन के लिए मंजूरी मिली.

बेशक, आजादी के बाद देशभक्ति का उबाल फिल्मों में देखने को मिला, लेकिन रचनात्मक छूट थी, सेंसर का ज्यादा चक्कर नहीं था, इसलिए आजादी के बाद बनी फिल्मों का जिक्र अलग से करना होगा.

असल तारीफ तो उनकी बनती है जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के दौरान भी आजादी के आंदोलन की बात को छिपे तौर पर सही या प्रतीकों में ही परदे पर उतारा.